दिसंबर 17, 2012

अब आप मांगा सकते हैं अपनी बात ‘काव्य संग्रह’, मेरी पहली पुस्‍तक

अब आप मांगा सकते हैं अपनी बात ‘काव्य संग्रह’ घर बैठे
Genre: Poetry
Language: Hindi
Format: Paper Back
Publisher: Uttakarsh Prakashan (2012)
MRP: 100 rupees

Offer Price: 80 rupees
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Pages: 96
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अक्तूबर 08, 2012

समग्र विकास से ही खुशहाली संभव


यह उदारीकरण का ही कमाल है कि एक तरफ जहां देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, वहीं गरीबों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है।
देश भर में पिछले कई वर्षों से विकास की चर्चा जोरों पर है। परंतु जब भी विकास की बात होती है, हर बार अमेरिकी मॉडल को ही अपनाने पर जोर दिया जाता है। हमारे देश के प्राकृतिक एवं विशाल मानव संसाधनों को ध्यान में रखकर कोई ठोस नीति नहीं बनाई जा रही, ताकि बेरोजगारी भी खत्म हो और खुशहाली भी आए। हमारे देश में उदारीकरण के दो दशकों के दौरान कैसा विकास हुआ है, उसकी असलियत ग्रामीण इलाकों में जाकर ही पता चलती है। मानव विकास सूचकांक एवं कुपोषण के मामले में हमारे देश की मौजूदा हालत सरकारी दावों की पोल खोलने के लिए काफी है। ग्रामीण इलाकों में बेशक मनरेगा जैसी कुछ योजनाओं के चलते चंद लोगों को रोजगार मिला है, लेकिन वह योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई है और भूख और बेरोजगारी को पूरी तरह खत्म करने में असमर्थ है।
हमारे यहां वास्‍तविक विकास तभी संभव हो पाएगा, जब देश के अंतिम व्‍यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। यहां ऐसी नीतियों की जरूरत है, जिसमें देश के उस वर्ग का हित समाहित हो, जो देश का पेट भरने के लिए अनाज पैदा करता है। आज स्थिति यह है कि किसानों की जमीन छीनकर उद्योगपतियों को दी जा रही है। नतीजतन हमारा देश दो हिस्‍सों में बंट गया है। एक है, ऊंचे-ऊंचे मॉल, बड़ी-बड़ी इमारतें, शानो-शौकत और आधुनिकता से परिपूर्ण जीवन शैली वाला इंडिया, तो दूसरा है दीन-हीन भारत, जहां विवश किसान, गरीब मजदूर, उत्पीड़न के शिकार दलित, भूमि और आजीविका से बेदखल जनजातियां और शहरों की गलियों में भीख मांगते छोटे-छोटे बच्चे नजर आते हैं।
ऐसा नहीं है कि विकास की हमारी अपनी कोई नीति नहीं रही है। हमारी भारतीय संस्‍कृति में साथ-साथ रहने, खाने, जीने और आगे बढ़ने की शिक्षाएं दी जाती हैं। यानी विकास हो तो सभी के हित और सुख के लिए, न कि केवल कुछ खास लोगों और वर्गों के लिए। विकास के इस मॉडल में व्‍यक्ति के शारीरिक, मानसिक, आध्‍यात्मिक और सामाजिक विकास की अवधारणा समाहित है। लेकिन उदारीकरण के बाद के वर्षों पर नजर डाले, तो साफ महसूस होता है कि देश की इस विशेषता को लगातार खत्म करने की कोशिशें जारी हैं। बाजारवाद और वैश्‍वीकरण ने हमारे विचार, व्‍यवस्‍था और व्‍यवहार, तीनों में व्यापक परिवर्तन लाने की चेष्‍टा की। वर्तमान में लंबी-चौड़ी सड़कें, विशाल मॉल, एफडीआई से आने वाले धन, बढ़ती जीडीपी को ही विकास का मानदंड समझ लिया गया है। असल वात तो यह है कि सत्ता में बैठे लोग इसी को विकास मनवाने पर तुले हैं। परंतु यह टिकाऊ और संतुलित विकास नहीं है। असली विकास तो तब होता, जब चारों-ओर खुशहाली का माहौल होता और हर किसी के चेहरे की मुस्‍कान विकास का गुणगान करती दिखाई देती। शेयर बाजार का उछलना और विदेशी मुद्रा भंडार का बढ़ना विकास नहीं है।
अगर सरकार की ही बातों पर गौर करें, तो देश की लगभग 80 करोड़ जनता 20 रुपये रोजना पर गुजारा करती है। आखिर ऐसा क्यों है कि एक तरफ देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, दूसरी तरफ गरीबों की संख्या में भी लगातार इजाफा होता जा रहा है। दरअसल यहां जो भी नीतियां बनाई जाती हैं, वे पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हितों को ध्‍यान रखकर। यही वजह है कि आज आर्थिक असमानता की खाई चौड़ी हुई है। इस खाई को पाटने के लिए एक समग्र विकास ढांचे की जरूरत है, जिसमें समाज के हर वर्ग को तवज्जो मिले और आर्थिक समृद्धि के साथ-साथ देश की संस्कृति का भी खयाल रखा जाए। पहले व्‍यक्ति निर्माण, फिर परिवार निर्माण और उसके बाद समाज निर्माण के संकल्‍प के साथ जब आगे बढ़ा जाएगा, तभी राष्‍ट्र का निर्माण संभव है। इसके बाद ही वह दौर आएगा, जब विकास की बूंद उस अंतिम व्‍यक्ति तक पहुंचेगी, जो आम आदमी के नाम से जाना जाता है।
 8 अक्‍टूबर 2012 के अमर उजाला कांम्‍पेक्‍ट में  विकास के समग्र मॉडल पर चर्चा करता आलेख पढ़ें  http://compepaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20121008a_012108004&ileft=294&itop=67&zoomRatio=158&AN=20121008a_012108004

अक्तूबर 04, 2012

टेलीवीजन संस्कृति के दोहरे मानदंड


एक तरफ तो कलर्स चैनल भारतीयता का ढोंग करते हुए कई ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण करता है जिनमें भारतीय संस्कृति के गौरव की व्याख्या की जाती है। दूसरी और 'बिग बॉस' जैसे कार्यक्रम के माध्यम से उसी संस्कृति को धूल-धूसरित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी जाती है। संस्कृति को तोड़ने और बचाने के इस दोहरे मापदंड में फायदा किसका है।
टेलीविजन चैनल 'कलर्स' पर दिखाए जाने वाले लोकप्रिय कार्यक्रम 'बिग बॉस' का आगाज 6 अक्टूबर से होने जा रहा है। ज्यादा से ज्यादा दर्शक बटोरने के लिहाज से इस कार्यक्रम का प्रसारण प्राइम टाइम में किया जाएगा। हमेशा की तरह इसमें ग्लैमर जगत की हस्तियां शिरकत करने जा रही हैं, हालांकि कार्यक्रम के होस्ट सलमान खान का कहना है कि 'बिग बॉस' का यह संस्करण पूर्णतया पारिवारिक होगा, लेकिन अब तक जिन लोगों के नाम इसके लिए गिनाए जा रहे हैं, उसे देखकर यह कहना मुश्किल है। दर्शक इस बार  'बिग बॉस' के घर में मॉडल से अभिनेत्री सयाली भगत, मैच फिक्सिंग की आरोपी नूपुर मेहता, सेक्स गुरू स्वामी नित्यानंद, अभिनेता आमिर खान के भाई फैजल खान, पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू, एंकर/अभिनेता जय भानुशाली को देख सकते हैं।कार्यक्रम में एक विदेशी मेहमान किम करदाशियां के आने संभावनाएं प्रबल हैं।
दर्शकों को याद होंगे 'बिग बॉस' के पिछले 5 संस्करण, जिनमें अश्लीलता और गाली-गलौज को लेकर हमेशा विवादों की स्थिति बनी रहीं। इसी शो के पांचवें संस्करण में भारतीय मूल की कनाडाई पोर्न स्टार सन्नी लियोन को जोरदार तरीके से पेश किया गया। इस स्टार के आने से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ स्कूलों और कॉलेजों में जाने वाला युवा वर्ग। इंटरनेट पर 'सन्नी लियोन' को सर्च करने वालों का हुजूम उमड़ पड़ा।
इससे शो की टीआरपी बढ़ गई। रही सही कसर फिल्म 'जिस्म-2' ने पूर्ण कर दी। न तो केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के ओर से इस पर कोई आपत्ति जताई गई और न ही शो के होस्ट संजय दत्त और सलमान खान को इस पर ऐतराज़ हुआ। परिणाम यह हुआ कि शो के निर्माताओं ने टीआरपी बढ़ाने का फंडा तो खोज लिया लेकिन भारतीय संस्कृति की मर्यादा को तार-तार कर दिया। बीते कुछ सालों की बात करें तो टीआरपी के चक्कर में छोटे पर्दे के शोज बनाने वाले निर्माता सभी मर्यादाओं को ताक पर रखकर पैसों की खातिर संस्कृति के प्रति अपनी जवाबदेही भूलाकर अपसंस्कृति की शरण में चले जाते हैं। इसी कारण कल तक देश को साक्षरता, संस्कृ ति और जागरूकता का पाठ पढ़ाने वाला टेलीविज़न, अश्लीलता और नग्नता फैलाने का माध्याम बनता जा रहा है।
हम सबने 'बिग बॉस' के 5 संस्करण देखें, हर बार इसमें उन विवादित हस्तियों को लाने का प्रयास किया जाता है, जिन्होंने भारतीय संस्कृति को कहीं न कहीं शर्मशार किया है, या फिर ऐसे लोगों को लाया जाता है जिनका कैरियर समाप्त हो चुका और इस शो के माध्यंम से उनके कैरियर को संजीवनी प्रदान करने की कोशिशें की जाती हैं, वो भी सांस्कृतिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर। अब प्रश्न यह उठता है कि एक तरफ तो कलर्स चैनल भारतीयता का ढोंग करते हुए कई ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण करता है जिनमें भारतीय संस्कृति के गौरव की व्याख्या की जाती है। दूसरी और  'बिग बॉस' जैसे कार्यक्रम के माध्यम से उसी संस्कृति को धूल-धूसरित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी जाती है।
संस्कृति को तोड़ने और बचाने के इस दोहरे मापदंड में फायदा किसका है उन कॉरपोरेट घरानों का जो भारतीय संस्कृ ति को निरंतर बेच कर अपना पेट भर रहे हैं। इसे यहीं रोकना होगा, सरकार चुप है, दर्शक खुश तो संस्कृति को कौन बचाएगा। जब कला का पुजारी कलाकार ही नंगा नाच नचाने लगेगा तो, संस्कृति का क्षय तो निश्चित ही है। समय आ गया है कि कला और संस्कृति के पुजारियों को विवेक की कसौटी पर परख कर ही किसी कार्य को आगे बढ़ाना चाहिए, अन्यथा सिर्फ पैसा कमाने के चक्कर के अपसंस्कृति हम पर इस कदर हावी हो जाएगी कि हमारी आने वाली पीढ़ी इसे देखकर हम पर शर्म करेगी। यही समय है कि सुधर जाएं और अपना तथा अपनी संस्कृ़ति का भविष्य उज्वल बनाएं। प्रत्येक संस्कृति के मूल में एक जीवन-दर्शन होता है। इसीलिए प्रत्येक कला के मूल में भी एक जीवन-दर्शन होता है। आवश्यक नहीं कि उसके प्रति कला सचेत भी हो; वह अंशत: या संपूर्णतया अवचेतन भी हो सकता है। पर उसका होना अनिवार्य है। कलाकार का विवेक उसी पर आश्रित है, उसी से उसके मूल्य या प्रतिमान नि:सृत होते हैं। कलाकार या साहित्यकार की शिक्षा अथवा संस्कार के कारण यह जीवन-दर्शन कम या अधिक चेतन हो सकता है।
स्‍टार समाचार सतना में प्रकाशित इस आलेख को आप  इस लिंक पर भी देख सकते हैं http://www.starsamachar.com/EpaperPdf/4102012/4102012-md-hr-6.pdf
लेखक देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार में व्याख्याता हैं।
संपर्क सूत्र- 0941062596

