नूतन वर्ष के स्वर्णिम प्रभात तुम्हारा स्वागत। अभिनंदन। वंदन। हम सब बिछाए हैं पलकें तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा में। इस अति संुदर बेला में दिल से निकलने वाले विचारों की तरणी, अपनी कलकल ध्वनि के माध्यम से कुछ कहने की उत्सुकता लिए तुम्हारा इंतजार कर रही है। वह कह रही है कि आओ कुछ पल के लिए मेरे पास सुनो मेरे अंतस की वाणी को...।
हे नवल वर्ष तुम्हारे स्वागत को चारों ओर हर्ष है, उत्साह है, कहीं शोर है तो कहीं खुद में गुनगुनाता संगीत। वहीं किसी अंधियारे में किसानों की आत्महत्या के बाद उनके परिवारीजनों की चीखों का साम्राज्य। इसके साथ ही किसी अजन्मे मासूम की असमय मौत की खामोशी। यही चीखें और खामोशी तुमसे कुछ कहना चाहती है। इस संसार में लाखों दिल ऐसे हैं जिनकी धड़कनें असमय ही शांत हो जाती हैं। एक किसान कर्ज के बोझ और परिवारिक जिम्मेदारी की चक्की में पिसकर जिंदगी से हार जाता है। वह किसान जो हमें अन्न देता है, हमारे खाने के साजोसमान जुटाता है, जब मौत का आलिंगन करने को रस्सी के फंदे पर झूल रहा होता है, तब उसे बचने या उसकी सहयता करने वाला कोई नहीं होता। मौत से एकाकार हुए इन किसानों के बिलखते मां-बाप, उनकी पत्नियों और उनके बच्चों की चीत्कारें कहना चाहती हैं तुमसे, कि हे नूतन सविता देवता! किसानों को इतना सक्षम बना कि मौत भी इनकी अनुमति मांगकर ही इनको अपने साये समेटे।
वहीं मां की बेवशी और तथाकथित सामाजिक लोगों की निर्दयता के कारण एक फूल खिलाने से पहले ही कुचल दिया जाता है। वह चीखता है, चिल्लाता है पर उसकी चीखें सुनने वाला कोई नहीं होता। वह अजन्मा गर पैदा होता तो शायद अपने परिवार, समाज और राष्ट्र का कर्णधार होता। ऐसे न जाने कितने शिशु प्रतिवर्ष मौत की नींद सुला दिए जाते हैं। इसलिए हे देव! तुम ही दे सकते हो भविष्य की माताओं को वह सक्षमता जिसके सहारे वे अपनी संतान को इस गगन के नीचे आने की अनुमति दें और उस मासूम की मुस्कान से उनका आंचल ही नहीं सम्पूर्ण धरा ही सुंगध से भर जाए।
एक मासूम जब खिलखिलाता है तो वह परमसत्ता का सबसे प्यारा वरदान होता है। इन्हीं मुस्कारते मासूमों के नाम कर दिया हम सबने अपना एक दिन, क्योंकि इस दिन हम उन्हें जानने का एक अनर्थक प्रयास करते हैं। लेकिन बाल मजदूरी, बाल तस्करी और निठारी कांडों के बढ़ते आंकडें कुछ ओर ही कहानी कहते हैं। इस समय बेमानी हो जाते है शिक्षा के अधिकार के आंकड़ें, जो हमें कुछ न कुछ तो सोचने को मजबूर करते है लेकिन यह सोच भी शाम के बढ़ते अंधेरे के साथ समाप्त हो जाती है। अगले दिन हम फिर से व्यस्त हो जाते हैं अपने आप में। जबकि सत्यता यह है कि इन बाल मजदूरों का भी हक बनता है कि वह स्कूल जाएं, पढ़ें-लिखें और अपने सपनों के माध्यम से इस विश्व वसंुधरा के सृजन का कार्य करें। हे नूतन गान! तुम्हें ही गाना होगा कोई ऐसा गीत, जो इन मासूमों के सपनों को पूरा सके।
