सवाल
यह भी है कि धर्म किसी व्यक्ति के सामाजिक और आर्थिक जीवन में कितना
महत्वपूर्ण है। क्या धर्म परिवर्तन से किसी की आर्थिक हालत बदल सकती है?
इन दिनों
धर्मांतरण को लेकर राजनीतिक गलियारों में चर्चा गर्म है। संसद में विपक्षी
दलों की मांग पर सरकार को इस पर चर्चा कराने के लिए बाध्य होना पड़ा।
गौरतलब है कि बीते दिनों आगरा में कुछ लोगों का धर्मपरिवर्तन कराया गया।
धर्मांतरण कार्यक्रम के आयोजकों ने जहां इसे उनकी ′घर वापसी′ बताया, वहीं
धर्म परिवर्तन करने वाले कुछ लोगों ने आरोप लगाया कि उन्हें धर्म बदलने के
लिए विभिन्न तरह के प्रलोभन दिए गए। इस मामले में स्थानीय पुलिस ने कुछ
लोगों के खिलाफ धोखाधड़ी का मामला भी दर्ज किया है। कहा जा रहा है कि आगरा
में राशन कार्ड बनवाने के बहाने छलपूर्वक धर्म परिवर्तन करवाया गया।
असल
में आज धर्म शब्द का सर्वाधिक दुरुपयोग किया जा रहा है। धर्म के कथित
ठेकेदार गरीबों का धर्म के नाम पर इस्तेमाल कर अपनी रोटियां सेंकते हैं,
जिसके चलते सांप्रदायिक तनाव, दंगे होते रहते हैं। सांप्रदायिक तनाव के
दौरान जहां कुछ लोगों की जान चली जाती है, वहीं सामाजिक ताने-बाने को भी
गहरा नुकसान होता है। धर्म के नाम पर फैली अशांति सामाजिक सद्भाव और
सौहार्द के लिए सबसे अधिक खतरनाक है। ऐसे में गंगा-जमनी तहजीब की बात करना
बेमानी-सा प्रतीत होता है। धर्म के नाम पर मानवीयता से खिलवाड़ बदस्तूर
जारी है। लोग सड़कों पर उतरते हैं, दंगे होते हैं, कुछ मौतों पर बहस होती
है, और फिर कुछ पल की शांति छा जाती है।
खबरें
हैं कि आने वाले दिनों में उत्तर प्रदेश में घर वापसी के नाम पर धर्मांतरण
के और भी कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। धर्मांतरण के मामले पहले भी देश के
विभिन्न हिस्सों में होते रहे हैं। केरल में 2006 से 2012 के बीच सात हजार
से ज्यादा लोगों का धर्म परिवर्तन किया गया था। परंतु किसी ने यह जनाने की
कोशिश नहीं की कि अब कैसे जी रहे हैं वे लोग? क्या धर्म परिवर्तन से उनकी
सामाजिक और आर्थिक हालत में सुधार हुआ? किसी को बेहतर जिंदगी का लालच देकर
धर्म परिवर्तन करना जायज नहीं ठहराया जा सकता। अगर कोई अपनी इच्छा से धर्म
परिवर्तन करे, तो यह उसकी निजी स्वतंत्रता है।
यहां
सवाल यह उठता है कि कोई समाज यदि किसी का धर्म परिवर्तन कर या करा रहा है,
तो क्या उस समाज में ऐसी व्यवस्था है कि वह बाहर से आए मेहमान को
स्वीकार कर सके और सभी उसके सामाजिक जीवन में सहभागी बन सकंे। क्या धर्म
परिवर्तन के बाद ऐसा समाज बनाया जा रहा है, जहां किसी के साथ कोई भेदभाव न
हो। यदि धर्म-परिवर्तन करने वालों के लिए अपनाए गए धर्म में कोई स्थान नहीं
होगा, तो उसे एक तरह से छल और धोखा ही कहा जा सकता है।
सवाल
यह भी है कि धर्म किसी व्यक्ति के सामाजिक और आर्थिक जीवन में कितना
महत्वपूर्ण है। भारतीय समाज में जाति की प्रधानता है। जिस देश में एक जाति
दूसरी जाति की लड़की या लड़के को विवाह के लिए स्वीकार नहीं कर पाती है,
वहां धर्मांतरण करके आए व्यक्ति का समाज में कैसा स्वागत होगा? हमारे देश
में हर जाति और धर्म की एक सीमा है, जिससे बाहर निकलकर ही किसी को अपनाया
जा सकता है। ऐसे में क्या ऐसी व्यवस्था बन सकती है कि जिन्होंने धर्म
परिवर्तन किया है, वे एक ऐसी नई जाति का गठन कर सकें, जो स्वयं अपने
सामाजिक जीवन के भागीदार हों। ऐसी संभावना न के बराबर ही दिखती है।
मसलन,
आगरा में धर्म परिवर्तन करने वाले परिवारों के सामने फिलहाल असमंजस की
स्थिति है। अब उन्हें न तो हिंदू माना जा रहा है और न ही मुस्लिम। ये लोग
अब निराशा और डर में डूबे हुए हैं। इनमें से कुछ आसमान की ओर हाथ उठाकर
अपने किए के लिए माफी मांग रहे हैं। हमारे देश के महान संतों ने धर्म के
बारे में कहा है कि सभी धर्मों का उद्देश्य एक हैा। आज हमारे देश में एक
ऐसे धर्म की जरूरत है, जो इंसान को इंसान बनना सिखाए। इंसान में इंसानियत
की बड़ी कमी महसूस हो रही है। आगरा वाले मामले ने यह साबित कर दिया है कि
हमारी व्यवस्था लोगों को बुनियादी सुविधाएं देने में विफल रही है, जिसका
फायदा कुछ असामाजिक तत्व उठा रहे हैं और वे विभिन्न तरह का प्रलोभन देकर
लोगों को धर्मांतरण के लिए उकसा रहे हैं। इस तरह के मामलों से समाज में
तनाव पैदा होता है। सरकार को विभिन्न दलों के नेताओं से विचार-विमर्श कर
धर्म परिवर्तन पर रोक लगाने के लिए कानून बनाना चाहिए।
आदित्य कुमार शुक्ला
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