सितंबर 28, 2012

खोखली राजनीति ने किया देश का बंटाधार


सुबह-सुबह गंगा की सैर से लौटते समय एक बूढ़े चाय वाले की दुकान पर रूककर सोचा कि क्‍यों न चाय की चुस्कियों का लुत्‍फ उठाया जाये। लेकिन एक दृश्‍य देखकर अचंभित हो गया, चाय वाला लकड़ी जलाकर चाय बनाने का प्रयास कर रहा था। जो कभी एलपीजी की मौजूदगी में त्‍वरित गति से चाय बनाकर अपने ग्राहकों की सेवा किया करता था। इस व्‍यथा का कारण पूछने पर वह बोल पड़ा बेटा इस खोखली राजनीति ने देश का बंटाधार कर दिया। इससे तो अच्‍छे हम अंग्रेजों के शासनकाल में थे। वो कम से कम पराया होकर हमें लूटते थे। अब तो हमारे अपने ही हमें लूटने पर तूले हैं। सत्‍ता के लिए हर हमारे राजनेता रोज नया ड्रामा लेकर नचाते-कूदते नज़र आते हैं। देश में बंदरबांट मची है। गैस की सब्सिडी हटा दी सिलेंडर कहां से लाएं, अभी से ब्‍लैक में कीमत 1000 के पार चली गई, पहले से ही मुश्किल से गुजरा होता था। इतने में सब्‍जी बेचने वाली एक अम्‍मा जो सब्‍जी बेचकर अपने परिवार का पालन पोषण करती थीं, वहां से गुजरी, जो अपना बोरिया-बिस्‍तरा बांध कर वापस जा रही थीं, अपने गांव। मैं अक्‍सर उनसे ही घर के लिए सब्‍जी खरीदा करता था। कम पढ़ी-लिखी होने के कारण वो एफडीआई के बारे में तो कम जानती थीं, लेकिन किसी ने उनको ये समझा दिया था कि विदेशी दुकानें अब अपना विस्‍तार करेंगी, आप लोगों का अब कोई काम नहीं बचा। इसलिए दुकान बंद करो और अपने घर लौट जाओ।
मैं सोच में डूब गया यह व्‍यथा केवल उस बूढ़े चाय बेचने वाले या बूढ़ी अम्‍मा की नहीं है। भारत का हर उस व्‍यक्ति की है जो किसी तरह अपने लिए दो जून की रोटी की व्‍यवस्‍था कर पाता है। ऐसे में भारत सरकार के इस तरह लिए गए फैसले कितने नीतिगत हैं, आप खुद ही अनुमान लगा सकते हैं। घोटालों ने तो पहले से ही भारत की कमर तोड़ने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। अब तो यह भी शंका उत्‍पन्‍न होने लगी है कि मंहगाई और एफडीआई जैसी चीजें समाने लाकर कहीं जनता का ध्‍यान बडे़-बड़े घोटालों से बटाने की कोशिश तो नहीं की जा रही हैं।
2014 का चुनावी माहौल अभी से अपना रंग दिखा रहा है, सरकार का यह बयान कि कांग्रेसी सरकार वाले राज्‍यों में 9 सिलेंडर सब्सिडी के दयारे में आयेंगे। ये कैसा बचपना है, इसे देखकर तो यही लगता है कि पूरे देश की मां हमारी सरकार बाकी राज्‍यों के साथ सौतेला व्‍यवहार कर रही है। सवाल यह है कि क्‍या जनता केवल कांग्रेसी सरकार वाले राज्‍यों में ही निवास करती है, बाकी राज्‍यों में क्‍या भूत रहते हैं। खैर जाने दीजिए इन बातों को ममता बनर्जी ने समर्थन तो वापस ले ही लिया है, अब सरकार का क्‍या होगा ये वही जाने, लेकिन एक बात तो साफ हो गई, राजनीति झूठों की बस्‍ती है। सरकार कह रही है कि ममता जी को सारे निर्णयों के बारे में बताया गया, लेकिन ममता जी इससे नकार रही हैं। ऐसे में किसको सत्‍यवादी माना जाए। ऐसे में देखने वाली बात यह होगी कि बसपा सुप्रीमो मायावती और सपा सुप्रीमो मुलायम क्‍या रंग दिखाते हैं। दोनों यूपी में तो एक-दूसरे के धुर विरोधी हैं, क्‍या केन्‍द्र में कांग्रेस के साथ इनका मेल खायेगा। अगर ऐसा होता है तो जनता यही समझेगी कि ये सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं। या फिर सरकार गिरेगी और चुनावों के बाद फिर से मंहगाई का चाबुक इस देश उस दो तिहाई जनता पर चलेगा, जो अभी से घोटालों और मंहगाई के वार से पस्‍त हो चुकी है।
मैं इसी सोच में डूबा था कि वह गरीब बूढ़ा बड़ी मुश्किल से गरमागरम चाय लेकर आ गया, मैने चाय का आनंद लिया और अपने घर की ओर आगे बढ़ चला।

सितंबर 17, 2012

सोशल मीडिया पर अंकुश क्यों?


परिदृश्य
आदित्य शुक्ला
जिस तरह से देश में इंटरनेट का प्रसार बढ़ रहा है, सोशल मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाना ही होगा।

हमारे देश की एकता और अखंडता को कभी जातिवाद व सांप्रदायिकता के नाम पर, तो कभी आर्थिक विषमता के नाम पर चुनौती दी जाती रही है। राष्ट्र-विरोधी तत्वों द्वारा क्षेत्रीय अस्मिताओं के नाम पर भी लोगों को भड़काने की कोशिशें लगातार होती रही हैं। लेकिन यह हमारे देश की सांस्कृतिक विशिष्टता ही है कि बहुलतावादी होने के बावजूद एकता का सूत्र कभी कमजोर नहीं हो पाता है। असम में हाल ही में भड़की हिंसा के दौरान सोशल मीडिया पर अफवाहों का ऐसा दौर चला कि देश के विभिन्न हिस्सों से पूर्वोत्तर के लोग अपनी रोजी-रोटी छोड़कर पलायन करने लगे। नतीजतन सोशल मीडिया को नियंत्रित करने की कोशिशें तेज हो गईं। लेकिन इससे देश भर में राष्ट्रीय सुरक्षा और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर एक नई बहस शुरू हो गई है।

असम की हिंसक घटनाओं को रोक पाने में विफल रहने के चलते जहां एक ओर सरकार की छीछालेदर हो रही है, वहीं सोशल मीडिया की छवि भी खराब हुई है। लेकिन इस पर अंकुश लगाने की कोशिशों से लोगों के बीच यह संदेश गया कि अपनी विफलता छिपाने के लिए सरकार सोशल मीडिया को नियंत्रित करने की बात कर रही है। असल में जिस समय अन्ना हजारे का आंदोलन अपने चरम पर था, उस समय सोशल मीडिया ने सरकार के खिलाफ एक मोरचा ही खोल दिया था। तभी से सरकार लगातार यह कोशिश करती रही है कि सोशल मीडिया पर किसी भी तरह से प्रतिबंध लगाया जाए। यह सच है कि राष्‍ट्र की सुरक्षा की सुरक्षा सर्वोपरि है, परंतु इसकी आड़ में सरकार के भ्रष्‍ट तंत्र के खिलाफ मोरचा खोलने वाले सोशल मीडिया के नियमन को मंजूर नहीं किया जा सकता है।
हम सभी जानते हैं कि सोशल मीडिया महज अफवाह फैलाने का तंत्र नहीं है, बल्कि इसमें सृजनात्‍मकता का मंत्र भी समाहित है। यहां न तो प्रिंट और इलेक्‍ट्रॉनिक मीडिया जैसा संपादकीय नियंत्रण है और न ही कंटेंट पर कैंची चलने का खतरा। यह एक ऐसा माध्‍यम है, जिसने उस जनता को आवाज दी है, जो किसी न किसी कारण से अब तक चुप रहकर सरकारी तंत्र के तमाशे को देखा करती थी। सोशल मीडिया के उपभोक्ताओं में जहां जिम्मेदार पत्रकार, रचनाकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता शामिल हैं, वहीं साइबर अपराधी, जासूस, आतंकवादी, कट्टरपंथी भी। यही वजह है कि आज सरकार को इसके नियमन का बहाना मिल गया है। इससे कोई इनकार नहीं कि इस मीडिया का कुछ राष्ट्रविरोधी तत्व लगातार दुरुपयोग कर रहे हैं और देश के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने की कोशिश कर रहे हैं। परंतु सोशल मीडिया के संदर्भ में अभिव्यक्ति की आज़ादीके मुद्दे को थोड़ा अलग ढंग से देखे जाने की जरूरत है। सोशल मीडिया उस आईने की तरह है, जो सरकारी तंत्र के बुरे पक्षों को भी उजागर करता है। इसलिए लोग इसके नियमन से सहमत नहीं दिखते। परंतु इतना तो स्‍पष्‍ट है कि मौजूदा स्थिति में संतुलन बिठाने और राष्‍ट्र की सुरक्षा को ध्‍यान में रखते हुए कुछ ठोस कदम उठाए जाने की जरूरत है। जनसंख्‍या के लिहाज से हमारे देश के मात्र 10 प्रतिशत लोग ही इंटरनेट का इस्‍तेमाल करते हैं। इंटरनेट के प्रसार के लिए भारत सबसे बड़ा बाजार है। स्‍पष्‍ट है कि जैसे-जैसे इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्‍या में इजाफा होगा, साइबर अपराध भी तेजी से बढ़ेगा। ऐसे मेंे साइबर अपराध को रोकने के लिए सरकार को ठोस कदम उठाना ही होगा, लेकिन सोशल मीडिया पर प्रतिबंध लगाने को उचित नहीं माना जा सकता। पूर्वोत्तर की घटनाएं एक चेतावनी है। इसके अलावा सोशल मीडिया का उपयोग करने वालों को भी स्व-नियमन का तरीका अपनाना होगा। राष्ट्र की सुरक्षा के मद्देनजर सोशल मीडिया के उपभोक्ता अगर स्व-नियमन का तरीका अपनाएं, तो मुट्ठी भर साइबर अपराधियों पर नकेल कसना कोई बड़ी बात नहीं है।
काम्‍पेक्‍ट अमर उजाला में 17 सितम्‍बर को प्रकाशित आलेख : http://compepaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20120917a_012108003&ileft=294&itop=58&zoomRatio=156&AN=20120917a_012108003

