अक्तूबर 08, 2012

समग्र विकास से ही खुशहाली संभव


यह उदारीकरण का ही कमाल है कि एक तरफ जहां देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, वहीं गरीबों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है।
देश भर में पिछले कई वर्षों से विकास की चर्चा जोरों पर है। परंतु जब भी विकास की बात होती है, हर बार अमेरिकी मॉडल को ही अपनाने पर जोर दिया जाता है। हमारे देश के प्राकृतिक एवं विशाल मानव संसाधनों को ध्यान में रखकर कोई ठोस नीति नहीं बनाई जा रही, ताकि बेरोजगारी भी खत्म हो और खुशहाली भी आए। हमारे देश में उदारीकरण के दो दशकों के दौरान कैसा विकास हुआ है, उसकी असलियत ग्रामीण इलाकों में जाकर ही पता चलती है। मानव विकास सूचकांक एवं कुपोषण के मामले में हमारे देश की मौजूदा हालत सरकारी दावों की पोल खोलने के लिए काफी है। ग्रामीण इलाकों में बेशक मनरेगा जैसी कुछ योजनाओं के चलते चंद लोगों को रोजगार मिला है, लेकिन वह योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई है और भूख और बेरोजगारी को पूरी तरह खत्म करने में असमर्थ है।
हमारे यहां वास्‍तविक विकास तभी संभव हो पाएगा, जब देश के अंतिम व्‍यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। यहां ऐसी नीतियों की जरूरत है, जिसमें देश के उस वर्ग का हित समाहित हो, जो देश का पेट भरने के लिए अनाज पैदा करता है। आज स्थिति यह है कि किसानों की जमीन छीनकर उद्योगपतियों को दी जा रही है। नतीजतन हमारा देश दो हिस्‍सों में बंट गया है। एक है, ऊंचे-ऊंचे मॉल, बड़ी-बड़ी इमारतें, शानो-शौकत और आधुनिकता से परिपूर्ण जीवन शैली वाला इंडिया, तो दूसरा है दीन-हीन भारत, जहां विवश किसान, गरीब मजदूर, उत्पीड़न के शिकार दलित, भूमि और आजीविका से बेदखल जनजातियां और शहरों की गलियों में भीख मांगते छोटे-छोटे बच्चे नजर आते हैं।
ऐसा नहीं है कि विकास की हमारी अपनी कोई नीति नहीं रही है। हमारी भारतीय संस्‍कृति में साथ-साथ रहने, खाने, जीने और आगे बढ़ने की शिक्षाएं दी जाती हैं। यानी विकास हो तो सभी के हित और सुख के लिए, न कि केवल कुछ खास लोगों और वर्गों के लिए। विकास के इस मॉडल में व्‍यक्ति के शारीरिक, मानसिक, आध्‍यात्मिक और सामाजिक विकास की अवधारणा समाहित है। लेकिन उदारीकरण के बाद के वर्षों पर नजर डाले, तो साफ महसूस होता है कि देश की इस विशेषता को लगातार खत्म करने की कोशिशें जारी हैं। बाजारवाद और वैश्‍वीकरण ने हमारे विचार, व्‍यवस्‍था और व्‍यवहार, तीनों में व्यापक परिवर्तन लाने की चेष्‍टा की। वर्तमान में लंबी-चौड़ी सड़कें, विशाल मॉल, एफडीआई से आने वाले धन, बढ़ती जीडीपी को ही विकास का मानदंड समझ लिया गया है। असल वात तो यह है कि सत्ता में बैठे लोग इसी को विकास मनवाने पर तुले हैं। परंतु यह टिकाऊ और संतुलित विकास नहीं है। असली विकास तो तब होता, जब चारों-ओर खुशहाली का माहौल होता और हर किसी के चेहरे की मुस्‍कान विकास का गुणगान करती दिखाई देती। शेयर बाजार का उछलना और विदेशी मुद्रा भंडार का बढ़ना विकास नहीं है।
अगर सरकार की ही बातों पर गौर करें, तो देश की लगभग 80 करोड़ जनता 20 रुपये रोजना पर गुजारा करती है। आखिर ऐसा क्यों है कि एक तरफ देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, दूसरी तरफ गरीबों की संख्या में भी लगातार इजाफा होता जा रहा है। दरअसल यहां जो भी नीतियां बनाई जाती हैं, वे पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हितों को ध्‍यान रखकर। यही वजह है कि आज आर्थिक असमानता की खाई चौड़ी हुई है। इस खाई को पाटने के लिए एक समग्र विकास ढांचे की जरूरत है, जिसमें समाज के हर वर्ग को तवज्जो मिले और आर्थिक समृद्धि के साथ-साथ देश की संस्कृति का भी खयाल रखा जाए। पहले व्‍यक्ति निर्माण, फिर परिवार निर्माण और उसके बाद समाज निर्माण के संकल्‍प के साथ जब आगे बढ़ा जाएगा, तभी राष्‍ट्र का निर्माण संभव है। इसके बाद ही वह दौर आएगा, जब विकास की बूंद उस अंतिम व्‍यक्ति तक पहुंचेगी, जो आम आदमी के नाम से जाना जाता है।
 8 अक्‍टूबर 2012 के अमर उजाला कांम्‍पेक्‍ट में  विकास के समग्र मॉडल पर चर्चा करता आलेख पढ़ें  http://compepaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20121008a_012108004&ileft=294&itop=67&zoomRatio=158&AN=20121008a_012108004

