अक्तूबर 01, 2011

जिंदगी की सिसकती शाम

अपने जीवन का हर पल परिवार, बच्चों के लिए कुर्बान करने वाले हमारे वृद्धजन, आज कतरे भर खुशी के लिए तरसते, सिसकते दिखाई देते हैं। जो कभी अपने बच्चों की आंखों की रोशनी से अपने बुढ़ापा रोशन करने का ख्वाव देखते थे, आज उन्हीं आंखों से आंसुओं का समंदर बह रहा है। वे सबकी चिंता करते हैं, उनकी कोई चिंता नहीं करता। वे आज भी अपनों पर प्यार लुटाते हैं, लेकिन उनके अपने उनसे दूरी बनाने पर तुले हैं। प्यार और मोह का यह खेल सदियों से चला आ रहा है। इसलिए तो वह बच्चों को देखकर खुश होता है। अपनेपन की खुशी शायद ऐसी ही होती होगी। ढलती जिंदगी की ऐसी सिसकती शाम! नही यह उचित नहीं है।
भगवान बुद्ध कहते हैं ‘संसार दुःखमय है और दुःख का कारण है ‘तृष्णा’, पर उम्र के साथ तृष्णाएं कम होने लगती तो दुःख कम हो जाता है।’ लेकिन हो इसका उल्टा रहा है बुजुर्ग जितने दुःखी और पीड़ित हैं उतना शायद ही वे कभी अपनी जिंदगी में रहे होंगे। तनाव के कारण परिवार टूट रहे हैं, आधुनिकता की अंधी दौड़ जारी है, पश्चिमी देशों का अंधानुकरण तेजी से हो रहा, दुनिया मंहगी होती जा रही है। ऐसे में एक छोटे वर्ग को छोड़कर शहरों और महानगरों में अपने बुजुर्गों को पास रखने के लिए अधिकांश घरों में एक अलग कमरा तक नहीं है। गांवों के हालात ऐसे हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव के कारण बुढ़ापा नरक बन जाता है। इसलिए जिंदगी की यह शाम जिसे शांति से बीतना चाहिए था रोते-सिसकते बीतती है। आज के इस वातावरण में बुजुर्गों की उपेक्षा को ज्वलंत प्रश्न मानकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व भर के लोगों ने 1989 में विशेष चर्चा की। इसके बाद जिनेवा की बैठक में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने प्रस्ताव 45/106 के द्वारा 1 अक्टूबर 1991 को सबसे पहले विश्व स्तर का ‘वृद्ध दिवस’ मनाया। इस पहल को हम 20वीं सदी की एक उपलब्धि मान सकते हैं।
समृद्ध साहित्यकार शिवपूजन सहाय कहते हैं कि अमीरी की कब्र पर गरीबी की पनपी हुई घास बहुत जहरीली होती है। यद्यपि यह बात अमीरी तथा गरीबी को लेकर कही गई है लेकिन यह जवानी और बुढ़ापे पर चरितार्थ होती है। जवानी के दिनों में शान-शौकत और सीना तानकर रहने वाला व्यक्ति बुढ़ापा आते ही झुक जाता है। उसका शरीर अशक्त हो जाता है। उसे कुछ भी नहीं सूझता। इस स्थिति में कोई भी परिवर्तन उसे नागवार गुजरता है। अनेक बीमारियां हावी होने लगती हैं। कम सुनाई देना, अंधापन, मौत का भय, कभी-कभी जीवन साथी से बिछुड़ जाने का गम, विकलांगता, नई पीढ़ी से सामंजस्य न बिठा पाना आदि-आदि अनेक समस्याएं बुढ़ापे में सताने लगती हैं। महंगाई की मार से त्रस्त अधिकतर शहरी परिवार भी अपने बच्चों का भरण पोषण तक कठिनाई से कर पाते हैं। इस कारण उनके पास बुढ़ापे के लिए शायद ही कोई बचत रह पाती है। जिन बच्चों पर वे खर्च करते हैं उनसे उन्हें उम्मीद होती है कि आने वाले भविष्य में वे उनका सहारा बनेंगे। लेकिन वही बच्चे उन्हें छोड़ते जा रहे हैं। इसी कारण गरीबों के लिए बुढ़ापा और भी दुखदायी हो जाता है। अगर समाजशास्त्रियों की माने तो बुजुर्गों को अकेले नहीं रहना चाहिए, क्योंकि अकेलेपन के कारण अवसाद तथा कई अन्य मनोवैज्ञानिक रोग उनको घेर लेते हैं।