अगस्त 17, 2012

देश के बचपन पर तस्करों की नजर

 मासूस बचपन पर, जिस पर राष्‍ट्र का भविष्‍य निर्भर करता हो, अपहरणकर्ताओं और तस्‍करों की नजर लग जाए, तो मानना चाहिए कि राष्‍ट्र की सुरक्षा खतरे में है। अपना देश वर्तमान में इसी खतरे से दो-चार हो रहा है। यहां के बचपन को सुरक्षा की दरकार है। सरकार भले ही लाख दावा करे कि वह बच्‍चों की सुरक्षा के लिए भरसक प्रयास कर रही है, लेकिन नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्‍यूरो (एनसीआरबी) के आकड़ें इन दावों की पोल खोल रहे हैं। एनसीआरबी के मुताबिक, बीते तीन वर्षों में 1.84 लाख बच्‍चे लापता हो गए। इनमें से 28,595 बच्‍चे अपहरणकर्ताओं का शिकार बने। एनसीआरबी की रिपोर्ट यह भी कहती है कि देश में लगभग 96 हजार बच्‍चे हर साल लापता हो रहे हैं, यानी हर घंटे, लगभग 11 बच्‍चे। इन बच्‍चों में 70 फीसदी की उम्र होती है, 12 से 18 साल। आखिर इतने बच्‍चे जाते कहां हैं? जवाब मुश्किल नहीं। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की ‘ट्रैफिकिंग इन वूमेन ऐंड चिल्ड्रन इन इंडिया’ नामक रिपोर्ट को मानें, तो बच्चों की तस्करी को रोकने के प्रयास नाकाफी हैं और इनमें मौजूद खामियों का फायदा उठाकर तस्‍कर बच्‍चों को उठाने में कामयाब हो जाते हैं।
दुखद है कि सरकार इन मासूमों की सुध नहीं लेती। असल में ये बच्‍चे सरकार के राजनीतिक दबाव समूह से नहीं आते। इस वजह से केंद्र और राज्‍य सरकारें उन पर गौर करना ही नहीं चाहती। इन बच्‍चों की तस्‍करी उन राज्‍यों में अधिकाधिक होती है, जहां गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और सरकारी तंत्र की भ्रष्‍टता चरम पर है। इनमें राजस्‍थान, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, मध्‍य प्रदेश, हरियाणा एवं असम जैसे पूर्वोत्तर के राज्‍य भी शामिल हैं। दुखद है कि इन बच्चों के गायब होने के एफआईआर तक नहीं लिखी जाती। इनमें से ज्‍यादातर बच्‍चे उन गरीब परिवारों से ताल्‍लुक रखते हैं, जिनके मां-बाप को दो जून की रोटी जुटाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। इनमें दिल्‍ली टॉप पर है, जो बच्‍चों के खिलाफ हुए क्राइम के मामले में सर्वाधिक हिस्‍सेदारी रखता है। इन बच्‍चों में ज्‍यादातर को वेश्यालयों, कारखानों या धनी परिवारों में बेच दिया जाता है। इसके अलावा होटलों, ईंट भट्ठों में भी बिना दिहाड़ी के ये बच्चे रात-दिन काम करने के लिए मजबूर किए जाते हैं। दुर्भाग्य से अभी तक सरकार ने बच्‍चों के अपहरण और तस्‍करी रोकने के लिए जो भी कानून बनाए हैं, वह मजबूत नहीं दिखता। इसके अलावा जो संस्‍थाएं बाल हितों को लेकर काम कर रही हैं, वे भी इन कुकृत्‍यों को लेकर कभी विशेष चिंतित नहीं रहती हैं। दूसरी बात समाज के जिस वर्ग के बच्‍चों पर यह संकट सर्वाधिक है, हमारा समाज भी उसके प्रति संवेदना नहीं रखता। इसलिए गरीबों के बच्‍चों के लिए न तो संसद में हंगामा होता है और न ही पुलिस उन्‍हें ढूंढने में दिलचस्‍पी दिखाती है।
बीते कुछ वर्षों पर गौर करें, तो बाल तस्‍करी, बाल अपहरण और बाल अपराध ने एक उद्योग का रूप ले लिया है। विदेशों में बच्‍चों को मनोरंजन के साधन के रूप में इस्‍तेमाल किया जाने लगा है। अरब देशों से आने वाली खबरें इसका प्रमाण हैं कि वहां शेखों के मनोरंजन में भारतीय बच्‍चों का इस्‍तेमाल किया जाता है। इन अमानवीय क्रूरताओं के खिलाफ न तो केंद्र सरकारें आवाज उठाती हैं, और न ही मानवाधिकार से जुड़े लोग।
तथ्य यह है कि पूरी दुनिया में बाल अधिकारों से जुड़ी कई संस्‍थाएं काम कर रही हैं। उन्हें सशक्‍त बनाने के लिए लाखों योजनाएं चल रही हैं और अरबों-खरबों रुपये भी खर्च किए जा रहे हैं। लेकिन जब बात बच्‍चों से जुड़े अपराधों से लोहा लेने की आती है, तो आखिर समाज का हर वर्ग चुप्‍पी क्‍यो साध लेता है? क्‍या जो बच्‍चे इन अपराधों का शिकार बने, वे समाज का अंग नहीं हैं? इन प्रश्‍नों का हल सभी को खोजना होगा। हर किसी को जीने का हक है। उन मासूमों को भी जिन्‍हें हर रोज धकेला जा रहा है अमानवीयता के उस दलदल में, जहां की जिंदगी नरक से भी बदतर है। इसलिए चुप्‍पी तोड़ उन मासूमों को बचाने का प्रयास करें, जिनकी पनियाती आंखें सुरक्षा की बाट जोह रही हैं।
अमर उजाला कांम्‍पेक्‍ट में प्रकाशित आलेख : http://compepaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20120817a_01210a003&ileft=294&itop=67&zoomRatio=158&AN=20120817a_01210a003

जुलाई 16, 2012

इक्कीसवीं सदी का यह चेहरा


पिछले कुछ ही दिनों में हुई विभिन्न घटनाओं से एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आखिर इस देश में महिलाएं कहां सुरक्षित हैं!
शायद ही किसी ने विकसित होते भारतीय समाज के इस भयावह तसवीर की कल्‍पना की होगी। कुछ ही दिनों के भीतर हुई घटनाओं, असम में एक लड़की के साथ अमानवीयता, लखनऊ के थाने में एक महिला के साथ बलात्कार की कोशिश, बागपत में खाप पंचायत का चिंतित करने वाला फरमान, विश्‍व भारती में पांचवीं कक्षा की छात्रा को पेशाब पिलाने की सजा, पश्चिम बंगाल में क्‍लास में एक बच्ची को नंगा किए जाने जैसी घटनाओं से लगता है कि देश कई सदी पीछे की ओर छलांग लगा चुका है। आधी आबादी की यह दुर्गति शर्मनाक ही नहीं, समाज के चेहरे पर काला धब्बा भी है। इन घटनाओं ने समाज, सत्ता-व्यवस्था, पुलिस-प्रशासन और मीडिया सबको बेनकाब कर दिया है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि आज भी कुछ लोग महिलाओं के खिलाफ हुई इन घटनाओं पर चुप्पी साधे हुए हैं।
गुवाहाटी की घटना ने पूरे देश को शर्मसार किया है। अकेली लड़की के साथ आधे घंटे तक अमानवीय व्यवहार करने वाले लड़के तो दोषी हैं ही, घटना को मूक दर्शक बनकर देखते रहने वाले लोग भी कम गुनहगार नहीं हैं। मीडिया द्वारा उस वीडियो क्लिंपिंग का बार-बार प्रसारण भी कम शर्मनाक नहीं है। अगर वहां मीडियाकर्मी मौजूद थे, तो उन्हें लड़की को बचाने की कोशिश करनी चाहिए थी। क्या मीडिया का सरोकार आज केवल किसी सनसनीखेज घटना का प्रसारण कर टीआरपी बटोरना ही रह गया है? दरअसल यह हमारे समाज के पतन का सुबूत है। हमारे समाज में आज भी पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता हावी है, जिसके लिए महिलाओं के सम्मान का कोई मूल्य नहीं है।
उत्तर प्रदेश में युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सरकार बनने से लोगों में उम्मीद बंधी थी कि अब प्रदेश की शासन-व्यवस्था में सुधार आएगा, लेकिन लोगों की यह उम्मीद धूमिल होती नजर आ रही है। बागपत में महिलाओं के खिलाफ खाप पंचायत का अलोकतांत्रिक फरमान और लखनऊ में थाने में ही एक महिला की इज्जत पर धावा साफ दर्शाता है कि मौजूदा प्रदेश सरकार कानून व्यवस्था को सुधारने में विफल साबित हो रही है। लेकिन केवल सरकार को ही दोष क्यों दें, सहारनपुर के सरसांवा में तो एक लड़की की इज्जत घर में भी महफूज नहीं रही। एक बार फिर यह सवाल उठता है कि आखिर हमारे देश में एक महिला कहां सुरक्षित है। न घर, न बाहर, न स्कूल में और न ही सरकारी थाने में। क्या विद्रूप है कि जिन शिक्षकों को बच्चों के भविष्य का निर्माता बनना था, उन्होंने ही बच्चियों के भविष्य को तार-तार कर उन्हें ऐसा गहरा जख्म दिया, जिनसे उबर पाना उनके लिए मुश्किल होगा। समाज का दानवी चेहरा दिखाने वाली ये घटनाएं बताती है कि हमारा देश वाकई कायरों और कूपमंडूकों का देश बन गया है।
क्राइम रिकॉर्ड ब्‍यूरो के आंकड़ों की मानें, तो बीते वर्ष 2011 में महिलाओं के प्रति हुए कुल 2,28,650 अपराध दर्ज किए गए। जिसमें अपहरण के 35,565, छेडछाड़ के 42,968, यौन उत्‍पीड़न के 8,570, सगे-संबंधियों द्वारा अमानवीय व्‍यवहार के 99,135 एवं लड़कियों की खरीद-फरोख्‍त के 80 मामले शामिल हैं। 1971 से 2011 तक बलात्‍कार के मामलों में 873.3 फीसदी (1971 में 2,487, जबकि 2011 में 24,206 मामले) की वृद्धि दर्ज की गई। ये सरकारी आंकड़े हैं, वास्तविक स्थिति इससे कहीं भयानक है। आर्थिक महाशक्ति बनने की आकांक्षा रखने वाले देश में महिलाओं के खिलाफ बेकाबू होता अपराध किसी भी लिहाज से ठीक नहीं है।
जिस देश की बेटियां आज दुनिया भर में नाम रोशन कर रही हैं, वहां ऐसी विकृतियां शोभा नहीं देतीं। अगर हमें अपनी बहन-बेटियों के सम्मान की रक्षा करनी है, तो उसके सम्मान को चोट पहुंचाने वालों के खिलाफ कठोर कदम उठाने ही होंगे। इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी और महिलाओं का सम्मान करना सीखना होगा। क्या हम तैयार हैं! 
काम्‍पेक्‍ट अमर उजाला में प्रकाशित आलेख, लिंक देखें-


