यह उदारीकरण का ही कमाल है कि एक तरफ जहां देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही है, वहीं गरीबों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है।
देश भर में पिछले कई वर्षों से विकास की चर्चा जोरों पर है। परंतु जब भी विकास की बात होती है, हर बार अमेरिकी मॉडल को ही अपनाने पर जोर दिया जाता है। हमारे देश के प्राकृतिक एवं विशाल मानव संसाधनों को ध्यान में रखकर कोई ठोस नीति नहीं बनाई जा रही, ताकि बेरोजगारी भी खत्म हो और खुशहाली भी आए। हमारे देश में उदारीकरण के दो दशकों के दौरान कैसा विकास हुआ है, उसकी असलियत ग्रामीण इलाकों में जाकर ही पता चलती है। मानव विकास सूचकांक एवं कुपोषण के मामले में हमारे देश की मौजूदा हालत सरकारी दावों की पोल खोलने के लिए काफी है। ग्रामीण इलाकों में बेशक मनरेगा जैसी कुछ योजनाओं के चलते चंद लोगों को रोजगार मिला है, लेकिन वह योजना भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई है और भूख और बेरोजगारी को पूरी तरह खत्म करने में असमर्थ है।
हमारे यहां वास्तविक विकास तभी संभव हो पाएगा, जब देश के अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। यहां ऐसी नीतियों की जरूरत है, जिसमें देश के उस वर्ग का हित समाहित हो, जो देश का पेट भरने के लिए अनाज पैदा करता है। आज स्थिति यह है कि किसानों की जमीन छीनकर उद्योगपतियों को दी जा रही है। नतीजतन हमारा देश दो हिस्सों में बंट गया है। एक है, ऊंचे-ऊंचे मॉल, बड़ी-बड़ी इमारतें, शानो-शौकत और आधुनिकता से परिपूर्ण जीवन शैली वाला इंडिया, तो दूसरा है दीन-हीन भारत, जहां विवश किसान, गरीब मजदूर, उत्पीड़न के शिकार दलित, भूमि और आजीविका से बेदखल जनजातियां और शहरों की गलियों में भीख मांगते छोटे-छोटे बच्चे नजर आते हैं।
ऐसा नहीं है कि विकास की हमारी अपनी कोई नीति नहीं रही है। हमारी भारतीय संस्कृति में साथ-साथ रहने, खाने, जीने और आगे बढ़ने की शिक्षाएं दी जाती हैं। यानी विकास हो तो सभी के हित और सुख के लिए, न कि केवल कुछ खास लोगों और वर्गों के लिए। विकास के इस मॉडल में व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक और सामाजिक विकास की अवधारणा समाहित है। लेकिन उदारीकरण के बाद के वर्षों पर नजर डाले, तो साफ महसूस होता है कि देश की इस विशेषता को लगातार खत्म करने की कोशिशें जारी हैं। बाजारवाद और वैश्वीकरण ने हमारे विचार, व्यवस्था और व्यवहार, तीनों में व्यापक परिवर्तन लाने की चेष्टा की। वर्तमान में लंबी-चौड़ी सड़कें, विशाल मॉल, एफडीआई से आने वाले धन, बढ़ती जीडीपी को ही विकास का मानदंड समझ लिया गया है। असल वात तो यह है कि सत्ता में बैठे लोग इसी को विकास मनवाने पर तुले हैं। परंतु यह टिकाऊ और संतुलित विकास नहीं है। असली विकास तो तब होता, जब चारों-ओर खुशहाली का माहौल होता और हर किसी के चेहरे की मुस्कान विकास का गुणगान करती दिखाई देती। शेयर बाजार का उछलना और विदेशी मुद्रा भंडार का बढ़ना विकास नहीं है।
अगर सरकार की ही बातों पर गौर करें, तो देश की लगभग 80 करोड़ जनता 20 रुपये रोजना पर गुजारा करती है। आखिर ऐसा क्यों है कि एक तरफ देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है, दूसरी तरफ गरीबों की संख्या में भी लगातार इजाफा होता जा रहा है। दरअसल यहां जो भी नीतियां बनाई जाती हैं, वे पूंजीपतियों एवं प्रभावशाली समूहों के हितों को ध्यान रखकर। यही वजह है कि आज आर्थिक असमानता की खाई चौड़ी हुई है। इस खाई को पाटने के लिए एक समग्र विकास ढांचे की जरूरत है, जिसमें समाज के हर वर्ग को तवज्जो मिले और आर्थिक समृद्धि के साथ-साथ देश की संस्कृति का भी खयाल रखा जाए। पहले व्यक्ति निर्माण, फिर परिवार निर्माण और उसके बाद समाज निर्माण के संकल्प के साथ जब आगे बढ़ा जाएगा, तभी राष्ट्र का निर्माण संभव है। इसके बाद ही वह दौर आएगा, जब विकास की बूंद उस अंतिम व्यक्ति तक पहुंचेगी, जो आम आदमी के नाम से जाना जाता है।
8 अक्टूबर 2012 के अमर उजाला कांम्पेक्ट में विकास के समग्र मॉडल पर चर्चा करता आलेख पढ़ें http://compepaper.amarujala.com/svww_zoomart.php?Artname=20121008a_012108004&ileft=294&itop=67&zoomRatio=158&AN=20121008a_012108004