दिसंबर 12, 2014

धर्मांतरण पर छिड़ी बहस

 
सवाल यह भी है कि धर्म किसी व्यक्ति के सामाजिक और आर्थिक जीवन में कितना महत्वपूर्ण है। क्या धर्म परिवर्तन से किसी की आर्थिक हालत बदल सकती है?
इन दिनों धर्मांतरण को लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चा गर्म है। संसद में विपक्षी दलों की मांग पर सरकार को इस पर चर्चा कराने के लिए बाध्य होना पड़ा। गौरतलब है कि बीते दिनों आगरा में कुछ लोगों का धर्मपरिवर्तन कराया गया। धर्मांतरण कार्यक्रम के आयोजकों ने जहां इसे उनकी ′घर वापसी′ बताया, वहीं धर्म परिवर्तन करने वाले कुछ लोगों ने आरोप लगाया कि उन्हें धर्म बदलने के लिए विभिन्न तरह के प्रलोभन दिए गए। इस मामले में स्थानीय पुलिस ने कुछ लोगों के खिलाफ धोखाधड़ी का मामला भी दर्ज किया है। कहा जा रहा है कि आगरा में राशन कार्ड बनवाने के बहाने छलपूर्वक धर्म परिवर्तन करवाया गया।
असल में आज धर्म शब्‍द का सर्वाधिक दुरुपयोग किया जा रहा है। धर्म के कथित ठेकेदार गरीबों का धर्म के नाम पर इस्तेमाल कर अपनी रोटियां सेंकते हैं, जिसके चलते सांप्रदायिक तनाव, दंगे होते रहते हैं। सांप्रदायिक तनाव के दौरान जहां कुछ लोगों की जान चली जाती है, वहीं सामाजिक ताने-बाने को भी गहरा नुकसान होता है। धर्म के नाम पर फैली अशांति सामाजिक सद्भाव और सौहार्द के लिए सबसे अधिक खतरनाक है। ऐसे में गंगा-जमनी तहजीब की बात करना बेमानी-सा प्रतीत होता है। धर्म के नाम पर मानवीयता से खिलवाड़ बदस्‍तूर जारी है। लोग सड़कों पर उतरते हैं, दंगे होते हैं, कुछ मौतों पर बहस होती है, और फिर कुछ पल की शांति छा जाती है।
खबरें हैं कि आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश में घर वापसी के नाम पर धर्मांतरण के और भी कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। धर्मांतरण के मामले पहले भी देश के विभिन्न हिस्सों में होते रहे हैं। केरल में 2006 से 2012 के बीच सात हजार से ज्यादा लोगों का धर्म परिवर्तन किया गया था। परंतु किसी ने यह जनाने की कोशिश नहीं की कि अब कैसे जी रहे हैं वे लोग? क्या धर्म परिवर्तन से उनकी सामाजिक और आर्थिक हालत में सुधार हुआ? किसी को बेहतर जिंदगी का लालच देकर धर्म परिवर्तन करना जायज नहीं ठहराया जा सकता। अगर कोई अपनी इच्छा से धर्म परिवर्तन करे, तो यह उसकी निजी स्वतंत्रता है।
