मार्च 19, 2022

कश्मीर फाइल्स: न्याय की गुहार का जीवंत दस्तावेज...


कल रात देख ली कश्मीर फाइल्स। फ़िल्म एक दस्तावेज है जो चीख चीख कर रहा है न्याय दो। लेकिन फ़िल्म के रिलीज होने के 8 दिन बाद नैरेटिव को 'केंद्र और 'राज्य' में सरकार किसकी थी? इस पर लाकर अटका दिया गया है। सरकार किसकी थी? इसका उत्तर है यह महत्वपूर्ण नहीं है सरकार किसकी थी? जरूरी इसका जबाब है कश्मीर में हुये अत्याचार का अपराधी कौन है? कौन है जिसके उकसाने पर यह सब हुआ? कौन है जो अब तक झूठ बेचता रहा? कौन है जो मूक दर्शक बना रहा? असल में नैरेटिव के खेल में यही होता आया है जब भी कोई न्याय की बात करे उसे दूसरे पहलुओं में इतना उलझा दो कि न्याय शब्द सेकंडरी बन कर रहा जाये।

यह फ़िल्म एक फ़िल्म नहीं है, 'सत्य' कहानियों का तानाबाना है, जिसे Vivek Ranjan Agnihotri जी ने जोड़ कर आपके समक्ष प्रस्तुत कर दिया है। इस कहानी में कई किरदार नजर आते हैं लेकिन किरदार असल में हैं सिर्फ दो ही, एक तो 'कश्मीरी हिन्दू' जिन्हें अपने घरों से बेघर कर दिया गया, जिनका कत्लेआम हुआ, जिन्हें कठोर से कठोर यातनाएं दी गई। और दूसरा है 'इस्लामिक कट्टरवाद'। भारतीय सिनेमा के इतिहास में शायद यह पहली बार हुआ है कि 'इस्लामिक कट्टरता' पर किसी फिल्म में इतना खुलकर बोला गया हो। यही इस फ़िल्म की यूएसपी भी है। 

इसके अलावा 2014 के बाद से लगातार बेनकाब होते चेहरे हैं जो इस देश को गुमराह करने में सबसे आगे रहे।वहीं एक कन्फ्यूज्ड 'युवा' है जिसे कोई भी ब्रेनवाश कर सकता है। लेकिन जब उसे सच जा एहसास तभी होता है जब उसका कोई अपना शिकार बनाता है। यहां यह बात गौर करने वाली है, जब कोई अपना शिकार न हुआ हो, उसे दुनियादारी से लेना देना नहीं रहता वो बस उसी पर भरोसा करता है जो उसके दिमाग में भरा गया है। 

पहले दिन 3.5 करोड़ की ओपीनिंग देने वाली फिल्म भारत सिनेमा को शायद पहली फ़िल्म होगी जो 8 दिन में 100 करोड़ कमा ले। इस पर सवाल उठ रहे हैं कि डायरेक्टर और प्रोड्यूसर ने संवेदनाएं बेच कर पैसा कमाया। उनसे मेरा सिर्फ इतना ही कहना है कि अपनी राजनीति की दुकान चलाने के लिए 'मौतों' का इंतज़ार करने वाले लोग कम से कम यह न ही बोलें तो अच्छा। पहली बात तो आपने अब तक इस तरह का कुछ बनाया नहीं और हाँ बना भी लेते तो 'बैन' कर दिया जाता। 

कुछ लोगों का मानना है कि यह फ़िल्म देश मे मैजोरिटी को भड़का रही है। नहीं नहीं डरिये नहीं, पहली बात तो इस देश का हिन्दू बंटा हुआ है और कन्फ्यूज्ड है बिल्कुल कृष्णा की तरह। आपको 'लज्जा' उपन्यास तो याद होगा उसमें भी बंगाल के हिंदुओं की कहानी है, 'मोपला' 'मरीचझपी' सबकुछ। यह वो कन्फ्यूज्ड लोग हैं जो सब पढ़ते हैं सब जानते भी हैं और भूल जाते हैं। क्योंकि मैंने ऊपर भी लिखा जब तक खुद पर नहीं आती तब तक इन्हें ये सब कथाओं जैसा लगता है। ये नहीं भड़केंगे निश्चिन्त रहिये।

फ़िल्म 'मीडिया' 'पुलिस' 'राजनेता', 'प्रशासनिक पदों पर बैठे लोगों' से कड़े सवाल पूछती है। ज्यादा नहीं लिखूंगा इन सब पर फ़िल्म देख कर खुद ही समझ लीजिएगा। वैसे इनके बारे में कुछ भी छुपा नहीं है। 

इसके अलावा एक अध्यापक है जो युवाओं का ब्रेनवाश करता है। इस ब्रेनवाश की तकनीकी का पहला पड़ाव है 'यू कैन कॉल मी राधिका'। इससे बचने का तरीका है युवाओं को सच से रूबरू कराते रहिए। बूढ़े पुष्कर जी फ़िल्म में दिखेंगे यह करते हुए और उनके चार दोस्त भी। 

अंत में हो सकता है कि ये फ़िल्म वॉलीवुड की दिशा बदल दे। कई और 'फाइल्स' खुलें। 'गुजरात फाइल्स-गोधरा की सच्चाई के साथ' 'मोपला फाइल्स' 'मारिचझपी' आदि आदि। तो दर्शकों को एक सलाह उस सच को देखने के लिए तैयार रहिये जिसे आपने आधा अधूरा पढ़ा। फ़िल्म को 'ए' सर्टिफिकेट क्यों दिया गया समझ न आया क्योंकि इससे ज्यादा वीभत्स फिल्मांकन तो मैंने कई पुरानी फिल्मों में देखा है। खैर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से हो सकता है इसका आकलन किया हो। फ़िल्म में कृष्णा की स्पीच जरूर सुने, ऋषि कश्यप की भूमि कश्मीर से आपको रूबरू होने का मौका मिलेगा।

और हां अगर आप फ़िल्म देखने जा रहे तो यह जरूर ध्यान रखिये यह फ़िल्म 'सच्ची' कहानियों का तानाबाना है और एक जरूरी दस्तावेज भी। जिसके दो किरदार हैं 'कश्मीरी हिन्दू' और 'इस्लामिक कट्टरवाद'। और ये फ़िल्म  कश्मीरी हिन्दुओं के लिए न्याय की गुहार लगा रही है।

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