फ़रवरी 12, 2013

भावों और संस्कृतियों के संगम में


बारह वर्षों के इंतजार के बाद आने वाला कुंभ देश ही नहीं, बल्कि दुनिया भर के लोगों के लिए एक चमत्कार सरीखा है। हर कुंभ में देश-विदेश के करोड़ों लोग पहुंचते हैं और पतित-पावनी नदियों में आस्था की डुबकी लगाते हैं। महीनों चलने वाले इस आयोजन का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व तो है ही, यह पर्यटन एवं व्यापार को भी बढ़ावा देता है। लेकिन अफसोस कि यह विशाल आयोजन मात्र प्रदर्शन का मंच बनकर रह गया है। शाही स्‍नानों पर संतों के अखाड़ों की अपार संपदा और आम जनता की आस्‍था का प्रदर्शन, बस इन्हीं दो पहलुओं के इर्द-गिर्द कुंभ के महापर्व की कहानी सिमटकर रह गई है।
हमारे देश में पुरुषार्थ चतुष्टय के तहत धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष की महत्ता का वर्णन किया गया है। पुरुष चतुष्टय का यह धर्म मानवधर्म है, युगधर्म है। लेकिन सवाल उठता है कि कुंभनगरी में पधारने वाले हमारे संत-महात्मा, जो तेन त्यक्तेन भुंजीथा का जाप करते हैं, वे अपनी अपार धन-संपदा का प्रदर्शन करके क्या जताना चाहते हैं। जिस देश में करोड़ों लोग भूख एवं कुपोषण से मर जाते हैं, वहां संतों द्वारा शिष्यों से प्राप्त अकूत धन-संपत्ति के प्रदर्शन का क्या मतलब है!
यह सवाल भी मन में उठता है कि जब देश जल रहा होता है, तब धर्म को बचाने का दावा करने वाले हमारे संत-महात्‍मा चुप क्‍यों बैठे रहते हैं? पिछले दिसंबर में दिल्‍ली में घटी घटना की निंदा देश ही नहीं, दुनिया भर में हुई, लेकिन हमारे संत-महात्माओं की चुप्पी नहीं टूटी। हमारे संत-महात्माओं को भी देश-काल की समस्याओं के प्रति सकारात्मक एवं प्रगतिशील रवैया अपनाना चाहिए।
इसके अलावा, जब आम अमावस्‍या या पूर्णिमा के दिन होने वाला छोटा स्नान नदियों को इतना अधिक गंदा कर जाता है, तो कुंभ के विशाल आयोजन के दौरान नदियों की क्या स्थिति होती होगी। गंगा को बचाने की बात करने वाले साधु-संत क्या इसे पवित्र रखने में योगदान नहीं दे सकते? अगर साधु-संत सोच लें कि देश की जीवनरेखा गंगा नदी को पवित्र रखना है और उसके लिए सभी योजना बनाकर सफाई अभियान में लग जाएं, तो वह दिन दूर नहीं, जब गंगा पहले की तरह पवित्र और निर्मल हो जाएगी। पर ऐसा न होते देख लगता है कि देश आस्‍था व दिखावे के नाम पर लुट रहा है। दुखद है कि भारतीय संस्‍कृति का यह ऐतिहासिक आयोजन कुंभ धीरे-धीरे इसी लूट का जरिया बनता जा रहा है।
लेकिन यह समझ लेना भी जरूरी है कि कुंभ दिखावा, ढोंग, वैभव या आस्‍था का आडंबरी प्रदर्शन मात्र नहीं है। यह मोक्ष की कामना भर भी नहीं है कि अमृत कलश की दो बूंदंे हमें भी अमरत्व प्रदान कर देंगी। कुंभ के मूल मे छिपी है, भारतीय संस्‍कृति की विश्‍वविजयी अभियान की चिर गाथा, जिसके बूते हमारा देश विश्‍व गुरु कहलाया। एक वह दौर भी था, जब हमारे संतों ने देश की राजनीति को नई दिशा देकर इतिहास की नई इबारत लिखी थी। चाहे चाणक्‍य जैसे संत का सम्राट चंद्रगुप्‍त का मार्गदर्शन करना हो, या संत रामदास जैसे गुरु का शिवाजी को तैयार करना, हर जगह धर्म और संस्‍कृति ही मूल में विद्यमान थी। कुंभ के अवसर पर संतों को देश को नई दिशा देने का संकल्प लेना चाहिए।
आज के संतों और महात्‍माओं को भी चाहिए कि दिखावे से ऊपर उठकर भारतीय संस्‍कृति की मूल विचारधारा से जुड़ें, ताकि देश को नई दिशा देकर मौजूदा समस्याओं से निजात दिला सकें। भुखमरी, गरीबी, महंगाई, भ्रष्‍टाचार, व्‍यभिचार और दुराचार जैसी समस्‍याओं के समाधान का अमृत यदि हमारा धर्मतंत्र छलकाने लगे, तो हमारे देश को फिर से जगद्गुरु बनने से कोई रोक नहीं सकता। कुंभ संस्‍कृतियों, विचारों और भावों का संगम है। यह एक ऐसा मंच है, जहां से देश की समस्‍याओं के निदान की बात उठे, जहां से क्रांति के सुर फूटे और संपूर्ण विश्‍व-वसुधा को शांति के रंग में रंग दे। अगर ऐसा होगा, तभी कुंभ के आयोजन की सार्थकता दिखेगी। जिस नदी के पानी में स्नान कर हम अपनी आत्मा को पवित्र करने का एहसास पाते हैं, उसे पवित्र रखना भी हम सबका कर्तव्य है।

11/02/2013 के कम्‍पेक्‍ट में छपा हमारा आलेख पढ़ें।

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