खुशी, प्रेम, सौहार्द, नयापन और उत्साह होली का मूल भाव है, जिसे बचाए रखने की जरूरत है, नहीं तो इसके रंग फीके पड़ जाते हैं।
पर्व-त्योहार किसी भी देश की समृद्ध परंपरा के
वाहक होते हैं। हमारा देश सदियों से ही उत्सवों और त्योहारों की भूमि रहा
है। यहां कभी होली, तो कभी दिवाली और कभी ईद, तो कभी बैसाखी मनाई जाती है।
परंतु विगत कुछ दशकों से इन पारंपरिक उत्सवों के रंग फीके पड़ते दिख रहे
हैं। होली की ही बात करें, तो हाल के वर्षों में इसके मनाने के तरीकों में
काफी गिरावट देखी गई है।
होली जहां
सामाजिकता और धार्मिकता से जुड़ी है, वहीं यह रंगों का त्योहार भी है। यह
एक ऐसा सरस पर्व है, जो आनंद के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। समाज का
हर वर्ग इसे बहुत ही उत्साह के साथ मनाता है। इसमें जातिभेद-वर्णभेद का
कोई स्थान नहीं होता। वास्तव में होली समाज की सामूहिक संस्कृति का
परिचायक है। फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला यह त्योहार दो
दिन मनाया जाता है। पहले दिन लोग रात को लकड़ियों तथा कंडों का ढेर लगाकर
होलिका पूजन और दहन करते हैं। इस दिन होली जलाकर लोग आपसी दुश्मनी एवं बैर
को भुलाकर सौहार्द एवं सद्भाव के साथ रहने का संकल्प लेते हैं। अगले दिन
रंग-गुलाल लगाकर एक-दूसरे का अभिवादन करते हैं। होली बुरी प्रवृत्तियों पर
अच्छाइयों की जीत का पर्व है, लेकिन आज होली के त्योहार में बुराइयां ही
हावी होती दिख रही हैं।
हाल के दशकों में
जिस तरह से हर क्षेत्र में मूल्यों में गिरावट देखी गई है, उसी तरह लोग
अपनी परंपराओं एवं पर्वों के मूल स्वरूप को भुलाकर उन्हें विकृत ढंग से
मनाने लगे हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि पहले जो हमें अपनी समृद्ध परंपराओं
से पारस्परिक सौहार्द और सामाजिक समरसता बढ़ाने में मिलती थी, वह समाप्त
होने लगा। इस बाजारवादी दौर में लोगों में लाभ कमाने की प्रवृत्ति इतनी
बढ़ी है कि लोग त्योहारों के अवसर पर मिलावट करने से भी बाज नहीं आते। इसका
सबसे बुरा असर होली के त्योहार पर पड़ता है। मिठाई में मिलावट तो जगजाहिर
बात है, लेकिन रंगों एवं गुलाल में भी मिलावट होने लगी है, जिसका सीधा असर
लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। मुझे याद आते हैं बचपन के वे दिन, जब होली
आने से एक महीने पहले से ही घरों में इसकी तैयारियां शुरू हो जाती थीं।
होली में जमकर गुझिया और चिप्स-पापड़ उड़ाए जाते थे। लेकिन आज ये सारी
तैयारियां बाजार में खो गई हैं। सबकुछ बाजार से तैयार आता है। लोगों की इसी
मनोवृत्ति का लाभ बाजार के बनिए उठाते हैं। प्राकृतिक रंगों की जगह जहरीले
रसायन युक्त रंगों ने ले ली है। इसके अलावा कीचड़, धूल और अन्य कई तरह
की चीजों का उपयोग होली पर किया जाने लगा। इसके चलते न केवल लाखों लीटर
पानी की बर्बादी होती है, बल्कि झगड़े एवं खून-खराबे की घटनाएं भी देखने को
मिलती हैं। इतना ही नहीं, लोग भांग एवं शराब का सेवन कर इस पर्व की मूल
मर्यादा को ही भूल जाते हैं और महिलाओं के साथ बदतमीजी करने से भी बाज नहीं
आते।
हमारे गांव की एक परंपरा याद है
मुझे, लोग रंग खेलने के बाद शाम को एक-दूसरे के घर जाकर पुरानी रंजिश
भुलाकर गले मिलते थे। यह परंपरा भी धीरे-धीरे लुप्त हो चली है। आज लोगों
के पास सामाजिक रिश्तों के लिए समय ही नहीं बचा है। आज तो लोग इस दिन को
लोग पुरानी दुश्मनी का बदला चुकाने के लिए चुनते हैं। समझदारी के अभाव के
चलते होली का स्वरूप विकृत हो चला है और सदियों से चली आ रही समृद्ध
परंपरा खत्म होती दिख रही है।
होली ऐसे समय
आती है, जब कंपकपाती ठंड विदा हो चुकी होती है, खेतों में नई फसल पकने
वाली होती है। पतझड़ के बाद धरती हरियाली की नई चादर ओढ़ लेती है। ऐसा लगता
है, मानो नवसृजन की तैयारियां चल रही हों, जिंदगी अपने सारे राग-रंग लेकर
नाचने को आतुर हो। यही है होली का मूलभाव। खुशी, प्रेम, नयापन, हंसी और
पारस्परिक सौहार्द। इस मूल भाव को बचाने की जरूरत है। लुप्त होती परंपरा
को बचाने की जरूरत है। अगर इस पर्व को समझदारी से मनाया जाए, तो लोक कल्याण
का साधन बनाया जा सकता है।
काम्पेक्ट अमर उजाला में 27 मार्च को होली पर्व पर प्रकाशित आलेख का लिंक-
http://compepaper.amarujala.com/pdf/2013/03/27/20130327a_012105.pdf