उत्तर प्रदेश की अस्सी लोकसभा सीटों पर
सभी प्रमुख दलों की नजरें लगी हैं, इसलिए
सभी हथकंडे अपनाए जा रहे हैं।
लोकसभा चुनाव का बिगुल बज गया है। चुनाव
आयुक्त ने नौ चरणों में होने वाले चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा कर दी है। इस लोकसभा
चुनाव में पिछली बार की तुलना में दस करोड़ ज्यादा मतदाता (कुल 81.4 करोड़) भाग लेंगे। विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने-अपने
प्रत्याशियों की घोषणा शुरू कर दी है, जिसे देखकर लगता है कि
अधिकांश दलों को दागी और बागी प्रत्याशियों से कोई परहेज नहीं है। प्रत्याशियों के
चुनाव में जाति, वंश और वोट बैंक को ध्यान में रखकर टिकट
बांटे जा रहे हैं। अब तक किसी पार्टी ने अपना घोषणापत्र जारी नहीं किया है। वह तब
जारी किया जाएगा, जब उस पर चर्चा के लिए वक्त नहीं बचेगा।
इस बार भी सभी दलों की नजर देश के सबसे
बड़े राज्य उत्तर प्रदेश पर है, जहां लोकसभा की सर्वाधिक 80
सीटे हैं। मतदाताओं को रिझाने के लिए राजनीतिक दल तरह-तरह के हथकंडे
अपनाने लगे हैं। आजादी के बाद देश को आठ प्रधानमंत्री देने वाले इस राज्य का
राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठेगा, इसका अनुमान लगाना बेहद चुनौतीपूर्ण
है। प्रदेश का सियासी समीकरण क्या गुल खिलाएगा, यह देखने
वाली बात होगी।
भाजपा के लिए जहां उत्तर प्रदेश में फतह
का मतलब 272 के जादुई आंकड़े को
हासिल करना है, वहीं कांग्रेस को सीट बचाने की चिंता है।
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के लिए तो यह अस्तित्व की लड़ाई ही है।
उत्तर प्रदेश में 18.5 फीसदी मुस्लिम, 9 फीसदी यादव,
27.5 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग एवं बनिये, 22 फीसदी
दलित, 8 फीसदी ठाकुर,13 फीसदी ब्राह्मण
और 2 फीसदी जाट मतदाता हैं। आंकड़ों की मानें, तो मुस्लिम और अन्य पिछड़ा वर्ग के मतदाता चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका
अदा करने वाले हैं। जहां सपा मुस्लिमों की सबसे हितैषी पार्टी होने का दावा करती
है, वहीं बसपा दलितों के साथ खड़ी दिखाई देती है। परंतु
मुजफ्फरनगर दंगों के बाद समाजवादी पार्टी को पहले की तरह मुस्लिम मतदाताओं का
समर्थन हासिल नहीं होने वाला है। इसके अलावा, मौजूदा समाजवादी
पार्टी की सरकार के कामकाज से भी प्रदेश की जनता खुश नहीं दिखाई देती है। वहीं
बसपा केवल दलित बाहुल्य इलाकों में ही अच्छा प्रदर्शन करती दिखाई दे रही है।
इसके अलावा केंद्र में कांग्रेसी भ्रष्टाचार का समर्थन करने के कारण जनता सपा और
बसपा, दोनों से नाखुश है।
ऐसे में सारा दारोमदार आ टिकता है अन्य
पिछड़ा वर्ग के वोट बैंक पर, शायद इसी कारण भाजपा ने
अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के अति पिछड़ा वर्ग से होने को
ज्यादा प्रचारित करता रहा है। भाजपा ने अति पिछड़ा कार्ड खेलकर इस लड़ाई को और
धारदार बना दिया है, क्योंकि राज्य की 80 में से 45 सीटों पर अति पिछड़ी जातियों की तादाद
लगभग डेढ़ से चार लाख के बीच है। लेकिन जीत के लिए भाजपा को सवर्ण वर्ग का वोट भी
हासिल करना होगा, क्योंकि कभी-कभी वोटों का मामूली अंतर भी
परिणाम को नाटकीय ढंग से बदल देता है।
इसके अलावा, इस बार
बड़ी संख्या में युवा और नए मतदाता वोट डालेंगे, जो किसी भी
अनुमान को पलट सकने की क्षमता रखते हैं। यूपीए-दो की सरकार के कामकाज के प्रति
युवाओं में भारी गुस्सा है, जिसका इजहार इस चुनाव में देखने
को मिल सकता है। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में मायावती की पार्टी बसपा के साथ
मिलकर चुनाव लड़ने की अटकलों को पहले ही खारिज कर दिया है, किंतु
भाजपा और बसपा गठबंधन की संभावनाओं के बारे में प्रदेश की गलियों, चौराहों और नुक्कड़ों पर खूब चर्चा हो रही है। हर चुनाव में कहा जाता है
कि राजनीति लीक बदल रही है, लेकिन हर बार प्रदेश की राजनीति
अपने पुराने जातिवादी और अवसरवादी रूप में सामने आती है। लेकिन अब मतदाता काफी
जागरूक हो चुका है, जिसे खाली घोषणाओं का लॉलीपाप दिखाकर ठगने
का दौर खत्म हो चुका है। कौन सी पार्टी मतदाताओं का भरोसा जीतने में कामयाब होती
है, यह तो नतीजों की घोषणा के बाद ही पता चलेगा, लेकिन फिलहाल जाति और वंशवाद के सहारे पार्टियां चुनावी मंझधार पार करने
की जुगत में लगी हैं।