देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश, देश की सत्ता में अपनी हैसियत और भागीदारी के लिए एक अलग पहचान रखता है। देश के प्रधानमंत्री के बाद उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री की हैसियत सबसे अधिक दिखाई देती है। इसी हैसियत के कारण यह प्रदेश कई कद्दावर नेताओं की कर्मभूमि के साथ कई तरह के विवादों का केन्द्र बिंदू भी रहा। जिसमें से रामजन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद विवाद के हम सब गवाह रहे हैं। वर्तमान में इस प्रदेश में एक नए तरह के विवाद को तूल दिया जा रहा है, वह है सपा बनाम बसपा विवाद। विगत वर्षों में यदि उत्तर प्रदेश की राजनीति का यदि सूक्ष्म विश्लेषण किया जाए तो हम पाएंगे कि यहां की राजनीति भावुकता की राजनीति हो गई है। इसलिए इस तरह के विवाद प्रदेश के लिए कितनी घातक सिद्ध हो सकते है वह यहां के एक लाख से अधिक गांवों में निवास करने वाली जनता इस मर्म को अच्छी तरह से समझती है।
2007-2012 तक प्रदेश में बसपा सरकार में की मुख्यमंत्री रहीं सुश्री मायावती ने सपा को नीचा दिखने तथा दलित महापुरूषों के नाम को ऊंचा दिखाने के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी और प्रदेश की जनता का अरबों रूपया पार्कों और स्मृति स्थलों के नाम पर लुटा दिया। इसके साथ ही बसपा सरकार ने लोहिया जैसे समाजवादी चिंतको नाम पर चलाई जा रही योजनाओं कुछ योजनाओं को भी किनारे कर दिया। 2012 में सपा को पुनः जनाधार मिला है, तो नई समाजवादी सरकार ने बसपा सरकार से द्वारा दलित महापुरूषों के नाम पर शुरू की गई सामाजिक क्षेत्र में बदलाव के अलावा स्मारकों और पार्कों में होने वाले खर्च में कटौती के साथ-साथ इनके मूलभूत ढांचें में परिवर्तन का मन बना लिया है। जिससे एक नए तरह के विवाद की आंधी प्रदेश में चल पड़ी है।
इसी कारण बाबा साहब आंबेडकर की इसी जंयती पर पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने लखनऊ में सामाजिक प्रेरणा स्थल पर चेतावनी दी कि अगर पार्कों और मूर्तियों से छेड़छाड़ की जाएगी तो कानून और व्यवस्था के समाने संकट खड़ा हो जाएगा और उसका खमियाजा पूरा प्रदेश भुगतेगा। प्रदेश को मौजूदा मुख्यमंत्री को यह बात हल्के में नहीं लेनी चाहिए क्योंकि इस परिप्रेक्ष्य में नब्बे के दशक में घटी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि को अपवित्र करने की घटना को देख सकते हैं। हालांकि प्रदेश में बसपा की राजनीति इस तरह की नहीं रही है, उसने सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का नारा बुलंद किया, लेकिन बीते वर्षों में बसपा सरकार ने बाबा साहब, कांशीराम के साथ मायावती की मूर्तिंयां लगवाकर प्रदेश को एक प्रतीकवाद की राजनीति के चैराहे पर लाकर खड़ा कर दिया। हद तो तब हो गई जब इन स्मारकों और मूर्तिंयों को लगवाने के लिए संसाधन जुटाने के लिए लोकतांत्रिक मर्यादा और कानून को ताक पर रख दिया। इस सारे खेल में पैसा का गमन तो हुआ ही साथ ही एक नए तरह की राजनीति का जन्म हुआ जिसमें भावुकता ज्यादा और विकास की बात कम होती दिखाई दी। अब यदि इन पार्कों को कोई हस्तक्षेप करेगा तो बसपा सरकार के रहनुमाओं को दर्द तो होगा ही।
यह बात तो साफ है कि वर्तमान में न तो सपा के तेवर ठीक दिख रहे हैं और न ही बसपा के, लेकिन नए मुख्यमंत्री को इस तरह के विवाद का हल खोजना होगा। विवाद की राजनीति के तवे पर रोटी सेंकने वाले लोगों की दलीलों से दूर रहकर लोहियावादी दृष्टिकोण अपना होगा। अन्यथा प्रदेश फिर से मंदिर-मस्जिद विवाद की तरह, सपा बनाम बसपा के विवाद की आग में जल उठेगा।
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