एक तरफ चुनावी सर्वे एनडीए को बहुमत से कम सीटें बता रहे हैं, दूसरी ओर भाजपा के आंतरिक मतभेद खुलकर सामने आ रहे हैं।
आगामी सात अप्रैल को पहले चरण का मतदान शुरू होते
ही लोकसभा चुनाव का आगाज हो जाएगा। नौ चरणों में होने वाले इस चुनाव पर
संपूर्ण देश की नजरे टिकी हैं। परंतु वर्तमान भारतीय राजनीति के सभी समीकरण
उलझे हुए से प्रतीत हो रहे हैं। सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस ऐसी रणनीति पर
चल रही है, जैसे वह पिछले एक दशक से विपक्ष में रही हो। वाम मोर्चा
बिखरा-बिखरा नजर आ रहा है। दिल्ली में 49 दिनों की सरकार बनाने वाली आम
आदमी पार्टी राजनीति में खास होती नजर आ रही है।
इसके
इतर अनेक राजनीतिक पंडितों का मानना है कि नरेंद्र मोदी देश के अगले
प्रधानमंत्री बनने वाले हैं। भाजपा के लिए सत्ता के दरवाजे खुल गए हैं।
माना जा रहा है कि संपूर्ण देश में मोदी की लहर चल रही है। मोदी भी अपनी
रैलियों में मंच से बार-बार यही घोषणा करते हैं कि जनता ने दिल्ली की
गद्दी उन्हें सौंपने का मन बना लिया है। लेकिन हाल के चुनावी सर्वे कुछ
अलग की कहानी बयां कर रहे हैं। हालिया सर्वेक्षणों के मुताबिक भाजपा का 272
के आंकड़े को पार करने का सपना पूरा नहीं होने जा रहा है।
ताजा
सर्वे में यूपीए को 119 से139, एनडीए को 225 से 235 एवं अन्य को 185 से
232 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है। वोट शेयर के मामले में यूपीए को
26 फीसदी, एनडीए को 34 फीसदी एवं अन्य को 40 फीसदी वोट मिलने का अनुमान है।
अब इस आंकड़े को देखें, तो लगता है कि इस बार का चुनाव यूपीए बनाम एनडीए न
होकर अन्य बनाम एनडीए हो रहा है। ऐसे में 66 फीसदी वोट एनडीए के खिलाफ
जाता हुआ दिखाई दे रहा है। अगर भाजपा विरोधी ताकतें धर्मनिरपेक्षता के नाम
पर एकजुट हो जाती हैं, तो 2014 में इनके पास पूर्ण बहुमत होगा। इसका मतलब
यह हुआ कि यूपीए फिर चुपके-चुपके सरकार बनाने की ओर बढ़ रहा है। प्रकाश
करात का यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को समर्थन देने के लिए पत्र लिखना
भविष्य में यूपीए एवं वाम दलों के गठबंधन के संकेत दे रहा है। ज्यादातर
सर्वे बता रहे हैं कि एनडीए गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिलना मुश्किल है। ऐसे
में नरेंद्र मोदी या भाजपा के किसी नेता के प्रधानमंत्री बनाने के आसार कम
होते दिख रहे हैं। सभी पूर्वानुमान यही बता रहे हैं कि कि कांग्रेस की
भूमिका अहम होने वाली है। शायद इसीलिए कांग्रेस आक्रामकता को त्यागकर एक
निर्णायक की तरह लोकसभा चुनाव के राजनीतिक रियालिटी शो का आनंद ले रही है।
इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि एनडीए में मोदी का कद जितना बढ़ा है, उतना
ही फायदा कांग्रेस को हुआ है, जो खुद को पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष बताती है।
एक
तरफ चुनावी समीकरण तेजी से बदल रहे हैं, दूसरी तरफ भाजपा के आंतरिक मतभेद
भी खुलकर सामने आ रहे हैं। मुख्तार अब्बास नकबी की ट्वीट, जसवंत सिंह का
निर्दलीय चुनाव लड़ना, कानपुर में मुरली मनोहर जोशी का विरोध, मथुरा में
हेमामालिनी का विरोध, नवजोत सिंह सिद्धु का अरुण जेटली के चुनाव प्रचार में
शामिल होने से इन्कार करना, सब मिलकर मोदी की उलझन को बढ़ा रहे हैं। कई
विश्लेषकों का मानना है कि देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में भी
भाजपा को केवल 20 से 25 सीटें ही मिल रही हैं। अगर एनडीए को केंद्र में
अपनी सरकार बनानी है, तो उनके पास एक ही विकल्प है कि वह अभी से मायावती,
जयलालिता, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू एवं बीजद के साथ गठबंधन के लिए
प्रयास शुरू कर दे, क्योंकि इन सबके सहयोग से ही एनडीए 272+ के जादुई
आंकड़े को छू सकेगा। लेकिन मुश्किल यह है कि इनमें से अधिकांश दल नरेंद्र
मोदी की छवि से चिढ़ते हैं। इसके अलावा उनका मानना है कि मोदी अगर
प्रधानमंत्री बने, तो अमीरी-गरीबी की खाई को और अधिक गहरा कर देंगे यानी
उनके आते ही कॉरपोरेट जगत का बोलबाला हो जाएगा। उन्हें नई आर्थिक उदारवादी
नीतियों का मसीहा माना जा रहा है। फिलहाल तो भाजपा के घोषणापत्र में देरी
भी यही दर्शाती है कि वह खुद में ही उलझी हुई है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प
होगा कि पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति में कौन ऐसा नेता होगा, जो सरकार
गठन के लिए अन्य दलों को जोड़ पाएगा।