गर्मियों की शुरूआत हो चुकी है। अप्रैल के महीने की धूप कुछ ऐसी हो रही है मानो सबकुछ जला कर खाक कर देगी। इसका कारण है पिछले दो दशकों से लगातार अधिकतम स्तर के तापमान का बढ़ाना। मौसम विभाग की माने तो विगत 20 सालों में अधिकतम तापमान सामान्य स्तर से लगभग 6 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और इस बढ़ोत्तरी ने स्थायित्व ले लिया है। इसलिए आलम यह है कि अप्रैल से जून तक जो तापमान 30 से 32 डिग्री सेल्सियस रहता था वह अब बढ़ाकर 40 से 41 डिग्री तक दर्ज हो रहा है। इस बढ़ते तापमान को लेकर चिंतित होना जायज है, लेकिन ये जागरूकता आखिर आयेगी कब!
रिपोर्टों की मानें तो उत्तर भारत के शहरों में दक्षिण भारत से ज्यादा गर्मी रिकार्ड हो रही है। वर्ष 2000 में जहां राजस्थान, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में औसत अधिकतम तापमान लगभग 33 डिग्री सेल्सियसर रहता था। वो मार्च के महीने से ही लगभग 40 डिग्री सेल्सियस रिकार्ड हो रहा है, जबकि जून आने में अभी तीन महीने बाकी है। इसका अर्थ यह हुआ साल दर साल लगभग 0.5 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ रहा है। इसके बढ़ते तापमान की जिम्मेदारी आखिरी किसकी है। हमारी, आपकी या सरकार की। कंक्रीट के खड़े होते जंगल, उद्योगों से निकलने वाला रेडिएशन, वायु, जल आदि का प्रदूषण इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है। हमें अपनी सुविधा के लिए ठंडा पानी चाहिए तो फ्रिज लगा लिया, ठंडा कमरा चाहिए तो एसी लगा लिया। परंतु कभी ये नहीं सोचा इससे पर्यावरण कितना प्रभावित होता है। इसके अलावा बढ़ती आबादी भी तापमान बढ़ाने में एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है। भारत के जिन इलाकों में जनसंख्या दबाव अधिक है वहां का तापमान स्वत: ही ज्यादा रिकार्ड हो रहा है। मसलन अगर दिल्ली की बात करें तो स्थिति यही है। 25 लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में वहां के निवासियों के सुख—सुविधा की चीजें साल भर में अधिकतम तापमान को लगभग 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा देती हैं। ऐसे शहरों को मौसम विभाग ने हीट आयलैंड कहा है। इसके अलावा अगर मौसम विभाग की मानें तो साल 2021 से 2050 तक देश के कुछ बड़े शहरों जैसे दिल्ली, चेन्नई, मुंबई, कोलकाता, बैंगलुरू आदि के तापमान में 5 डिग्री की बढ़ोत्तरी दर्ज की जायेगी। इसके अलावा पहाड़ी क्षेत्रों में तापमान में काफी परिवर्तन देखने को मिले हैं। अगर श्रीनगर और इम्फाल की बात करें तो यहां तापमान में सर्वाधिक बदलाव देखने को मिले। श्रीनगर में मार्च के माह में तापमान में सर्वाधिक वृद्धि दर्ज की गई जो कहीं न कहीं हिमालयी क्षेत्रों के लिए घातक है।
अगर वैज्ञानिकों की मानें तो इस तापमान को बढ़ाने में सर्वाधिक योगदान हमारी और आपकी की लापरवाही का है। पिछले 50 सालों में कोयला और पेट्रोलियम जैसे जीवाश्म ईंधनों का इतना अधिक उपयोग किया गया कि वातावरण गर्मी पैदा करने वाली कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसों से भर गया। एक अनुमान के मुताबिक वायुमंडल में पहले की तुलना में 30 प्रतिशत ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड मौजूद है। जिसके कारण मौसम अप्रत्याशित व्यवहार कर रहा है। सूखा, अतिवृष्टि, चक्रवात और समुद्री हलचलों को वैज्ञानिक तापमान वृद्धि का नतीजा बताते हैं। पिछले छह दशकों में ध्रुवीय बर्फ भण्डारों में जबरदस्त गिरावट दर्ज की गई है। समुद्र का बढ़ता जलस्तर भी इसी का ही परिणाम है। नासा के एक अध्ययन के अनुसार मौजूदा सदी के बीतते-बीतते इस कमी से समुद्री जलस्तर वृद्धि के परिणामस्वरूप दुनिया भर की तटीय बस्तियाँ जलमग्न हो चुकी होंगी। दूसरी ओर खेतिहर मैदानी इलाकों में पानी की किल्लत कृषि उत्पादन पर बहुत बुरा असर डालेगी। धरती का तापमान बढ़ने से समूची जलवायु बदल जाएगी।
कुल मिलाकर अगर देंखे तो पायेंगे राहें आसान नहीं हैं। वैज्ञानिकों को यहां तक मानना है यहां से तबाही ही तबाही नज़र आ रही है, जहां से बिन मिटे लौटना संभव नहीं हैं। फिर भी हम मिल जुलकर सार्थक प्रयास के सहारे कुछ दिन तो कुदरत से और मांग सकते हैं। अपनी गैर जरूरी आवश्यकताओं पर लगाम लगानी होगी। जैसे बिजली बचाकर, पानी बचाकर, कारों को जरूरत के हिसाब से उपयोग करके, पॉलीथीन का उपयोग न करके हम पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचा सकते हैं। इसके अलावा पेड़ लगाकर इस दिशा में सर्वाधिक योगदान दिया जा सकता है। तापमान बढ़ रहा है, यह चिंता की बात है, हमने और आपने ने ही प्रकृति का दोहन के फलस्वरूप इसको इस खतरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है। चिंता भी हमें ही करनी होगी। पहले ही बहुत देर हो चुकी है, अब और अधिक इंतजार किया तो शायद यह वसुधा बचे ही न। इसलिए आज से अभी से प्रयास करें।