जून 15, 2012

तालाबों की कब्र पर खड़ी होती इमारतें


पनघट और पनिहारिनों का बहुत पुराना रिश्ता है, लेकिन बदलते दौर में यह रिश्‍ता खत्‍म हो गया है। अब न तो पनिहारिनों के गीतों की धुनें सुनाई देती हैं और न ही कहीं तालाब दिखते हैं। अब तो पानी के लिए लोगों को मीलों भटकना पड़ता है। कभी जिन तालाबों का सरोकार आमजन से हुआ करता था, उन तालाबों की कब्र पर अब हमारे भविष्‍य की इमारतें तैयार की जा रही हैं। ये तालाब हमारी प्‍यास बुझाने के साथ-साथ खेत-खलिहानों की सिंचाई के माध्यम हुआ करते थे। एक आंकड़े के अनुसार, मुल्‍क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। तुलसीदास कृत रामचरित मानस में भी जिक्र आता है, सिमट-सिमट जल भरहिं तलावा, जिम सद्गुण सज्‍जन पहिं आवा। इन तालाबों की वजह से किसानों को सिंचाई के लिए मानसून पर निर्भर नहीं रहना पड़ता था और वह समय पर खेतों की सिंचाई कर लिया करता था। तालाबों के बारे में पर्यावरणविद अनुपम मिश्र अपनी पुस्‍तक आज भी खरे हैं तालाब में कहते हैं, ये सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्‍य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों, तो दहाई थी बनाने वालों की, यह इकाई, दहाई मिलकर, सैकड़ा, हजार बनता था। पिछले दो सौ वर्षों में नए किस्‍म की थोड़ी-सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार को शून्‍य बना दिया।
लंबे अंतराल बाद पिछले दिनों अपने गांव जाने का अवसर मिला। चार दिनों की इस यात्रा में सब कुछ सुखद रहा है, लेकिन एक बात ने दिल को बुरी तरह झकझोर दिया। ग्रामीण इलाकों में तालाबों को पाटने का सिलसिला देखकर यह सोचने पर मजबूर हो गया कि आखिर हम किस तरह के विकास पथ पर आगे बढ़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग 182 तालाब हुआ करते थे। उनमें से अब महज 20 से 30 तालाब ही बचे हैं। जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा न के बराबर है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्‍ली में अंगरेजों के जमाने में लगभग 500 तालाबों के होने का जिक्र मिलता है, लेकिन कथित विकास ने इन तालाबों को लगभग समाप्‍त ही कर दिया।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने नए तालाबों का निर्माण तो नहीं ही किया, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं। भू-मफियाओं ने तालाबों को पाटकर बनाई गई इमारतों का अरबों-खरबों रुपये में सौदा किया और खूब मुनाफा कमाया। इस मुनाफे में उनके साझेदार बने राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी। माफिया-प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं की इस जुगलबंदी ने देश को तालाब विहीन बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। नतीजतन देश भर में तालाबों की संख्‍या 80 हजार के आसपास ही रह गई। यह तो सरकारी आंकड़ों की जुबानी है, इसमें कितनी सचाई है, यह किसी को नहीं पता। सरकार ने मनरेगा के तहत फिर से तालाब बनाने की योजना का सूत्रपात किया है। अरबों रुपये खर्च हो गए, लेकिन वास्तविक धरातल पर न तो तालाब बने और न ही पुराने तालाबों का संरक्षण ही होता दिखा।
गुजरते वक्‍त के साथ तालाबों को दम तोड़ते देखा जा सकता है। सवाल उठता है कि आखिर यह कैसा विकास है, जो हमारे पर्यावरण के साथ खुलेआम खिलवाड़ कर रहा है और भावी पीढ़ी के जीवन के लिए संकट पैदा कर रहा है। जहां तालाब होते हैं, वहां का भूजल स्तर बेहतर होता है और फसलों को भी पर्याप्त पानी मिलता रहता है। लेकिन अब न तो वह दौर है, न ही तालाब बनवाने वाले वे लोग। बेशक अब वह दौर नहीं लौट सकता, पर तालाबों के संरक्षण और निर्माण को फिर शुरू तो कर सकते हैं। 
इस लेख को आप 15 जून के कांपेक्‍ट अमर उजाला में भी पढ़ सकते हैं। नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करें।

2 टिप्‍पणियां:

  1. गांव में पहले पोखर-तालाब हुआ करते थे। जिसमें बारिश का पानी इकठ्ठा हो जाता था और वह संचित जल गांव भर के काम भी आता था और उससे जल स्तर भी बना रहता था। जब से लोगों ने उन सार्वजनिक तालाबों को क़ब्ज़ा करके उस पर निर्माण कर लिया है तब से जल स्तर नीचे होता जा रहा है। तालाबों का पुनरूद्धार करने के लिए हमें एक आन्दोलन चलाना होगा।
    http://charchashalimanch.blogspot.in/2012/06/1-solution-for-every-problem.html

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  2. हर बार आंदोलनों की बात की जाती हैं अनवर जी। लेकिन सही हल आंदोलन नहीं अभियान चलाना होगा, खुद तालाब बनाने होंगे और लोगों को तालाब बनाने के लिए प्रेरित करना होगा। शुरूआत खुद से करें तो बात बन जाए।

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