जुलाई 08, 2012

जून 15, 2012

तालाबों की कब्र पर खड़ी होती इमारतें


पनघट और पनिहारिनों का बहुत पुराना रिश्ता है, लेकिन बदलते दौर में यह रिश्‍ता खत्‍म हो गया है। अब न तो पनिहारिनों के गीतों की धुनें सुनाई देती हैं और न ही कहीं तालाब दिखते हैं। अब तो पानी के लिए लोगों को मीलों भटकना पड़ता है। कभी जिन तालाबों का सरोकार आमजन से हुआ करता था, उन तालाबों की कब्र पर अब हमारे भविष्‍य की इमारतें तैयार की जा रही हैं। ये तालाब हमारी प्‍यास बुझाने के साथ-साथ खेत-खलिहानों की सिंचाई के माध्यम हुआ करते थे। एक आंकड़े के अनुसार, मुल्‍क में आजादी के समय लगभग 24 लाख तालाब थे। बरसात का पानी इन तालाबों में इकट्ठा हो जाता था, जो भूजल स्तर को बनाए रखने के लिए बहुत जरूरी होता था। तुलसीदास कृत रामचरित मानस में भी जिक्र आता है, सिमट-सिमट जल भरहिं तलावा, जिम सद्गुण सज्‍जन पहिं आवा। इन तालाबों की वजह से किसानों को सिंचाई के लिए मानसून पर निर्भर नहीं रहना पड़ता था और वह समय पर खेतों की सिंचाई कर लिया करता था। तालाबों के बारे में पर्यावरणविद अनुपम मिश्र अपनी पुस्‍तक आज भी खरे हैं तालाब में कहते हैं, ये सैकड़ों, हजारों तालाब अचानक शून्‍य से प्रकट नहीं हुए थे। इनके पीछे एक इकाई थी बनवाने वालों, तो दहाई थी बनाने वालों की, यह इकाई, दहाई मिलकर, सैकड़ा, हजार बनता था। पिछले दो सौ वर्षों में नए किस्‍म की थोड़ी-सी पढ़ाई पढ़ गए समाज ने इस इकाई, दहाई, सैकड़ा, हजार को शून्‍य बना दिया।
लंबे अंतराल बाद पिछले दिनों अपने गांव जाने का अवसर मिला। चार दिनों की इस यात्रा में सब कुछ सुखद रहा है, लेकिन एक बात ने दिल को बुरी तरह झकझोर दिया। ग्रामीण इलाकों में तालाबों को पाटने का सिलसिला देखकर यह सोचने पर मजबूर हो गया कि आखिर हम किस तरह के विकास पथ पर आगे बढ़ रहे हैं। उत्तर प्रदेश के पीलीभीत, लखीमपुर और बरेली जिलों में आजादी के समय लगभग 182 तालाब हुआ करते थे। उनमें से अब महज 20 से 30 तालाब ही बचे हैं। जो बचे हैं, उनमें पानी की मात्रा न के बराबर है। राष्ट्रीय राजधानी दिल्‍ली में अंगरेजों के जमाने में लगभग 500 तालाबों के होने का जिक्र मिलता है, लेकिन कथित विकास ने इन तालाबों को लगभग समाप्‍त ही कर दिया।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने नए तालाबों का निर्माण तो नहीं ही किया, पुराने तालाबों को भी पाटकर उन पर इमारतें खड़ी कर दीं। भू-मफियाओं ने तालाबों को पाटकर बनाई गई इमारतों का अरबों-खरबों रुपये में सौदा किया और खूब मुनाफा कमाया। इस मुनाफे में उनके साझेदार बने राजनेता और प्रशासनिक अधिकारी। माफिया-प्रशासनिक अधिकारियों और राजनेताओं की इस जुगलबंदी ने देश को तालाब विहीन बनाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। नतीजतन देश भर में तालाबों की संख्‍या 80 हजार के आसपास ही रह गई। यह तो सरकारी आंकड़ों की जुबानी है, इसमें कितनी सचाई है, यह किसी को नहीं पता। सरकार ने मनरेगा के तहत फिर से तालाब बनाने की योजना का सूत्रपात किया है। अरबों रुपये खर्च हो गए, लेकिन वास्तविक धरातल पर न तो तालाब बने और न ही पुराने तालाबों का संरक्षण ही होता दिखा।
गुजरते वक्‍त के साथ तालाबों को दम तोड़ते देखा जा सकता है। सवाल उठता है कि आखिर यह कैसा विकास है, जो हमारे पर्यावरण के साथ खुलेआम खिलवाड़ कर रहा है और भावी पीढ़ी के जीवन के लिए संकट पैदा कर रहा है। जहां तालाब होते हैं, वहां का भूजल स्तर बेहतर होता है और फसलों को भी पर्याप्त पानी मिलता रहता है। लेकिन अब न तो वह दौर है, न ही तालाब बनवाने वाले वे लोग। बेशक अब वह दौर नहीं लौट सकता, पर तालाबों के संरक्षण और निर्माण को फिर शुरू तो कर सकते हैं। 
इस लेख को आप 15 जून के कांपेक्‍ट अमर उजाला में भी पढ़ सकते हैं। नीचे दी गई लिंक पर क्लिक करें।

मई 14, 2012

'मदर्स डे' के दौर में मां की सेहत

मदर्स डे के अवसर पर मां की सेहत पर विमर्श करता कांम्‍पेक्‍ट अमर उजाला में छपा लेख पढ़ें। http://compepaper.amarujala.com/pdf/2012/05/14/20120514a_012108.pdf

अप्रैल 30, 2012

सपा बनाम बसपा के फेर में यूपी की राजनीति


देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश, देश की सत्ता में अपनी हैसियत और भागीदारी के लिए एक अलग पहचान रखता है। देश के प्रधानमंत्री के बाद उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री की हैसियत सबसे अधिक दिखाई देती है। इसी हैसियत के कारण यह प्रदेश कई कद्दावर नेताओं की कर्मभूमि के साथ कई तरह के विवादों का केन्द्र बिंदू भी रहा। जिसमें से रामजन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद विवाद के हम सब गवाह रहे हैं। वर्तमान में इस प्रदेश में एक नए तरह के विवाद को तूल दिया जा रहा है, वह है सपा बनाम बसपा विवाद। विगत वर्षों में यदि उत्तर प्रदेश की राजनीति का यदि सूक्ष्म विश्लेषण किया जाए तो हम पाएंगे कि यहां की राजनीति भावुकता की राजनीति हो गई है। इसलिए इस तरह के विवाद प्रदेश के लिए कितनी घातक सिद्ध हो सकते है वह यहां के एक लाख से अधिक गांवों में निवास करने वाली जनता इस मर्म को अच्छी तरह से समझती है।
2007-2012 तक प्रदेश में बसपा सरकार में की मुख्यमंत्री रहीं सुश्री मायावती ने सपा को नीचा दिखने तथा दलित महापुरूषों के नाम को ऊंचा दिखाने के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी और प्रदेश की जनता का अरबों रूपया पार्कों और स्मृति स्थलों के नाम पर लुटा दिया। इसके साथ ही बसपा सरकार ने लोहिया जैसे समाजवादी चिंतको नाम पर चलाई जा रही योजनाओं कुछ योजनाओं को भी किनारे कर दिया। 2012 में सपा को पुनः जनाधार मिला है, तो नई समाजवादी सरकार ने बसपा सरकार से द्वारा दलित महापुरूषों के नाम पर शुरू की गई सामाजिक क्षेत्र में बदलाव के अलावा स्मारकों और पार्कों में होने वाले खर्च में कटौती के साथ-साथ इनके मूलभूत ढांचें में परिवर्तन का मन बना लिया है। जिससे एक नए तरह के विवाद की आंधी प्रदेश में चल पड़ी है।
इसी कारण बाबा साहब आंबेडकर की इसी जंयती पर पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने लखनऊ में सामाजिक प्रेरणा स्थल पर चेतावनी दी कि अगर पार्कों और मूर्तियों से छेड़छाड़ की जाएगी तो कानून और व्यवस्था के समाने संकट खड़ा हो जाएगा और उसका खमियाजा पूरा प्रदेश भुगतेगा। प्रदेश को मौजूदा मुख्यमंत्री को यह बात हल्के में नहीं लेनी चाहिए क्योंकि इस परिप्रेक्ष्य में नब्बे के दशक में घटी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि को अपवित्र करने की घटना को देख सकते हैं। हालांकि प्रदेश में बसपा की राजनीति इस तरह की नहीं रही है, उसने सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का नारा बुलंद किया, लेकिन बीते वर्षों में बसपा सरकार ने बाबा साहब, कांशीराम के साथ मायावती की मूर्तिंयां लगवाकर प्रदेश को एक प्रतीकवाद की राजनीति के चैराहे पर लाकर खड़ा कर दिया। हद तो तब हो गई जब इन स्मारकों और मूर्तिंयों को लगवाने के लिए संसाधन जुटाने के लिए लोकतांत्रिक मर्यादा और कानून को ताक पर रख दिया। इस सारे खेल में पैसा का गमन तो हुआ ही साथ ही एक नए तरह की राजनीति का जन्म हुआ जिसमें भावुकता ज्यादा और विकास की बात कम होती दिखाई दी। अब यदि इन पार्कों को कोई हस्तक्षेप करेगा तो बसपा सरकार के रहनुमाओं को दर्द तो होगा ही।
यह बात तो साफ है कि वर्तमान में न तो सपा के तेवर ठीक दिख रहे हैं और न ही बसपा के, लेकिन नए मुख्यमंत्री को इस तरह के विवाद का हल खोजना होगा। विवाद की राजनीति के तवे पर रोटी सेंकने वाले लोगों की दलीलों से दूर रहकर लोहियावादी दृष्टिकोण अपना होगा। अन्यथा प्रदेश फिर से मंदिर-मस्जिद विवाद की तरह, सपा बनाम बसपा के विवाद की आग में जल उठेगा।

