मासूस बचपन पर, जिस पर राष्ट्र का भविष्य
निर्भर करता हो, अपहरणकर्ताओं और तस्करों की नजर लग जाए, तो मानना चाहिए
कि राष्ट्र की सुरक्षा खतरे में है। अपना देश वर्तमान में इसी खतरे से
दो-चार हो रहा है। यहां के बचपन को सुरक्षा की दरकार है। सरकार भले ही लाख
दावा करे कि वह बच्चों की सुरक्षा के लिए भरसक प्रयास कर रही है, लेकिन
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आकड़ें इन दावों की पोल खोल
रहे हैं। एनसीआरबी के मुताबिक, बीते तीन वर्षों में 1.84 लाख बच्चे लापता
हो गए। इनमें से 28,595 बच्चे अपहरणकर्ताओं का शिकार बने। एनसीआरबी की
रिपोर्ट यह भी कहती है कि देश में लगभग 96 हजार बच्चे हर साल लापता हो रहे
हैं, यानी हर घंटे, लगभग 11 बच्चे। इन बच्चों में 70 फीसदी की उम्र होती
है, 12 से 18 साल। आखिर इतने बच्चे जाते कहां हैं? जवाब मुश्किल नहीं।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की ‘ट्रैफिकिंग इन वूमेन ऐंड चिल्ड्रन इन
इंडिया’ नामक रिपोर्ट को मानें, तो बच्चों की तस्करी को रोकने के प्रयास
नाकाफी हैं और इनमें मौजूद खामियों का फायदा उठाकर तस्कर बच्चों को उठाने
में कामयाब हो जाते हैं।
दुखद है कि सरकार
इन मासूमों की सुध नहीं लेती। असल में ये बच्चे सरकार के राजनीतिक दबाव
समूह से नहीं आते। इस वजह से केंद्र और राज्य सरकारें उन पर गौर करना ही
नहीं चाहती। इन बच्चों की तस्करी उन राज्यों में अधिकाधिक होती है, जहां
गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और सरकारी तंत्र की भ्रष्टता चरम पर है। इनमें
राजस्थान, बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश,
मध्य प्रदेश, हरियाणा एवं असम जैसे पूर्वोत्तर के राज्य भी शामिल हैं।
दुखद है कि इन बच्चों के गायब होने के एफआईआर तक नहीं लिखी जाती। इनमें से
ज्यादातर बच्चे उन गरीब परिवारों से ताल्लुक रखते हैं, जिनके मां-बाप को
दो जून की रोटी जुटाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। इनमें दिल्ली टॉप पर
है, जो बच्चों के खिलाफ हुए क्राइम के मामले में सर्वाधिक हिस्सेदारी
रखता है। इन बच्चों में ज्यादातर को वेश्यालयों, कारखानों या धनी
परिवारों में बेच दिया जाता है। इसके अलावा होटलों, ईंट भट्ठों में भी बिना
दिहाड़ी के ये बच्चे रात-दिन काम करने के लिए मजबूर किए जाते हैं।
दुर्भाग्य से अभी तक सरकार ने बच्चों के अपहरण और तस्करी रोकने के लिए
जो भी कानून बनाए हैं, वह मजबूत नहीं दिखता। इसके अलावा जो संस्थाएं बाल
हितों को लेकर काम कर रही हैं, वे भी इन कुकृत्यों को लेकर कभी विशेष
चिंतित नहीं रहती हैं। दूसरी बात समाज के जिस वर्ग के बच्चों पर यह संकट
सर्वाधिक है, हमारा समाज भी उसके प्रति संवेदना नहीं रखता। इसलिए गरीबों के
बच्चों के लिए न तो संसद में हंगामा होता है और न ही पुलिस उन्हें
ढूंढने में दिलचस्पी दिखाती है।
बीते कुछ
वर्षों पर गौर करें, तो बाल तस्करी, बाल अपहरण और बाल अपराध ने एक उद्योग
का रूप ले लिया है। विदेशों में बच्चों को मनोरंजन के साधन के रूप में
इस्तेमाल किया जाने लगा है। अरब देशों से आने वाली खबरें इसका प्रमाण हैं
कि वहां शेखों के मनोरंजन में भारतीय बच्चों का इस्तेमाल किया जाता है।
इन अमानवीय क्रूरताओं के खिलाफ न तो केंद्र सरकारें आवाज उठाती हैं, और न
ही मानवाधिकार से जुड़े लोग।
तथ्य यह है कि
पूरी दुनिया में बाल अधिकारों से जुड़ी कई संस्थाएं काम कर रही हैं।
उन्हें सशक्त बनाने के लिए लाखों योजनाएं चल रही हैं और अरबों-खरबों
रुपये भी खर्च किए जा रहे हैं। लेकिन जब बात बच्चों से जुड़े अपराधों से
लोहा लेने की आती है, तो आखिर समाज का हर वर्ग चुप्पी क्यो साध लेता है?
क्या जो बच्चे इन अपराधों का शिकार बने, वे समाज का अंग नहीं हैं? इन
प्रश्नों का हल सभी को खोजना होगा। हर किसी को जीने का हक है। उन मासूमों
को भी जिन्हें हर रोज धकेला जा रहा है अमानवीयता के उस दलदल में, जहां की
जिंदगी नरक से भी बदतर है। इसलिए चुप्पी तोड़ उन मासूमों को बचाने का
प्रयास करें, जिनकी पनियाती आंखें सुरक्षा की बाट जोह रही हैं।
अमर उजाला कांम्पेक्ट में प्रकाशित आलेख : http://compepaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20120817a_01210a003&ileft=294&itop=67&zoomRatio=158&AN=20120817a_01210a003