हे नूतन सुबह की स्वर्णिम रश्मियों! इसके इतर एक ओर भी कहानी है। जिन युवाओं और किशोरों के कंधों पर हमारे परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व का भार है वह उलझ गया है। वह दिशाहीनता की उस खाईं की ओर बढ़ रहा है जिसमें गिरने के बाद वापस आना मुश्किल है। नशे, अपराध, व्यभिचार में लिप्त इन युवाओं को देखकर लगता है कि भौतिकता की आंधी ने इनके सारे संस्कारों और सदाचरण को भस्म कर दिया है। इंटरनेट, सोशल साइट्स का बढ़ता उपयोग इनके लिए घातक सिद्ध हो रहा है। ज्ञान के अथाह सागर में डुबकी लगाने वाले यह युवा आत्मज्ञान से दूर होते जा रह हैं। इनकी अपनी एक दुनिया है जहां ये खुद को राजा समझते हैं लेकिन ये वह राजा है जिनके पास अपना कुछ न है, इन आभासिक दुनिया के सिवा। प्रतिस्पर्धा के दौर में यह सब कुछ जल्द पा लेना चाहते हैं, इसके लिए इन्हें कोई भी राह क्यों न अख्तियार करनी पड़े। अपने लक्ष्य और पथ से भटकते ये युवा निरंतर काल के गाल मंे समाने की तैयारी कर रहे हैं। इसलिए तुमसे करवद्ध निवेदन इन भटकते युवाओं को सद्विचारों और वैचारिक शक्ति का आलोक प्रदान करो।
हम अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए सबकुछ दांव पर लगा बैठते हैं। परिवार, समाज और नौकरी के अंर्तद्वंदों के बीच फंसकर हमारी जिंदगी यूं ही गुजर जाती है। यही है आज के इस युग के मानव की कहानी। हम कभी अपने लिए समय नहीं दे पाते हैं लेकिन जब बुढ़ापा आता है तब विचार उठते हैं कि आखिर कुछ ऐसा क्यों नहीं किया जो हमें अंत समय में सुकून दे पाता। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और हमारे बेटे-बहुओं हमें भार समझने लगते हैं और घर से निकल देते हैं। शहरों में कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ रहे वृद्धाश्रम इसकी कहानी खुद व खुद बयान करते हैं। हमारे समाज का यह बहुत ही कड़वा सच है कि जो मां-बाप हमें पाल-पोष कर इस काबिल बनाते हैं कि हम समाज में सिर उठा सकें। हम उन्हीं मां-बाप को अपने दस कमरों के घर में भी जगह नहीं दे पाते। हम बचपन में जिनसे प्यार की अपेक्षा तो रखते हैं लेकिन बुढ़ापे के समय उन्हें प्यार नहीं दे पाते। समाज में प्रतिष्ठिता पाने का अभिमान हमें अपनों से दूर ले जाता है। जो बच्चा बचपन में मां-बाप के कपड़े गीला करता था, वह अब उनकी आंखें गीली करते वक्त भी कुछ भी नहीं सोचता। इसलिए हे नवल लालिमा लिए भगवन्! आप ही इन कलिमा युक्त विचारों के अंधियारे को समाप्त कर सकते हो। आज के मानव को आपके दिव्य प्रकाश की महती आवश्यकता है। हे सविता तुम ऐसे प्रकाशित हो कि समाज में फैला ये अन्यायपूर्ण साम्राज्य का तमस जल्द से जल्द नष्ट हो और मां-बाप को बेचारगी की देहरी पर अकेला छोड़ने वाली संतानें उन्हें भी अपना प्यार देने को तत्पर हों।
हे नवल विहान के सविता की स्वर्णिम रश्मियों! तुम बेटे-बहुओं-बेटियों को यह शिक्षा दो कि आपके आगमन के साथ वह अपने बूढे़ मां-बाप को कुछ देना सीख जाएं। जिससे उनका आशीर्वाद उन्हें मिले। युवाओं को सही राह दिखा दो। बच्चों को आकार देने के लिए साकार सामाज बना दो। बेवश की आग मे जलते लोगों को समर्थता प्रदान करो। बस आपसे यही विनती कि सम्पूर्ण विश्व वसुधा को ऐसा आशीर्वाद दो, जिससे हर प्राणी आपकी स्वर्णिम आभा से गौरवान्वित हा सके। इसलिए हे नवल सविता नववर्ष के हर क्षण को नया रूप देने के लिए हर आंगन में उतरती तुम्हारी लालिमा युक्त किरणों का हार्दिक स्वागत। अभिनंदन। वंदन।