अप्रैल 20, 2012

अपने उद्देश्यों से भटकता एपीआई


उच्च शिक्षा में सुधार और शोध की स्तरीयता के लिए बनाया गया एपीआई अपने उद्देश्यों से ही भटक गया है, जो इस मर्ज को बढ़ा ही रहा है।
माइक्रोसाफ्ट ऑफिस वर्ल्‍ड में कट-कॉपी-पेस्‍ट का विकल्प बनाने वाले ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि यह नुसखा शिक्षा के क्षेत्र में एक नई इबारत लिखेगा। न केवल शोधपत्रों में इसका बहुतायत से उपयोग होगा, बल्कि शिक्षा क्षेत्र के धुरंधर भी धड़ल्ले से इसका उपयोग करते दिखाई देंगे।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने विश्‍वविद्यालयों में प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और असिस्‍टेंट प्रोफेसरों की शैक्षणिक और व्‍यावहारिक समझ को परखने के लिए एक इंडेक्‍स का निर्माण किया है, जिसे एकेडमिक परफॉर्मेंस इंडेक्‍स (एपीआई) कहते हैं। इसमें प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और असिस्‍टेंट प्रोफेसरों द्वारा की जाने वाली विभिन्‍न गतिविधियों के लिए अंक निर्धारित हैं। इसके मुताबिक जिसे ज्‍यादा अंक मिलेगा, वह उतना बड़ा महारथी होगा। यूजीसी ने एपीआई का निर्माण इसलिए किया था, ताकि हमारे देश के विश्वविद्यालयों में शोध का स्‍तर सुधरे। प्रोफेसर कहलाने वाले अध्यापक खुद को विशेषज्ञ बनाएं और क्लास के स्तर पर ही नहीं, बाहरी स्तर पर भी खुद को दक्ष बनाएं।
पर वस्तुतः हो इसका उलटा रहा है। शैक्षणिक धुरंधरों के बीच नंबर बढ़ाने की एक होड़-सी लग गई है, हर कोई लेखक बन रहा है, हर कोई शोधकर्ता बन रहा है। रेफरीड, आईएसबीएन और आईएसएसएन नंबर वाले जर्नल्स की फौज कुकुरमुत्तों की तरह पनप रही है। इनमें शोधपत्र प्रकाशित करवाने के लिए बोली लगने लगी है, जो जितना ज्‍यादा पैसा देगा, उसका शोधपत्र छपेगा, चाहे वह निम्न स्‍तर का ही क्‍यों न हो।
विश्‍वविद्यालयों में एसोसिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर बनने का मानदंड भी एपीआई अंक हो गया। यहां तक कि तरक्‍की के लिए भी इसे ही आधार बनाया जाने लगा। यही वजह है कि हमारे देश में सामाजिक शोध की स्थिति आशाजनक प्रतीत नहीं होती। गुणवत्तापरक शोध के लिहाज से एपीआई जैसी प्रक्रिया महज एक दुर्भाग्‍य जैसी नजर आ रही है।
इसका एक और दुष्‍परिणाम यह हुआ कि देश में राष्‍ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों की बाढ़-सी आ गई। इसके चलते पिछले चार महीनों में चार राज्यों - दिल्‍ली, उत्तराखंड, मध्‍य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में सामाजिक शोध से जुड़े पांच अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में मुझे भी भागीदारी का मौका मिला। इन संगोष्ठियों में एक हजार से अधिक शोधपत्र पढ़े गए। इनमें हिस्सा लेने वालों शोधकर्ताओं और शोध पत्रों की संख्‍या देखकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है। शोधकर्ताओं और शोधपत्रों की इतनी बड़ी संख्या के बारे में जिज्ञासा जताने पर एक साथी शोधकर्ता ने बताया कि यह एपीआई का जमाना है, जिसमें हर किसी को ज्‍यादा नंबर लाना है। हद तो तब हो गई, जब एक संगोष्‍ठी में एक प्रोफेसर साहब ने 11 शोध पत्रों में अपना नाम जोड़ दिया और वह खुद कई एकेडमिक सत्रों के अध्‍यक्ष भी रहे। इन संगोष्ठियों में पढ़े गए शोधपत्रों का स्‍तर देखने पर लगा कि हमारे देश में शोध अब तेजी से पतन की ओर अग्रसर है। संगोष्ठियां सर्टिफिकेट बांटने की दुकानों की तरह सजने लगी हैं। शोधकर्ता अब अध्ययन और अनुसंधान के सहारे नहीं, बल्कि कट-कॉपी-पेस्‍ट तकनीक का उपयोग कर खुद को प्रतिभाशाली दिखाने कोशिश करने लगे हैं। स्थिति यह है कि उच्‍च शिक्षा में सुधार की दृष्टि से बनाया गया एपीआई अपने मूल उद्देश्‍यों से भटक गई है। पहले से ही बदहाल उच्च शिक्षा और शोध की स्थिति सुधारने में एपीआई मर्ज की दवा बनने के बजाय इसे और भी गहरा रही है। ऐसे में जरूरी है कि यूजीसी इसका शीघ्र ही तोड़ खोजने की कोशिश करे, अन्यथा ज्यादातर भारतीय शोधकर्ता कट-कॉपी-पेस्‍ट का पुरोधा बन बैठेगा। फिर तो शैक्षणिक जगत में स्थिति और भी भयावह एवं अराजक बन जाएगी।
19 अप्रैल को अमर उजाला कांम्‍पेक्‍ट में छपे इस लेख को  आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं  http://compepaper.amarujala.com/pdf/2012/04/19/20120419a_012108.pdf

मार्च 19, 2012

नई सरकार पर चुनौतियां पुरानी

16 मार्च 2012 को कांम्‍पेक्‍ट अमर उजाला में प्रकाशित आलेख। अखिलेश सरकार की चुनौतियों पर विमर्श का करता सामयिक आलेख।