अक्तूबर 04, 2012

टेलीवीजन संस्कृति के दोहरे मानदंड


एक तरफ तो कलर्स चैनल भारतीयता का ढोंग करते हुए कई ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण करता है जिनमें भारतीय संस्कृति के गौरव की व्याख्या की जाती है। दूसरी और 'बिग बॉस' जैसे कार्यक्रम के माध्यम से उसी संस्कृति को धूल-धूसरित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी जाती है। संस्कृति को तोड़ने और बचाने के इस दोहरे मापदंड में फायदा किसका है।
टेलीविजन चैनल 'कलर्स' पर दिखाए जाने वाले लोकप्रिय कार्यक्रम 'बिग बॉस' का आगाज 6 अक्टूबर से होने जा रहा है। ज्यादा से ज्यादा दर्शक बटोरने के लिहाज से इस कार्यक्रम का प्रसारण प्राइम टाइम में किया जाएगा। हमेशा की तरह इसमें ग्लैमर जगत की हस्तियां शिरकत करने जा रही हैं, हालांकि कार्यक्रम के होस्ट सलमान खान का कहना है कि 'बिग बॉस' का यह संस्करण पूर्णतया पारिवारिक होगा, लेकिन अब तक जिन लोगों के नाम इसके लिए गिनाए जा रहे हैं, उसे देखकर यह कहना मुश्किल है। दर्शक इस बार  'बिग बॉस' के घर में मॉडल से अभिनेत्री सयाली भगत, मैच फिक्सिंग की आरोपी नूपुर मेहता, सेक्स गुरू स्वामी नित्यानंद, अभिनेता आमिर खान के भाई फैजल खान, पूर्व क्रिकेटर नवजोत सिंह सिद्धू, एंकर/अभिनेता जय भानुशाली को देख सकते हैं।कार्यक्रम में एक विदेशी मेहमान किम करदाशियां के आने संभावनाएं प्रबल हैं।
दर्शकों को याद होंगे 'बिग बॉस' के पिछले 5 संस्करण, जिनमें अश्लीलता और गाली-गलौज को लेकर हमेशा विवादों की स्थिति बनी रहीं। इसी शो के पांचवें संस्करण में भारतीय मूल की कनाडाई पोर्न स्टार सन्नी लियोन को जोरदार तरीके से पेश किया गया। इस स्टार के आने से सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ स्कूलों और कॉलेजों में जाने वाला युवा वर्ग। इंटरनेट पर 'सन्नी लियोन' को सर्च करने वालों का हुजूम उमड़ पड़ा।
इससे शो की टीआरपी बढ़ गई। रही सही कसर फिल्म 'जिस्म-2' ने पूर्ण कर दी। न तो केन्द्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के ओर से इस पर कोई आपत्ति जताई गई और न ही शो के होस्ट संजय दत्त और सलमान खान को इस पर ऐतराज़ हुआ। परिणाम यह हुआ कि शो के निर्माताओं ने टीआरपी बढ़ाने का फंडा तो खोज लिया लेकिन भारतीय संस्कृति की मर्यादा को तार-तार कर दिया। बीते कुछ सालों की बात करें तो टीआरपी के चक्कर में छोटे पर्दे के शोज बनाने वाले निर्माता सभी मर्यादाओं को ताक पर रखकर पैसों की खातिर संस्कृति के प्रति अपनी जवाबदेही भूलाकर अपसंस्कृति की शरण में चले जाते हैं। इसी कारण कल तक देश को साक्षरता, संस्कृ ति और जागरूकता का पाठ पढ़ाने वाला टेलीविज़न, अश्लीलता और नग्नता फैलाने का माध्याम बनता जा रहा है।