यह लेख दैनिक भास्कर नोएडा में 1 जनवरी को विशेष पृष्ठों पर प्रकाशित हुआ है।
हे नवल वर्ष तुम्हारे स्वागत को चारों ओर हर्ष है, उत्साह है, कहीं शोर है तो कहीं खुद में गुनगुनाता संगीत। वहीं किसी अंधियारे में किसानों की आत्महत्या के बाद उनके परिवारीजनों की चीखों का साम्राज्य। इसके साथ ही किसी अजन्मे मासूम की असमय मौत की खामोशी। यही चीखें और खामोशी तुमसे कुछ कहना चाहती है। इस संसार में लाखों दिल ऐसे हैं जिनकी धड़कनें असमय ही शांत हो जाती हैं। एक किसान कर्ज के बोझ और परिवारिक जिम्मेदारी की चक्की में पिसकर जिंदगी से हार जाता है। वह किसान जो हमें अन्न देता है, हमारे खाने के साजोसमान जुटाता है, जब मौत का आलिंगन करने को रस्सी के फंदे पर झूल रहा होता है, तब उसे बचने या उसकी सहयता करने वाला कोई नहीं होता। मौत से एकाकार हुए इन किसानों के बिलखते मां-बाप, उनकी पत्नियों और उनके बच्चों की चीत्कारें कहना चाहती हैं तुमसे, कि हे नूतन सविता देवता! किसानों को इतना सक्षम बना कि मौत भी इनकी अनुमति मांगकर ही इनको अपने साये समेटे।
वहीं मां की बेवशी और तथाकथित सामाजिक लोगों की निर्दयता के कारण एक फूल खिलाने से पहले ही कुचल दिया जाता है। वह चीखता है, चिल्लाता है पर उसकी चीखें सुनने वाला कोई नहीं होता। वह अजन्मा गर पैदा होता तो शायद अपने परिवार, समाज और राष्ट्र का कर्णधार होता। ऐसे न जाने कितने शिशु प्रतिवर्ष मौत की नींद सुला दिए जाते हैं। इसलिए हे देव! तुम ही दे सकते हो भविष्य की माताओं को वह सक्षमता जिसके सहारे वे अपनी संतान को इस गगन के नीचे आने की अनुमति दें और उस मासूम की मुस्कान से उनका आंचल ही नहीं सम्पूर्ण धरा ही सुंगध से भर जाए।
एक मासूम जब खिलखिलाता है तो वह परमसत्ता का सबसे प्यारा वरदान होता है। इन्हीं मुस्कारते मासूमों के नाम कर दिया हम सबने अपना एक दिन, क्योंकि इस दिन हम उन्हें जानने का एक अनर्थक प्रयास करते हैं। लेकिन बाल मजदूरी, बाल तस्करी और निठारी कांडों के बढ़ते आंकडें कुछ ओर ही कहानी कहते हैं। इस समय बेमानी हो जाते है शिक्षा के अधिकार के आंकड़ें, जो हमें कुछ न कुछ तो सोचने को मजबूर करते है लेकिन यह सोच भी शाम के बढ़ते अंधेरे के साथ समाप्त हो जाती है। अगले दिन हम फिर से व्यस्त हो जाते हैं अपने आप में। जबकि सत्यता यह है कि इन बाल मजदूरों का भी हक बनता है कि वह स्कूल जाएं, पढ़ें-लिखें और अपने सपनों के माध्यम से इस विश्व वसंुधरा के सृजन का कार्य करें। हे नूतन गान! तुम्हें ही गाना होगा कोई ऐसा गीत, जो इन मासूमों के सपनों को पूरा सके।
हे नूतन सुबह की स्वर्णिम रश्मियों! इसके इतर एक ओर भी कहानी है। जिन युवाओं और किशोरों के कंधों पर हमारे परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व का भार है वह उलझ गया है। वह दिशाहीनता की उस खाईं की ओर बढ़ रहा है जिसमें गिरने के बाद वापस आना मुश्किल है। नशे, अपराध, व्यभिचार में लिप्त इन युवाओं को देखकर लगता है कि भौतिकता की आंधी ने इनके सारे संस्कारों और सदाचरण को भस्म कर दिया