फ़रवरी 15, 2012

जैसो बंधन प्रेम कौ, तैसो बंध न और


प्रेम का अर्थ है किसी अस्तित्व को इस कदर टूटकर चाहना कि उसके अस्तित्व में ही अपनी हर ख्वाहिश का रंग घुलता हुआ महसूस हो। यही प्रेम है जो रामकृष्ण ने मां शारदामणि से किया, यही वह प्रेम है जिसने राधा-कृष्ण को विवाह बंधन में न बंधने के बाद पूज्य बना दिया। प्रेम परमेश्वर का रूप है, एक समर्पण है, यहां आकर्षण का लेशमात्र भी नहीं। जीवन में प्रेम आते ही आत्मीयता, सहकारिता और सेवा की उमंगें खुद-ब-खुद हिलोंरे मारने लगती है। जैसे-जैसे प्रेम पवित्र होता है, वैसे-वैसे प्रेमी अपने प्रियतम (आराध्य) के हृदय में समाता चला जाता है, तभी तो मीरा, सूर, कबीर जैसे प्रेमियों का जन्म होता है। सच्ची श्रद्धा की परिणति है प्रेम और यह पवित्रता से पूर्ण होता है।
प्रेम की खुशबू से वातावरण महक रहा है। प्रकृति का कण-कण प्रेमासिक्त हो अपने देवता के चरणवंदन कर रहा है। इसी बीच वेलेंटाइन डेका आना मानो ऐसा लगता है कि यह सब सदियों से निर्धारित रहा होगा। लेकिन वेलेंटाइन डेका इतिहास तो ज्यादा पुराना नहीं है! हां परंतु इस दिन के साथ जुड़ा शब्द प्रेमसृष्टि की उत्‍पत्‍ति के साथ ही उत्पन्न हुआ और इसके खात्मे पर ही अलविदा होगा। यही वह शब्द है जिसके सहारे प्रेमी, परमात्मा को प्रकृति के कण-कण में महसूस करने लगता है। उसे कुछ भी पराया नहीं लगता, वह बन जाता है सम्पूर्ण विश्व का मित्र। सबका दुःख दर्द उसे अपना लगने लगता है।
परंतु बदलते वक्त ने जीने के मायने बदल दिए। ऐसे में सोच, संबंध और मूल्यों का बदलना तो जायज़ ही था। अब इस बदलते दौर में प्रेम भी कैसे अछूता रहता। बदल गया मन की वीणा का राग। कहानी, कविताओं, उपन्यासों और पुरानी फिल्मों में देखा गया प्रेम गुजरे जमाने की बात हो गया। प्रेम अब भावना नहीं रहा। वैश्वीकरण की संस्कृति ने प्रेमको हृदय से निकालकर चैाराहे पर ला पटका और प्रेम गमले में उगने वाले उस पौधे सा गया, जिसे गिफ्टस, डेटिंग, कामना और वासना के पानी से प्रतिपल सींचना पड़ता है। नहीं तो वह मुरझा जाएगा। खो गई प्रेम की गहराई और इसकी गरिमा। प्रेम की पवित्रता का लोप हो गया और यह बन गया सिर्फ एक वेलेंटाइन डेको सफल बनाने का जरिया। वर्तमान की तेज दौड़ने वाली जि़दगी में प्रेम की दुकानें सजने लगी। जहां प्रेमोपहारों के नाम पर लोगों को ठगा जाने लगा। धीरे-धीरे प्रेम मशीनी हो चला। जिन मानवीय संबंधों की दुहाई देते हम थकते से नहीं थे। उन एहसासों के स्तर पर हमने सोचना बंद कर दिया। प्रेम में सर्वस्व अर्पण करने की परंपरा विलुप्त होने लगी और प्रेम लड़ने लगा अपना अस्तित्व बचाने के लिए। प्रेम आकर्षण से आकर देह पर टिक गया है और सामने आया प्रेम का विकृत रूप। प्रेम फैशन बन गया। इसी कारण वेलेंटाइन डेके दिन हजारों ऐसी खबरें सुर्खियां बनती हैं जो हमें सोचने को मजबूर करती हैं कि हम किस दलदल में फंसते चले जा रहे। बाजारीकरण के युग में प्रेम भी बाजारू हो चला है। प्रेम के लिए ऐसा कहना शर्मनाक है लेकिन यर्थाथता यही है। एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग अपने प्रेमी को एक पत्र में लिखती हैं- अगर मुझे तुम प्यार करना चाहते हो तो सिर्फ प्यार करो, किसी और चीज के लिए नहीं। यह मत कहो कि...मैं उसकी मुस्कराहट को प्यार करता हूं...उसके रूप को...उसके बोलने के नर्म अंदाज को, क्योंकि ये विचार किसी खास दिन मेरे विचारों के साथ बड़ी खूबी से समन्वित हो उस दिन को खूबसूरत बना सकते हैं-लेकिन मेरी जान ये सब चीजें बदल भी सकती हैं और प्रेम को नष्ट भी कर सकती हैं या नहीं भी। ब्राउनिंग का यह कहना सर्वथा उचित है क्योंकि दैहिक प्रेम को कब तक जिया जा सकता है। ऐसा प्रेम देह की सुंदरता समाप्त होते ही समाप्त हो जाएगा। काश! ये बदले जमाने का प्रेम धरती पर उगने वाला वटवृक्ष बन, पाताल तक अपनी जडे़ं पहुंचा पाता और जन्म-जन्मांतरों तक अटल-निश्चल इस धरा की शोभा बढ़ता।
आज के इस भौतिकतावादी युग में संवेदना और विश्वास की परिपाटी का लोप हो रहा है और प्रेम का भरे बाजार वासना और कामना के हाथों चीरहरण हो रहा है, ऐसे में जरूरत है बदलाव की। जो प्रेम को बाजारी चमक-दमक में खोने से बचा ले। हम प्रेम में निहित संवेदना, गरिमा और इसकी आंतरिक गहराई को पहचानें। जिस दिन हम सब प्रेम का असली मर्म समझ लेंगे, उसी दिन से मनुष्य अपनी संकीर्णताओं से निकलकर बिना शर्त के प्रेम करेगा। तभी धरती भी प्रेम के रस में डूबकर नृत्य कर उठेगी और बंजर होती प्रेम की खेती हो हम बचा सकेंगे। ऐसे में सार्थक होंगी कविवृंद की ये पक्तियां-जैसो बंधन प्रेम कौ, तैसो बंध न और।
अमर उजाला काम्‍पेक्‍ट में 14 फरवरी को पृष्‍ठ 12 संपादकीय में प्रकाशित हुआ है। http://compepaper.amarujala.com/svww_index.php

फ़रवरी 12, 2012

राजनीति की ‘डर्टी पिक्चर’


किसी देश की राजनीति ही उस देश का भविष्य तय करती है। जिसकी दिशा-धारा तय होती है, संसद, विधानसभा और विधान परिषदों में। इसीलिए इन्हें राजनीति का मंदिर माना जाता है। देश के कर्णधारों का भविष्य भी इन्हीं मंदिरों में तय होता है। लेकिन इन मंदिरों में यदि कोई गंदगी फैलाई जाने लगे तो इन मंदिरों का संरक्षण और इनमें पूजा करने वाली जनता की नाराजगी जायज है। हमारे देश के ये मंदिर पहले से ही नोट कांड, गाली-गलौज, मारपीट और सोने वाले नेताओं के नाम पर बदनाम थे, इसमें एक काला अध्याय और जुड़ा कर्नाटक विधान सभा में हुए मोबाइल पोर्न वीडियो कांड के बाद। लेकिन सत्ता कितनी बेहया हो चुकी है यह कांड तो मात्र इसकी बानगी भर है। इस कांड के बाद राजनीति का जो चेहरा जनता के सामने आया है वो सच में डराने वाला है।
कर्नाटक विधान सभा की कार्यवाही के दौरान वहां की वर्तमान सरकार के दो मंत्री मोबाइल फोन पर अश्लील फिल्म देखते पाए गए। उनकी इस हरकत को आज के सचेत मीडिया ने सार्वजनिक कर दिया। भारत के संसदीय इतिहास में यह पहली ऐसी घटना थी, जो खुद भी इतिहास का एक काला पन्ना बन गई। इनमें से एक थे सहकारिता मंत्री लक्ष्मण सावदी और महिला और बाल विकास मंत्री सीसी पाटिल। अब सोचने वाली बात यह है कि जिन मंत्री महोदय पर महिलाओं के विकास का जिम्मा है अगर वो राजनीति के मंदिर में बैठकर इस तरह की हरकत करें। तो वे महिलाओं और देश का भविष्य बच्चों का किस तरह का विकास करेंगे। बात जब जनता के समाने आ गई तो इन दोनों नेताओं ने इस्तीफा दे दिया। परंतु देश की अस्मिता पर ये राजनेता काला तिलक लगा गए। इससे एक दो-दिन पहले ही कर्नाटक में ही सरकारी रेव पार्टी में खुलेआम सेक्स की बात भी मीडिया की सुर्खियां रही थीं। इस पूरे कांड के बाद हम यही कह सकते हैं कि भारतीय राजनीति आत्महंता प्रवृत्ति की ओर बढ़ रही है। जनता पहले से ही भ्रष्टाचार, मंहगाई और सियासती दांवपेंच से परेशान थी, ऊपर नेताओं की हरकत ने राजनीति की मर्यादा को तार-तार कर दिया। भारत में कई ऐसे जननेता हैं जो दिन भर जनता के हितैषी होने की बात करते हैं और रात होते ही शराब और शबाब के नशे में डूब जाते हैं। हाल ही में हुए ‘भंवरी देवी कांड’ ने राजनीति के विभत्स चेहरे को जनता के सामने लाने का काम किया था। इससे पहले ‘मधुमिता कांड’, कश्मीर सेक्स स्कैंडल, तंदूर कांड कई ऐसे मामले जिनमें भारतीय राजनीति कीचड़ में सनी दिखाई देती है।
कर्नाटक के कंलक का रोना रोने से कुछ सधने वाला नहीं है। वर्तमान में देश का हर राज्य किसी न किसी रूप में इस अत्याचार का शिकार है। कभी हमने सोचा है कि ऐसा क्यों हो रहा है? शायद नहीं! इसका कारण भी हम सब ही हैं। हम बार-बार उन्हीं को चुनते हैं जो हमारे लिए और समाज के लिए खतरा हैं। उन्हीं की सरकार हमें सुहाती है जिनके शासन में अपराध, भ्रष्टाचार चरम पर रहा। इस पर हम यह बहाना कर सकते हैं कि हम करें भी तो क्या, विकल्प ही नहीं है हमारे पास। अब यह बहाना नहीं चलने वाला, जिस तरह हम सबने भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुटता का संदेश संपूर्ण विश्व को दिया, उसी तरह इस कलंकित राजनीति के खिलाफ भी लामबंद होना पड़ेगा। हमारा देश 65 फीसदी युवाओं का देश है। युवाओं को ही संभालनी होगी, राजनीति की बागडोर अपने हाथ में। यह हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहने का समय कदापि नहीं है। हमें जागना होगा और दूसरों को जगाने के लिए प्रयास करना होगा। भारतीय राजनीति का चारित्रिक पतन ही सभी समस्याओं का मूल है। हमें बचाना होगा अपने देश के चारत्रिक गौरव को जिसके बलबूते हम सोने की चिडि़या कहलाते थे। सर्वथा उपयुक्त समय है उठ खड़े हो जाएं, अपने मूल्यों की रक्षा के लिए, तभी हम सबका भाग्य उदय हो सकता है।
यह लेख दैनिक भास्‍कर, नोएडा के संपादकीय पृष्‍ठ पर 10 फरवरी को प्रकाशित हुआ है।