यहां सवाल यह उठता है कि कोई समाज यदि किसी का धर्म परिवर्तन कर या करा रहा है, तो क्‍या उस समाज में ऐसी व्‍यवस्‍था है कि वह बाहर से आए मेहमान को स्‍वीकार कर सके और सभी उसके सामाजिक जीवन में सहभागी बन सकंे। क्‍या धर्म परिवर्तन के बाद ऐसा समाज बनाया जा रहा है, जहां किसी के साथ कोई भेदभाव न हो। यदि धर्म-परिवर्तन करने वालों के लिए अपनाए गए धर्म में कोई स्थान नहीं होगा, तो उसे एक तरह से छल और धोखा ही कहा जा सकता है।
सवाल यह भी है कि धर्म किसी व्यक्ति के सामाजिक और आर्थिक जीवन में कितना महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज में जाति की प्रधानता है। जिस देश में एक जाति दूसरी जाति की लड़की या लड़के को विवाह के लिए स्वीकार नहीं कर पाती है, वहां धर्मांतरण करके आए व्यक्ति का समाज में कैसा स्वागत होगा? हमारे देश में हर जाति और धर्म की एक सीमा है, जिससे बाहर निकलकर ही किसी को अपनाया जा सकता है। ऐसे में क्‍या ऐसी व्‍यवस्‍था बन सकती है कि जिन्होंने धर्म परिवर्तन किया है, वे एक ऐसी नई जाति का गठन कर सकें, जो स्वयं अपने सामाजिक जीवन के भागीदार हों। ऐसी संभावना न के बराबर ही दिखती है।
मसलन, आगरा में धर्म परिवर्तन करने वाले परिवारों के सामने फिलहाल असमंजस की स्थिति है। अब उन्हें न तो हिंदू माना जा रहा है और न ही मुस्लिम। ये लोग अब निराशा और डर में डूबे हुए हैं। इनमें से कुछ आसमान की ओर हाथ उठाकर अपने किए के लिए माफी मांग रहे हैं। हमारे देश के महान संतों ने धर्म के बारे में कहा है कि सभी धर्मों का उद्देश्‍य एक हैा। आज हमारे देश में एक ऐसे धर्म की जरूरत है, जो इंसान को इंसान बनना सिखाए। इंसान में इंसानियत की बड़ी कमी महसूस हो रही है। आगरा वाले मामले ने यह साबित कर दिया है कि हमारी व्यवस्था लोगों को बुनियादी सुविधाएं देने में विफल रही है, जिसका फायदा कुछ असामाजिक तत्व उठा रहे हैं और वे विभिन्न तरह का प्रलोभन देकर लोगों को धर्मांतरण के लिए उकसा रहे हैं। इस तरह के मामलों से समाज में तनाव पैदा होता है। सरकार को विभिन्न दलों के नेताओं से विचार-विमर्श कर धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने के लिए कानून बनाना चाहिए।
आदित्य कुमार शुक्ला
स्वतंत्र टिप्पणीकार