हम सबने 'बिग बॉस' के 5 संस्करण देखें, हर बार इसमें उन विवादित हस्तियों को लाने का प्रयास किया जाता है, जिन्होंने भारतीय संस्कृति को कहीं न कहीं शर्मशार किया है, या फिर ऐसे लोगों को लाया जाता है जिनका कैरियर समाप्त हो चुका और इस शो के माध्यंम से उनके कैरियर को संजीवनी प्रदान करने की कोशिशें की जाती हैं, वो भी सांस्कृतिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर। अब प्रश्न यह उठता है कि एक तरफ तो कलर्स चैनल भारतीयता का ढोंग करते हुए कई ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण करता है जिनमें भारतीय संस्कृति के गौरव की व्याख्या की जाती है। दूसरी और  'बिग बॉस' जैसे कार्यक्रम के माध्यम से उसी संस्कृति को धूल-धूसरित करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी जाती है।
संस्कृति को तोड़ने और बचाने के इस दोहरे मापदंड में फायदा किसका है उन कॉरपोरेट घरानों का जो भारतीय संस्कृ ति को निरंतर बेच कर अपना पेट भर रहे हैं। इसे यहीं रोकना होगा, सरकार चुप है, दर्शक खुश तो संस्कृति को कौन बचाएगा। जब कला का पुजारी कलाकार ही नंगा नाच नचाने लगेगा तो, संस्कृति का क्षय तो निश्चित ही है। समय आ गया है कि कला और संस्कृति के पुजारियों को विवेक की कसौटी पर परख कर ही किसी कार्य को आगे बढ़ाना चाहिए, अन्यथा सिर्फ पैसा कमाने के चक्कर के अपसंस्कृति हम पर इस कदर हावी हो जाएगी कि हमारी आने वाली पीढ़ी इसे देखकर हम पर शर्म करेगी। यही समय है कि सुधर जाएं और अपना तथा अपनी संस्कृ़ति का भविष्य उज्वल बनाएं। प्रत्येक संस्कृति के मूल में एक जीवन-दर्शन होता है। इसीलिए प्रत्येक कला के मूल में भी एक जीवन-दर्शन होता है। आवश्यक नहीं कि उसके प्रति कला सचेत भी हो; वह अंशत: या संपूर्णतया अवचेतन भी हो सकता है। पर उसका होना अनिवार्य है। कलाकार का विवेक उसी पर आश्रित है, उसी से उसके मूल्य या प्रतिमान नि:सृत होते हैं। कलाकार या साहित्यकार की शिक्षा अथवा संस्कार के कारण यह जीवन-दर्शन कम या अधिक चेतन हो सकता है।
स्‍टार समाचार सतना में प्रकाशित इस आलेख को आप  इस लिंक पर भी देख सकते हैं http://www.starsamachar.com/EpaperPdf/4102012/4102012-md-hr-6.pdf
लेखक देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार में व्याख्याता हैं।
संपर्क सूत्र- 0941062596