फ़रवरी 09, 2012

बढ़ते मतदाता, बदलाव का संकेत


उत्‍तर प्रदेश में चुनाव के पहले चरण के शानदार आगाज के साथ यह अटकलें और भी तेज हो गई हैं कि मुख्‍यमंत्री का सिंहासन किस पार्टी के हाथ लगेगा? बुधवार को कड़ी सुरक्षा के बीच हुए पहले चरण में 10 जिलों सीतापुर, बाराबंकी, फैजाबाद, अम्बेडकर नगर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, गोंडा, सिद्धार्थनगर और बस्ती की 55 सीटों के मतदान में लगभग 64 फीसदी मतदाताओं ने मताधिकार का प्रयोग किया। इसके साथ ही 862 उम्‍मीदवारों की किस्‍मत ईवीएम में बंद हो गई। 2007 के चुनाव में यहां यह संख्‍या 50 फीसदी से भी कम थी। इन्‍द्रदेव ने बारिश के माध्‍यम से मतदाताओं के हौसले को परखना चाहा लेकिन मतदाताओं ने सभी रिकार्ड ध्‍वस्‍त करने की ठानी थी। प्रदेश को अच्‍छी सरकार देने का सपना संजोये मतदाताओं ने सभी आजादी के बाद के रिकार्ड ध्‍वस्‍त करते हुए सर्वाधिक मतदान किया।  
यूपी को देश की जान है। यहां किसी पार्टी की कामयाबी का मतलब होता है, केंद्र सरकार की राजनीति में मजूबत दखलंदाजी। इसीलिए 2012 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की चारों बड़ी पर्टियों भाजपा, बसपा, सपा और कांग्रेस यहां एड़ी से चोटी का जोर लगा रही हैं। उत्‍तर प्रदेश का चुनाव देश की राजनीति में अहम भूमिका निभाता है। यहां उठाती सियासी गर्म हवाओं की तपन दिल्‍ली तक महसूस की जाती है। उत्‍तर प्रदेश की राजनीति ने कई उतार चढ़ाव देखे हैं। आजादी की क्रांति के बाद भारत की विकल्‍प से मरहूम राजनीति में जनता का केवल एक ही सहारा था, काग्रेंस। इसके पश्‍चात हुई, हरित क्रांति ने क्षेत्रीय पर्टियों के लिए जमीन तैयार की और जनता के समक्ष विकल्‍पों की भरमार हो गई। इन्‍हीं विकल्‍पों में अपना सच्‍चा हितैषी तलाशते-तलाशते जनता ने अपना अस्तित्‍व ही खो सा दिया। चंद लोगों के जनाधार के सहारे सरकारें बनी और उन्‍होंने प्रदेश को जमकर लूटा। यहां हर पार्टी ने अपने पैर जमाने के लिए नए-नए पैंतरे अपनाए। किसी ने जातिवाद का सहारा लिया, किसी ने हिन्‍दुत्‍व का तो किसी ने सोशल इंजीनियरिंग, तो कोई समाजवाद और अल्‍पसंख्‍यक राजनीति  के सहारे सत्‍ता तक पहुंचने का रास्‍ता बनाने लगा। जो भी आया बस अपना पेट भरकर चला गया। जनता बेचारी, न तो इधर की रही, न उधर की।
भ्रष्‍टाचार, अनाचार और दुराचार की मार से आहत जनता के सामने कोई विकल्‍प ही नहीं था कि 2012 के चुनाव में किस पार्टी को सौंपी जाय उत्‍तर प्रदेश के भाग्‍य की चाबी। अन्‍ना आंदोलन ने जनता को जगाने का काम किया। नए-नए घोटालों के खुलासे ने पर्टियों का कच्‍चा चिठ्ठा जनता के समाने खोल दिया। नेताओं की तू-तू, मैं-मैं और खोखले चुनावी वादों की असलियत जनता पिछले कई दशकों से देख रही थी। इसलिए अब इन पर भरोसा करना भी लाजिमी न था। इस बार भी पर्टियां ने अपने वादों के हथकंडे अपनाए, किसी ने बिजली की बात की तो किसी ने लैपटॉप की। लेकिन जनता के मन में क्‍या है ये कोई नहीं जान पाया। मणिपुर, पंजाब और उत्‍तराखंड के मतदान में मतदाताओं ने इस बार अपने इरादों से परिचित करवा ही दिया था। इसके बाद उत्‍तर प्रदेश के पहले चरण  में भी मतदाताओं ने जोशोखरोश से मतदान किया मगर मतदाताओं का बढ़ा हुआ प्रतिशत कई सवाल छोड़ कर गया है। क्‍या यह बदलाव के संकेत हैं ? क्‍या जनता जागरूक हो चुकी है? किसको समझा है जनता ने अपना रहनुमा? कौन होगा प्रदेश का राजा? ऐसे कई सवाल जिसने पार्टियों और राजनीतिक चिंतकों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। अभी प्रदेश में सात चरणों का चुनाव होना बाकी है। अगर मतदाताओं का आंकड़ा ऐसा ही रहा तो यह निश्चित ही यह एक बड़े बदलाव का सूत्रधार होगा और उत्‍तर प्रदेश तथा देश की राजनीति के लिए शुभ संकेत छोड़कर जाएगा।

फ़रवरी 07, 2012

यूजीसी नेट में बदलाव शुभ या अशुभ

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट (नेट/जेआरएफ) को पूरी तरह से बहुविकल्पीय कर दिया है। यूजीसी ने इस बदलाव के पीछे तर्क दिया है कि उत्तर पुस्तिकाओं की जांच करने में समय और पैसा अधिक खर्च होता है। यह बदलाव कितना शुभ है या अशुभ यह सोचनीय विषय है।
राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा के माध्यम से देश भर के विश्वविद्यालय को योग्य शिक्षक देने का दायित्व यूजीसी के पास है। यूजीसी साल में दो बार दिसम्बर और जून में यह परीक्षा आयोजित करती है। इसमें सफल हुए अभ्यार्थियों को देश में विभिन्न विश्वविद्यालयों, डिग्री काॅलेजों में अपनी अध्यापन क्षमता दिखाने का मौका मिलता है। अभी तक इस परीक्षा को पास करने के लिए दो बहुविकल्पीय तथा एक पेपर की विवरणात्मक हुआ करता था। इस विवरणात्मक प्रश्न पत्र के माध्यम से अभ्यार्थियों के विषयगत ज्ञान और लेखन दक्षता को परखा जाता रहा है। परंतु इस परीक्षा के तीनों प्रश्न पत्र अब बहुविकल्पीय होंगे। इसमें प्रथम प्रश्न पत्र में 60 प्रश्न पूछे जाएंगे, जिसमें 50*2=100 अंक के प्रश्न अभ्यर्थी को करने होंगे, द्वितीय प्रश्न पत्र में 50*2=100 तथा तृतीय प्रश्न पत्र में 75*2=150 प्रश्न पूछे जाएंगे। इन दोनों प्रश्न पत्रों के सभी प्रश्न का उत्तर अभ्यर्थियों को देना होगा। किसी भी प्रश्न पत्र के लिए कोई नकारात्मक अंक प्रणाली नहीं रखी गई है। इसके साथ परीक्षा को पास करने के लिए भी न्यूनतम अंक निर्धारित कर दिए गए हैं। जिसके तहत सामान्य श्रेणी के अभ्यर्थियों को प्रथम तथा द्वितीय पेपर में 40-40 प्रतिशत तथा तृतीय प्रश्न पत्र में 50 प्रतिशत यानि 75 अंक लाने होंगे। इसी प्रकार ओबीसी के अभ्यथियों को प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय प्रश्न पत्र में क्रमशः 35-35, 45 प्रतिशत, अनुसूचित जाति/जनजाति/शरीरिक रूप से विकलांग/विजुअली हैंडीकेप अभ्यर्थियों को क्रमशः 35-35 तथा 40 प्रतिशत अंक लाने होंगे। इसके अलावा अभ्यर्थी अपने उत्तरों की कार्बन काॅपी अपने साथ ले जा सकेंगे।
इस बदलाव से जायज है कि नेट परीक्षा की तैयारी कर रहे अभ्यर्थियों में खुशी की लहर दौड़ गई होगी। साथ ही यूजीसी को भी कम समय और पैसा खर्च करना होगा। अब सवाल यह उठता है कि क्या इस प्रणाली के माध्यम से हम विश्वविद्यालयों को अच्छे अध्यापक प्रदान की पाएंगेघ् अभी तक तृतीय प्रश्न पत्र में यूजीसी अभ्यर्थियों की खूब माथापच्ची करवाती थी, जिससे उनकी सारी क्षमताओं का आंकलन होता रहा है। परंतु क्या अब वह उनकी क्षमताओं का आंकलन बहुविकल्पीय प्रश्न पत्रों के माध्यम से कर पाएंगेंघ् किसी अध्यापक के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक होती है उसकी विषयगत दक्षता। दक्षता से अभिप्राय है उसकी लेखन, अध्ययन और अध्यापन क्षमता। इसमें लेखन सबसे अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। यदि कोई अध्यापक अपने विषय पर लिख नहीं सकता तो इसका मतलब है वह अपने विषय को न तो ठीक से पढ़ा सकता है और ना ही निभा सकता है। अब जो बदलाव हुए हैं उसमें अभ्यर्थी की विषयगत दक्षता का परीक्षण किस तरह किया जाएगाघ्
यूजीसी ने जो बदलाव किए वे सहूलियतों के लिहाज से तो ठीक है चाहें वह अभ्यर्थियों की हों या यूजीसी की। इसके माध्यम से हम देश भर के विश्वविद्यालयों में खाली पड़े अध्यापकों के पदों को भर भी सकते हैं। लेकिन इन बदलावों के बाद नेट/जेआरएफ की परीक्षा पास करके आए अभ्यर्थियों के पास क्या इतना ज्ञान होगा कि वह छात्रों और अपने विषय से न्याय कर पाए। वैसे भी पहले से ही हमारी शिक्षा प्रणाली में कई तरह की कमियां है। जिनमें सुधार की पहले से ही आवश्यकता है। ऐसा न हो कि यह बदलाव भी भविष्य में कमी के रूप में समाने आए। इस पर पुर्नविचार की आवश्यकता है।
यह लेख दैनिक भास्‍कर 6 फरवरी को नोएडा-यूपी एडीशन के पृष्‍ठ संख्‍या 7 पर प्रकाशित हुआ है।