अप्रैल 03, 2014

बिगड़ रहा है भाजपा का सियासी समीकरण!

एक तरफ चुनावी सर्वे एनडीए को बहुमत से कम सीटें बता रहे हैं, दूसरी ओर भाजपा के आंतरिक मतभेद खुलकर सामने आ रहे हैं।
आगामी सात अप्रैल को पहले चरण का मतदान शुरू होते ही लोकसभा चुनाव का आगाज हो जाएगा। नौ चरणों में होने वाले इस चुनाव पर संपूर्ण देश की नजरे टिकी हैं। परंतु वर्तमान भारतीय राजनीति के सभी समीकरण उलझे हुए से प्रतीत हो रहे हैं। सत्‍ताधारी पार्टी कांग्रेस ऐसी रणनीति पर चल रही है, जैसे वह पिछले एक दशक से विपक्ष में रही हो। वाम मोर्चा बिखरा-बिखरा नजर आ रहा है। दिल्‍ली में 49 दिनों की सरकार बनाने वाली आम आदमी पार्टी राजनीति में खास होती नजर आ रही है।
इसके इतर अनेक राजनीतिक पंडितों का मानना है कि नरेंद्र मोदी देश के अगले प्रधानमंत्री बनने वाले हैं। भाजपा के लिए सत्ता के दरवाजे खुल गए हैं। माना जा रहा है कि संपूर्ण देश में मोदी की लहर चल रही है। मोदी भी अपनी रैलियों में मंच से बार-बार यही घोषणा करते हैं कि जनता ने दिल्‍ली की गद्दी उन्‍हें सौंपने का मन बना लिया है। लेकिन हाल के चुनावी सर्वे कुछ अलग की कहानी बयां कर रहे हैं। हालिया सर्वेक्षणों के मुताबिक भाजपा का 272 के आंकड़े को पार करने का सपना पूरा नहीं होने जा रहा है।
ताजा सर्वे में यूपीए को 119 से139, एनडीए को 225 से 235 एवं अन्य को 185 से 232 सीटें मिलने का अनुमान जताया गया है। वोट शेयर के मामले में यूपीए को 26 फीसदी, एनडीए को 34 फीसदी एवं अन्य को 40 फीसदी वोट मिलने का अनुमान है। अब इस आंकड़े को देखें, तो लगता है कि इस बार का चुनाव यूपीए बनाम एनडीए न होकर अन्‍य बनाम एनडीए हो रहा है। ऐसे में 66 फीसदी वोट एनडीए के खिलाफ जाता हुआ दिखाई दे रहा है। अगर भाजपा विरोधी ताकतें धर्मनिरपेक्षता के नाम पर एकजुट हो जाती हैं, तो 2014 में इनके पास पूर्ण बहुमत होगा। इसका मतलब यह हुआ कि यूपीए फिर चुपके-चुपके सरकार बनाने की ओर बढ़ रहा है। प्रकाश करात का यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी को समर्थन देने के लिए पत्र लिखना भविष्‍य में यूपीए एवं वाम दलों के गठबंधन के संकेत दे रहा है। ज्यादातर सर्वे बता रहे हैं कि एनडीए गठबंधन को पूर्ण बहुमत मिलना मुश्किल है। ऐसे में नरेंद्र मोदी या भाजपा के किसी नेता के प्रधानमंत्री बनाने के आसार कम होते दिख रहे हैं। सभी पूर्वानुमान यही बता रहे हैं कि कि कांग्रेस की भूमिका अहम होने वाली है। शायद इसीलिए कांग्रेस आक्रामकता को त्‍यागकर एक निर्णायक की तरह लोकसभा चुनाव के राजनीतिक रियालिटी शो का आनंद ले रही है। इससे यही निष्‍कर्ष निकलता है कि एनडीए में मोदी का कद जितना बढ़ा है, उतना ही फायदा कांग्रेस को हुआ है, जो खुद को पूरी तरह धर्मनिरपेक्ष बताती है।
एक तरफ चुनावी समीकरण तेजी से बदल रहे हैं, दूसरी तरफ भाजपा के आंतरिक मतभेद भी खुलकर सामने आ रहे हैं। मुख्‍तार अब्‍बास नकबी की ट्वीट, जसवंत सिंह का निर्दलीय चुनाव लड़ना, कानपुर में मुरली मनोहर जोशी का विरोध, मथुरा में हेमामालिनी का विरोध, नवजोत सिंह सिद्धु का अरुण जेटली के चुनाव प्रचार में शामिल होने से इन्कार करना, सब मिलकर मोदी की उलझन को बढ़ा रहे हैं। कई विश्लेषकों का मानना है कि देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश में भी भाजपा को केवल 20 से 25 सीटें ही मिल रही हैं। अगर एनडीए को केंद्र में अपनी सरकार बनानी है, तो उनके पास एक ही विकल्प है कि वह अभी से मायावती, जयलालिता, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू एवं बीजद के साथ गठबंधन के लिए प्रयास शुरू कर दे, क्योंकि इन सबके सहयोग से ही एनडीए 272+ के जादुई आंकड़े को छू सकेगा। लेकिन मुश्किल यह है कि इनमें से अधिकांश दल नरेंद्र मोदी की छवि से चिढ़ते हैं। इसके अलावा उनका मानना है कि मोदी अगर प्रधानमंत्री बने, तो अमीरी-गरीबी की खाई को और अधिक गहरा कर देंगे यानी उनके आते ही कॉरपोरेट जगत का बोलबाला हो जाएगा। उन्‍हें नई आर्थिक उदारवादी नीतियों का मसीहा माना जा रहा है। फिलहाल तो भाजपा के घोषणापत्र में देरी भी यही दर्शाती है कि वह खुद में ही उलझी हुई है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति में कौन ऐसा नेता होगा, जो सरकार गठन के लिए अन्य दलों को जोड़ पाएगा।

