जुलाई 16, 2012

इक्कीसवीं सदी का यह चेहरा


पिछले कुछ ही दिनों में हुई विभिन्न घटनाओं से एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आखिर इस देश में महिलाएं कहां सुरक्षित हैं!
शायद ही किसी ने विकसित होते भारतीय समाज के इस भयावह तसवीर की कल्‍पना की होगी। कुछ ही दिनों के भीतर हुई घटनाओं, असम में एक लड़की के साथ अमानवीयता, लखनऊ के थाने में एक महिला के साथ बलात्कार की कोशिश, बागपत में खाप पंचायत का चिंतित करने वाला फरमान, विश्‍व भारती में पांचवीं कक्षा की छात्रा को पेशाब पिलाने की सजा, पश्चिम बंगाल में क्‍लास में एक बच्ची को नंगा किए जाने जैसी घटनाओं से लगता है कि देश कई सदी पीछे की ओर छलांग लगा चुका है। आधी आबादी की यह दुर्गति शर्मनाक ही नहीं, समाज के चेहरे पर काला धब्बा भी है। इन घटनाओं ने समाज, सत्ता-व्यवस्था, पुलिस-प्रशासन और मीडिया सबको बेनकाब कर दिया है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि आज भी कुछ लोग महिलाओं के खिलाफ हुई इन घटनाओं पर चुप्पी साधे हुए हैं।
गुवाहाटी की घटना ने पूरे देश को शर्मसार किया है। अकेली लड़की के साथ आधे घंटे तक अमानवीय व्यवहार करने वाले लड़के तो दोषी हैं ही, घटना को मूक दर्शक बनकर देखते रहने वाले लोग भी कम गुनहगार नहीं हैं। मीडिया द्वारा उस वीडियो क्लिंपिंग का बार-बार प्रसारण भी कम शर्मनाक नहीं है। अगर वहां मीडियाकर्मी मौजूद थे, तो उन्हें लड़की को बचाने की कोशिश करनी चाहिए थी। क्या मीडिया का सरोकार आज केवल किसी सनसनीखेज घटना का प्रसारण कर टीआरपी बटोरना ही रह गया है? दरअसल यह हमारे समाज के पतन का सुबूत है। हमारे समाज में आज भी पुरुष वर्चस्ववादी मानसिकता हावी है, जिसके लिए महिलाओं के सम्मान का कोई मूल्य नहीं है।
उत्तर प्रदेश में युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की सरकार बनने से लोगों में उम्मीद बंधी थी कि अब प्रदेश की शासन-व्यवस्था में सुधार आएगा, लेकिन लोगों की यह उम्मीद धूमिल होती नजर आ रही है। बागपत में महिलाओं के खिलाफ खाप पंचायत का अलोकतांत्रिक फरमान और लखनऊ में थाने में ही एक महिला की इज्जत पर धावा साफ दर्शाता है कि मौजूदा प्रदेश सरकार कानून व्यवस्था को सुधारने में विफल साबित हो रही है। लेकिन केवल सरकार को ही दोष क्यों दें, सहारनपुर के सरसांवा में तो एक लड़की की इज्जत घर में भी महफूज नहीं रही। एक बार फिर यह सवाल उठता है कि आखिर हमारे देश में एक महिला कहां सुरक्षित है। न घर, न बाहर, न स्कूल में और न ही सरकारी थाने में। क्या विद्रूप है कि जिन शिक्षकों को बच्चों के भविष्य का निर्माता बनना था, उन्होंने ही बच्चियों के भविष्य को तार-तार कर उन्हें ऐसा गहरा जख्म दिया, जिनसे उबर पाना उनके लिए मुश्किल होगा। समाज का दानवी चेहरा दिखाने वाली ये घटनाएं बताती है कि हमारा देश वाकई कायरों और कूपमंडूकों का देश बन गया है।
क्राइम रिकॉर्ड ब्‍यूरो के आंकड़ों की मानें, तो बीते वर्ष 2011 में महिलाओं के प्रति हुए कुल 2,28,650 अपराध दर्ज किए गए। जिसमें अपहरण के 35,565, छेडछाड़ के 42,968, यौन उत्‍पीड़न के 8,570, सगे-संबंधियों द्वारा अमानवीय व्‍यवहार के 99,135 एवं लड़कियों की खरीद-फरोख्‍त के 80 मामले शामिल हैं। 1971 से 2011 तक बलात्‍कार के मामलों में 873.3 फीसदी (1971 में 2,487, जबकि 2011 में 24,206 मामले) की वृद्धि दर्ज की गई। ये सरकारी आंकड़े हैं, वास्तविक स्थिति इससे कहीं भयानक है। आर्थिक महाशक्ति बनने की आकांक्षा रखने वाले देश में महिलाओं के खिलाफ बेकाबू होता अपराध किसी भी लिहाज से ठीक नहीं है।
जिस देश की बेटियां आज दुनिया भर में नाम रोशन कर रही हैं, वहां ऐसी विकृतियां शोभा नहीं देतीं। अगर हमें अपनी बहन-बेटियों के सम्मान की रक्षा करनी है, तो उसके सम्मान को चोट पहुंचाने वालों के खिलाफ कठोर कदम उठाने ही होंगे। इसके लिए सबसे पहले हमें अपनी मानसिकता बदलनी होगी और महिलाओं का सम्मान करना सीखना होगा। क्या हम तैयार हैं! 
काम्‍पेक्‍ट अमर उजाला में प्रकाशित आलेख, लिंक देखें-


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