जनवरी 28, 2012

मन के उल्लास का वसंत

        प्रकृति का कण-कण खिलखिला उठा है। मानवी चेतना में ताजगी, पक्षियों की कलरव, पीली-पीली सरसों, पेड़ों का श्रृंगार बनकर उभरी नई कोपलों की मनमोहनी छवि उल्लासित कर रही है। आम के पेडों में उठती आम्र मंजरी की मनोहरी सुगंध और कोयल की कूहकूह मन को तरंगित कर रही है। हर और खुशियों का मौसम है। कड़कड़ाती ठंड भी लौटकर अपने घर जाने को तैयार बैठी है। भगवान सूर्य अपने दिव्य प्रकाश की गर्मी के माध्यम से ठंड में सिकुड़ चुके मानवीय मन को नई ऊर्जा से ओतप्रोत करने की तैयारी कर रहे हैं। प्रकृति सजोसमान जुटा रही है, वह हमें देना चाहती है, नई आशा की किरण, नए विश्वास का सूर्य, नई ऊर्जा से उमंगित मन। वह रंगना चाहती हमको केसरिया रंग में, जो प्रतीक है, बलिदान का, उमंग का, उछाह का, त्याग का। यह विजय का रंग है। जो प्रेरणा देता है कि निरंतरता के साथ हर पल जयगान करो। परिवर्तन को स्वीकारो और आगे बढ़ो, जब तक तुम्हें तुम्हारा लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।
    परिवर्तन प्रकृति का नियम है। पतझड़ और इसके बाद आने वाला वसंत इसी का प्रतीक है। वसंत संचार का नाम है। वसंत के माध्यम से कुछ नया करने का संदेश मिलता है। प्रकृति नए परिधान ओढ़ लेती है, नए पुष्पों से धरा सुशोभित होती है। ऐसा लगता है चारों तरफ से प्रकृति की सुंदरता हेमंत की ठिठुरन के बाद बाहर निकलकर आ गई है। भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं- वसंत ऋतुनाम कुसुमाकरः, ऋतुओं में मैं कुसुमाकर अर्थात् वसंत के रूप में हूं।
    इसके अलावा वसंत समर्पित है विद्या की देवी सरस्वती के नाम। इसलिए माघ शुक्ल पंचमी को हम वसंत पंचमी के रूप में मानते है। इस दिन हम ऋतुराज वसंत का स्वागत भी करते हैं। इसे ज्ञान पंचमी और श्री पंचमी आदि नामों से भी जाना जाता है। वसंत पंचमी का पर्व मां सरस्वती के प्रकाट्य उत्सव के रूप में सम्पूर्ण भारत वर्ष में मनाया जाता है। इसे विद्या की जयंती नाम से भी पुकारा जाता है।
प्राकटयेनसरस्वत्यावसंत पंचमी तिथौ। विद्या जयंती सा तेन लोके सर्वत्र कथ्यते।।
    सनातन धर्म की अपनी अलग विशेषताएं हैं, इसलिए यहां हर दिन त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। शायद इसीलिए इसको संसार में उच्च स्थान प्राप्त है। इसी क्रम में आता है वसंत पंचमी का पर्व। माता सरस्वती विद्याल और बुद्धि की अधिष्ठात्री हैं। उनके हाथ की पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है। उनके कर कमलों की वीणा हमें संदेश देती है कि वसंत के आगमन के साथ ही हम अपने हृदय के तारों को झंकृत करें। माता सरस्वती का वाहन मयूर हमें सिखाता है कि हम मृदुभाषी बनें। अगर हम सरस्वती अर्थात् विद्या के वाहन बनाना चाहते हैं तो हमें अपने आचरण, अपने व्यवहार में मयूर जैसी सुंदरता लानी होगी। इस दिन उनकी पूर्ण मनोभाव से पूजा-अर्चना करनी चाहिए। हमें स्वयं और दूसरों के विकास की प्रेरणा लेनी चाहिए। इस दिन हमें अपने भविष्य की रणनीति माता सरस्वती के श्री चरणों में बैठकर निर्धारित कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त अपने दोष, दुर्गुणों का परित्याग कर अच्छे मार्ग का अनुगमन कर सकते हैं। जिस मार्ग पर चलकर हमें शांति और सुकून प्राप्त हो। मां सरस्वती हमें प्रेरणा देती हैं श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की। इस दिन हम पीले वस्त्र धारण करते हैं, पीले अन्न खाते हैं, हल्दी से पूजन करते हैं। पीला रंग प्रतीक है समृद्धि का। इस कारण वसंत पंचमी हम सबको समृद्धि के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है।
    वसंत पंचमी वास्तव में मानसिक उल्लास का और आंतरिक आह्लाद के भावों को व्यक्त करने वाला पर्व है। यह पर्व सौंदर्य विकास और मन की उमंगों में वृद्धि करने वाला माना जाता है। वसंत ऋतु में मनुष्य ही नहीं जड़ और चेतन प्रकृति भी श्रृंगार करने लगती है। प्रकृति का हर परिवर्तन मनुष्य के जीवन में परिवर्तन अवश्य लाता है। इन परिवर्तनों को यदि समझ लिया जाए तो जीवन का पथ सहज और सुगम हो जाता है। वसंत के मर्म को समझें, वसंत वास्तव में आंतरिक उल्लास का पर्व है। वसंत से सीख लें और मन की जकड़न को दूर करते हुए, सुखी जीवन का आरंभ आज और अभी से करें।

दैनिक भास्‍कर नोएडा, यूपी एडीशन में वसंत पर्व के दिन पृष्‍ठ 6 पर प्रकाशित हुआ है ।

जनवरी 19, 2012

यूपी का राजनीतिक संकट

भारत का हृदय क्षेत्र कहे जाने वाले राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा-2012 का बिगुल बज चुका है। सभी पर्टियां मतदाताओं को रिझाने के लिए तरह-तहर के हथकंडों का इस्तेमाल कर रही हैं, चाहें वह प्रदेश का चार हिस्सों में बंटने की घोषणा हो या अल्पसंख्यक आरक्षण की घोषण। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश को अब तक 8 प्रधानमंत्री देने वाला राज्य उत्तर प्रदेश गहरे राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा है। यहां की जनता के पास विकल्प ही नहीं है कि वह किसे जननेता बनाये।
          सभी राजनीतिक पर्टियां जानती हैं कि आने वाले समय में उत्तर प्रदेश भारत की राजनीति में अहम भूमिका अदा करेगा। इसलिए चाहें वह कोई भी पार्टी हो पूरी ताकत से इस चुनाव समर में जोर आजमाइश कर रही है। तृणमूल कांग्रेस की केंद्र में कांग्रेस से तकरार, बाबू सिंह कुशवाहा विवाद और राहुल गंाधी और मुख्यमंत्री मायावती की तू-तू, मैं-मैं इसी का नतीजा है। इसके इतर बिडंबना यह है कि इन पर्टियों की स्थिति एजेंडे को लेकर अभी तक साफ नहीं है। भाजपा जैसी पार्टी ने अभी तक अपने मुखिया को लेकर संस्पेंस बरकरार रखा है। शायद उसे डर है कि कहीं पार्टी के अंदर चल रही उठापटक उनकी लुटिया डुबो दे। बसपा की पिछले चुनाव में प्रयोग की गई सोशल इंजीनियरिंग फेल होती नज़र आ रही है। जहां सपा के मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के सहारे वोटरों को लुभा रहे हैं वहीं कांग्रेस राहुल को हाथियार बनाकर युवा वोटरों को रिझाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। अगर गौर करें तो पिछला विधानसभा चुनाव में बसपा शायद इसलिए सत्ता में आयी क्योंकि सपा सरकार की नीतियों से आजि़ज आ चुकी जनता के पास कोई विकल्प नहीं था। यह चुनाव मुख्यमंत्री मायावती बनाम मुलायम सिंह यादव था, इस बार ऐसा नहीं है। इस बार कई अन्य पार्टिया के प्रभाव में आ जाने के कारण सभी पर्टियों के समीकरण गड़बड हो गए हैं। इसमें सबसे ज्यादा भूमिका पीस पार्टी की नज़र आ रही। स्वच्छ राजनीति का एजेंडा साथ लेकर चल रही पीस पार्टी अगर मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में कर लेती है तो सपा का स्थिति डंवाडोल हो सकती है। उधर कांग्रेस और बसपा अन्ना फैक्टर से भी डरे हुए हैं। यदि जातिगत समीकरणों की बात करें तो सवर्ण, पिछड़ा वर्ग और दलित मतदाता पेंडुलम की भांति इधर-उधर हिलते-डुलते दिखाई दे रहे हैं। यहां पर्टियों के समाने बिडंबना यह है यूपी जनता हर पार्टी के बारे में बाखूबी जानती है क्योंकि आजादी से लेकर आज तक हर बड़ी पार्टी ने यहां शासन किया है। इसके इतर पर्टियां जनता के रूझान को अब तक समझ नहीं पाई हैं। चुनाव आयोग भी सख्ती भी इस चुनाव में अहम भूमिका निभाएगी। जहां 24 घंटे टोल फ्री नबंर 1950 पार्टियों की किरकिरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा वहीं जनता को भी विभिन्न मुद्दों पर प्रतिक्रिया दर्ज कराने का मौका भी मिलेगा।
              इसके इतर उत्तर प्रदेश की राजनीति का एक सीन और भी है विधानसभा के समाने लगी प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत और उनके शिष्य चौधरी चरण सिंह की प्रतिमाएं प्रदेश की समृद्ध राजनीतिक संस्कृति और विरासत की यादों को ताजा करती हैं। जो जनता के लिए जीए और जनता के लिए हंसते-हंसते अलविदा कह गए। उत्तर प्रदेश की परंपरा ऐसी राजनीतिक हस्तियों को पैदा करने की रही है। लेकिन आज स्थिति इसके उलट है प्रदेश की सभी राजनीतिक पर्टियां चाहें वह सत्तासीन बसपा हो, भाजपा, सपा या कांग्रेस हो हर पार्टी अपराधियों की शरणगाह बनती जा रही है। बाबू सिंह कुशवाहा के बसपा से बाहर होने और भाजपा में शामिल हाने को इसी से जोड़कर देखा जा सकता है। हर पार्टी में भ्रष्टाचारियों का बोलबाला है। इसी का नतीजा है कि 2012 के विधानसभा चुनाव में कई नेता ऐसे हैं जो जेल में होते हुए भी राजनीतिक बिसात बिछा रहे हैं। इस मामले में यूपी का पूर्वांचल इलाका सबसे आगे है। अब मतदाताओं के समाने फिर एक चुनौती खड़ी हो रही है कि वह आखिर चुने किसे। अगर ‘नेशनल इलेक्शन वाॅच’ के आंकड़ों पर भरोसा करें तो प्रदेश की राजनीतिक पार्टियों ने अब तक 617 सीटों के लिए प्रत्याशियों की घोषणा की है, जिनमें कम से कम 77 उम्मीदवारों के खिलाफ, हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, बलात्कार और डकैती जैसे संगीन आरोप हैं। देश की राजनीति में अहम भूमिका निभाने वाले उत्तर प्रदेश की अपराधी और भ्रष्टाचार की गुलामी जकड़ी है। इस प्रदेश का हाल यह है कि यदि यहां कोई पहली बार विधायक बनता है तो वह केवल अपनी और अपने करीबियों की जेबें भरता है और बैंक बैलेंस बढ़ता है।
सत्य यही है कि देश भर को जननेता देना वाला यूपी मूलरूप से आज खुद ही जननेता ने होने की समस्या से जूझ रहा। अब देखने वाली बात यह होगी कि दिग्गज राजनीतिक पर्टियां किस तरह यहां की जनता को लुभाती हैं और सत्ता की कुर्सी पर कब्जा जमाती हैं। वैसे दिनोंदिन जनता की जागरूकता का बढ़ता स्तर और चुनाव आयोग की सख्ती क्या गुल खिलाएगी यह तो आने वाले चुनावी नतीजे ही बताएंगें।
यह लेख दैनिक भास्‍कर नोएडा के पृष्‍ठ 6 पर 17 जनवरी को प्रकाशित हुआ है।