मार्च 24, 2014

क्या गुल खिलाएगा प्रदेश का सियासी समीकरण




उत्तर प्रदेश की अस्सी लोकसभा सीटों पर सभी प्रमुख दलों की नजरें लगी हैं, इसलिए सभी हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। 
लोकसभा चुनाव का बिगुल बज गया है। चुनाव आयुक्त ने नौ चरणों में होने वाले चुनाव कार्यक्रमों की घोषणा कर दी है। इस लोकसभा चुनाव में पिछली बार की तुलना में दस करोड़ ज्यादा मतदाता (कुल 81.4 करोड़) भाग लेंगे। विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपने-अपने प्रत्याशियों की घोषणा शुरू कर दी है, जिसे देखकर लगता है कि अधिकांश दलों को दागी और बागी प्रत्याशियों से कोई परहेज नहीं है। प्रत्‍याशियों के चुनाव में जाति, वंश और वोट बैंक को ध्‍यान में रखकर टिकट बांटे जा रहे हैं। अब तक किसी पार्टी ने अपना घोषणापत्र जारी नहीं किया है। वह तब जारी किया जाएगा, जब उस पर चर्चा के लिए वक्त नहीं बचेगा।
इस बार भी सभी दलों की नजर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश पर है, जहां लोकसभा की सर्वाधिक 80 सीटे हैं। मतदाताओं को रिझाने के लिए राजनीतिक दल तरह-तरह के हथकंडे अपनाने लगे हैं। आजादी के बाद देश को आठ प्रधानमंत्री देने वाले इस राज्‍य का राजनीतिक ऊंट किस करवट बैठेगा, इसका अनुमान लगाना बेहद चुनौतीपूर्ण है। प्रदेश का सियासी समीकरण क्या गुल खिलाएगा, यह देखने वाली बात होगी।
भाजपा के लिए जहां उत्तर प्रदेश में फतह का मतलब 272 के जादुई आंकड़े को हासिल करना है, वहीं कांग्रेस को सीट बचाने की चिंता है। समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के लिए तो यह अस्तित्व की लड़ाई ही है।
उत्तर प्रदेश में 18.5 फीसदी मुस्लिम, 9 फीसदी यादव, 27.5 फीसदी अन्‍य पिछड़ा वर्ग एवं बनिये, 22 फीसदी दलित, 8 फीसदी ठाकुर,13 फीसदी ब्राह्मण और 2 फीसदी जाट मतदाता हैं। आंकड़ों की मानें, तो मुस्लिम और अन्‍य पिछड़ा वर्ग के मतदाता चुनाव में महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा करने वाले हैं। जहां सपा मुस्लिमों की सबसे हितैषी पार्टी होने का दावा करती है, वहीं बसपा दलितों के साथ खड़ी दिखाई देती है। परंतु मुजफ्फरनगर दंगों के बाद समाजवादी पार्टी को पहले की तरह मुस्लिम मतदाताओं का समर्थन हासिल नहीं होने वाला है। इसके अलावा, मौजूदा समाजवादी पार्टी की सरकार के कामकाज से भी प्रदेश की जनता खुश नहीं दिखाई देती है। वहीं बसपा केवल दलित बाहुल्‍य इलाकों में ही अच्‍छा प्रदर्शन करती दिखाई दे रही है। इसके अलावा केंद्र में कांग्रेसी भ्रष्‍टाचार का समर्थन करने के कारण जनता सपा और बसपा, दोनों से नाखुश है।
ऐसे में सारा दारोमदार आ टिकता है अन्‍य पिछड़ा वर्ग के वोट बैंक पर, शायद इसी कारण भाजपा ने अपने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के अति पिछड़ा वर्ग से होने को ज्यादा प्रचारित करता रहा है। भाजपा ने अति पिछड़ा कार्ड खेलकर इस लड़ाई को और धारदार बना दिया है, क्योंकि राज्य की 80 में से 45 सीटों पर अति पिछड़ी जातियों की तादाद लगभग डेढ़ से चार लाख के बीच है। लेकिन जीत के लिए भाजपा को सवर्ण वर्ग का वोट भी हासिल करना होगा, क्योंकि कभी-कभी वोटों का मामूली अंतर भी परिणाम को नाटकीय ढंग से बदल देता है।
इसके अलावा, इस बार बड़ी संख्या में युवा और नए मतदाता वोट डालेंगे, जो किसी भी अनुमान को पलट सकने की क्षमता रखते हैं। यूपीए-दो की सरकार के कामकाज के प्रति युवाओं में भारी गुस्सा है, जिसका इजहार इस चुनाव में देखने को मिल सकता है। कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में मायावती की पार्टी बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने की अटकलों को पहले ही खारिज कर दिया है, किंतु भाजपा और बसपा गठबंधन की संभावनाओं के बारे में प्रदेश की गलियों, चौराहों और नुक्कड़ों पर खूब चर्चा हो रही है। हर चुनाव में कहा जाता है कि राजनीति लीक बदल रही है, लेकिन हर बार प्रदेश की राजनीति अपने पुराने जातिवादी और अवसरवादी रूप में सामने आती है। लेकिन अब मतदाता काफी जागरूक हो चुका है, जिसे खाली घोषणाओं का लॉलीपाप दिखाकर ठगने का दौर खत्म हो चुका है। कौन सी पार्टी मतदाताओं का भरोसा जीतने में कामयाब होती है, यह तो नतीजों की घोषणा के बाद ही पता चलेगा, लेकिन फिलहाल जाति और वंशवाद के सहारे पार्टियां चुनावी मंझधार पार करने की जुगत में लगी हैं।