है। इंटरनेट, सोशल साइट्स का बढ़ता उपयोग इनके लिए घातक सिद्ध हो रहा है। ज्ञान के अथाह सागर में डुबकी लगाने वाले यह युवा आत्मज्ञान से दूर होते जा रह हैं। इनकी अपनी एक दुनिया है जहां ये खुद को राजा समझते हैं लेकिन ये वह राजा है जिनके पास अपना कुछ न है, इन आभासिक दुनिया के सिवा। प्रतिस्पर्धा के दौर में यह सब कुछ जल्द पा लेना चाहते हैं, इसके लिए इन्हें कोई भी राह क्यों न अख्तियार करनी पड़े। अपने लक्ष्य और पथ से भटकते ये युवा निरंतर काल के गाल मंे समाने की तैयारी कर रहे हैं। इसलिए तुमसे करवद्ध निवेदन इन भटकते युवाओं को सद्विचारों और वैचारिक शक्ति का आलोक प्रदान करो।
हम अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए सबकुछ दांव पर लगा बैठते हैं। परिवार, समाज और नौकरी के अंर्तद्वंदों के बीच फंसकर हमारी जिंदगी यूं ही गुजर जाती है। यही है आज के इस युग के मानव की कहानी। हम कभी अपने लिए समय नहीं दे पाते हैं लेकिन जब बुढ़ापा आता है तब विचार उठते हैं कि आखिर कुछ ऐसा क्यों नहीं किया जो हमें अंत समय में सुकून दे पाता। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और हमारे बेटे-बहुओं हमें भार समझने लगते हैं और घर से निकल देते हैं। शहरों में कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ रहे वृद्धाश्रम इसकी कहानी खुद व खुद बयान करते हैं। हमारे समाज का यह बहुत ही कड़वा सच है कि जो मां-बाप हमें पाल-पोष कर इस काबिल बनाते हैं कि हम समाज में सिर उठा सकें। हम उन्हीं मां-बाप को अपने दस कमरों के घर में भी जगह नहीं दे पाते। हम बचपन में जिनसे प्यार की अपेक्षा तो रखते हैं लेकिन बुढ़ापे के समय उन्हें प्यार नहीं दे पाते। समाज में प्रतिष्ठिता पाने का अभिमान हमें अपनों से दूर ले जाता है। जो बच्चा बचपन में मां-बाप के कपड़े गीला करता था, वह अब उनकी आंखें गीली करते वक्त भी कुछ भी नहीं सोचता। इसलिए हे नवल लालिमा लिए भगवन्! आप ही इन कलिमा युक्त विचारों के अंधियारे को समाप्त कर सकते हो। आज के मानव को आपके दिव्य प्रकाश की महती आवश्यकता है। हे सविता तुम ऐसे प्रकाशित हो कि समाज में फैला ये अन्यायपूर्ण साम्राज्य का तमस जल्द से जल्द नष्ट हो और मां-बाप को बेचारगी की देहरी पर अकेला छोड़ने वाली संतानें उन्हें भी अपना प्यार देने को तत्पर हों।
हे नवल विहान के सविता की स्वर्णिम रश्मियों! तुम बेटे-बहुओं-बेटियों को यह शिक्षा दो कि आपके आगमन के साथ वह अपने बूढे़ मां-बाप को कुछ देना सीख जाएं। जिससे उनका आशीर्वाद उन्हें मिले। युवाओं को सही राह दिखा दो। बच्चों को आकार देने के लिए साकार सामाज बना दो। बेवश की आग मे जलते लोगों को समर्थता प्रदान करो। बस आपसे यही विनती कि सम्पूर्ण विश्व वसुधा को ऐसा आशीर्वाद दो, जिससे हर प्राणी आपकी स्वर्णिम आभा से गौरवान्वित हा सके। इसलिए हे नवल सविता नववर्ष के हर क्षण को नया रूप देने के लिए हर आंगन में उतरती तुम्हारी लालिमा युक्त किरणों का हार्दिक स्वागत। अभिनंदन। वंदन।
यह लेख दैनिक भास्कर नोएडा में 1 जनवरी को विशेष पृष्ठों पर प्रकाशित हुआ है।
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