एल्विन टॉफ्लर लिखते हैं कि ज्ञान की तेजी से बढ़ती दर के कारण बुजुर्ग लोग तारीख से बाहर हो जाते हैं। इसलिए पश्चिमी देशों में वृद्धों का सम्मान कम है। यहां के लोग उन्हें आउट डेटेड मानकर घर से बाहर कर देते हैं। इसलिए यहां वृद्धाश्रमों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। जहां न तो उन्हें अपनों का प्यार मिल पाता है और न ही जिंदगी का सुख। यूएसए के 98 प्रतिशत वृद्धाश्रमों में वृद्धों के साथ अमानवीय व्यवहार होता है। ब्रिटिश समाचार पत्र गार्जियन के सम्पादक की मानें तो पश्चिमी देशों में वृद्धभेद, रंगभेद की तरह फैला है। हम सब इसी को प्रगतिशीलता का नाम देते हैं। हम भी पश्चिमी देशों का अंधानुकरण कर रहे हैं। आधुनिकता के नाम पर परिवार टूट कर न्यूक्लियर हो रहे हैं। भारत में जिन वृद्धों की सेवा से पुण्य प्रताप मिलने की बात कही जाती थी उन्हें अनुपयोगी माना जाने लगा है। पढ़े लिखे नितांत स्वार्थी होकर असुरत्व का आलिंगन कर रहे हैं। हम इतने स्वकेंद्रित हो गए हैं कि अपने मां-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी को अपने घर में देखना फूटी आंख नहीं सुहाता। आधुनिक बेटे-बहू वृद्धों को घर से निकाल रहे हैं। जिस कारण वे सड़कों-फूटपाथों और वृद्धाश्रमों में जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं। पश्चिमी देशों का यह अंधानुकरण हमें और हमारे देश को रोटी कमाना तो सिखा रहा है परंतु किसी का सहारा बनना नहीं।
मनु स्मृति में लिखा है कि ‘‘अभिवादन शीलस्य नित्यम् वद्धोपसेविन:। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विधा यशोबलम्।। अर्थात् जो लोग वृद्धों की सेवा करते हैं उनकी आयु, विद्या, यश और बल चार चीजों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। जीरियेट्रिशन विलियम थामस लिखते हैं कि एक अध्ययन में यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के अंनुसंधान कर्ताओं ने पाया है कि जिन बच्चों को नाना-नानी और दादा-दादी यानि बुजुर्गों का प्यार मिलता है उनमें जीवित रहने की क्षमता बाकी बच्चों की तुलना में अधिक होती है। बुजुर्गों का साथ हमारे बच्चों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। उनके आशीर्वाद से जन्म जन्मातरों के पाप नष्ट हो जाते हैं। बुजुर्गों को चलती फिरती डिक्शनरी कहा जाता है। लेकिन फिर भी न जाने क्यों हम भोगवादी होकर अपने बुजुर्गोंं को भुलाते जा रहे हैं। हमारी संस्कृति हमें ‘त्याग के साथ भोग करने’ का पाठ पढ़ाती है। वे बुजुर्ग जिन्होंने जीवन भर हमें प्यार दिया यदि एक पल के प्यार के तरसें तो इसे क्या कहें-स्वर्ग या नरक। ऐसा भी कहा गया है जिस घर में वृद्ध नहीं होते उस घर में देवताओं की कृपा नहीं होती। बिना वृद्ध के कोई सभा नहीं हो सकती। इतना सब होते हुए भी वृद्धों के प्रति असम्मान क्यों ? वृद्धों के प्रति हमें अपनी इस नीति को बदलाना होगा।
हमने जिस संस्कृति में जन्म लिया है वह हमें यह नहीं सिखाती कि जिन्होंने अपनी जिंदगी की खुशियां हमें बनाने के लिए कुर्बान कर दीं, जो सपने संजोते रहे कि हमारा बेटा या बेटी बड़े होकर हमारे बुढ़ापे को नई सुबह देंगे, उनके साथ हम गैरों जैसा व्यवहार करें। ऐसे में आवश्यक है कि सरकार, समाज और परिवार सभी मिलकर एक ऐसा अभियान चलाएं कि जिससे बुजुर्ग होने की पीड़ा कम हो सके। क्यों न कुछ ऐसा किया जाए जो सामाजिक क्रांति बने और बुजुर्ग होने का अभिशाप, वरदान साबित हो और जिंदगी की यह शाम गमगीन होने के बजाय खुशनुमा हो जाए।
नोट : यह लेख दैनिक भास्‍कर नोएडा के 2 अक्‍टूबर के अंक में पेज 5 पर प्रकाशि‍त हुआ है। ढलती जिंदगी और एकाकी सिसकती शाम नामक शीर्षक से

1 टिप्पणी:

  1. कहीं न कहीं एक सबके जिम्मेदार भी शायद हम हीं है। बहुत अच्छा लिखा है आपने समय मिले तो कभी आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं