प्रेम का अर्थ है किसी अस्तित्व
को इस कदर टूटकर चाहना कि उसके अस्तित्व में ही अपनी हर ख्वाहिश का रंग घुलता हुआ
महसूस हो। यही प्रेम है जो रामकृष्ण ने मां शारदामणि से किया, यही वह प्रेम है जिसने
राधा-कृष्ण को विवाह बंधन में न बंधने के बाद पूज्य बना दिया। प्रेम परमेश्वर का
रूप है, एक
समर्पण है, यहां आकर्षण का लेशमात्र भी नहीं। जीवन में प्रेम आते ही आत्मीयता, सहकारिता और सेवा की
उमंगें खुद-ब-खुद हिलोंरे मारने लगती है। जैसे-जैसे प्रेम पवित्र होता है, वैसे-वैसे प्रेमी अपने
प्रियतम (आराध्य) के हृदय में समाता चला जाता है, तभी तो मीरा, सूर, कबीर जैसे प्रेमियों का
जन्म होता है। सच्ची श्रद्धा की परिणति है प्रेम और यह पवित्रता से पूर्ण होता है।
प्रेम की खुशबू से वातावरण महक
रहा है। प्रकृति का कण-कण प्रेमासिक्त हो अपने देवता के चरणवंदन कर रहा है। इसी
बीच ‘वेलेंटाइन
डे’ का आना
मानो ऐसा लगता है कि यह सब सदियों से निर्धारित रहा होगा। लेकिन ‘वेलेंटाइन डे’ का इतिहास तो ज्यादा
पुराना नहीं है! हां परंतु इस दिन के साथ जुड़ा शब्द ‘प्रेम’ सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही
उत्पन्न हुआ और इसके खात्मे पर ही अलविदा होगा। यही वह शब्द है जिसके सहारे प्रेमी,
परमात्मा को
प्रकृति के कण-कण में महसूस करने लगता है। उसे कुछ भी पराया नहीं लगता, वह बन जाता है सम्पूर्ण
विश्व का मित्र। सबका दुःख दर्द उसे अपना लगने लगता है।
परंतु बदलते वक्त ने जीने के
मायने बदल दिए। ऐसे में सोच, संबंध और मूल्यों का बदलना तो जायज़ ही था। अब इस बदलते दौर
में प्रेम भी कैसे अछूता रहता। बदल गया मन की वीणा का राग। कहानी, कविताओं, उपन्यासों और पुरानी
फिल्मों में देखा गया प्रेम गुजरे जमाने की बात हो गया। प्रेम अब भावना नहीं रहा।
वैश्वीकरण की संस्कृति ने ‘प्रेम‘ को हृदय से निकालकर चैाराहे पर ला पटका और प्रेम गमले में
उगने वाले उस पौधे सा गया, जिसे गिफ्टस, डेटिंग, कामना और वासना के पानी से प्रतिपल सींचना पड़ता है।
नहीं तो वह मुरझा जाएगा। खो गई प्रेम की गहराई और इसकी गरिमा। प्रेम की पवित्रता
का लोप हो गया और यह बन गया सिर्फ एक ‘वेलेंटाइन डे’ को सफल बनाने का जरिया। वर्तमान
की तेज दौड़ने वाली जि़दगी में प्रेम की दुकानें सजने लगी। जहां प्रेमोपहारों के
नाम पर लोगों को ठगा जाने लगा। धीरे-धीरे प्रेम मशीनी हो चला। जिन मानवीय संबंधों
की दुहाई देते हम थकते से नहीं थे। उन एहसासों के स्तर पर हमने सोचना बंद कर दिया।
प्रेम में सर्वस्व अर्पण करने की परंपरा विलुप्त होने लगी और प्रेम लड़ने लगा अपना
अस्तित्व बचाने के लिए। प्रेम आकर्षण से आकर देह पर टिक गया है और सामने आया प्रेम
का विकृत रूप। प्रेम फैशन बन गया। इसी कारण ‘वेलेंटाइन डे’ के दिन हजारों ऐसी खबरें
सुर्खियां बनती हैं जो हमें सोचने को मजबूर करती हैं कि हम किस दलदल में फंसते चले
जा रहे। बाजारीकरण के युग में प्रेम भी बाजारू हो चला है। प्रेम के लिए ऐसा कहना
शर्मनाक है लेकिन यर्थाथता यही है। एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग अपने प्रेमी को एक
पत्र में लिखती हैं- अगर मुझे तुम प्यार करना चाहते हो तो सिर्फ प्यार करो,
किसी और चीज के
लिए नहीं। यह मत कहो कि...मैं उसकी मुस्कराहट को प्यार करता हूं...उसके रूप
को...उसके बोलने के नर्म अंदाज को, क्योंकि ये विचार किसी खास दिन मेरे विचारों के साथ बड़ी
खूबी से समन्वित हो उस दिन को खूबसूरत बना सकते हैं-लेकिन मेरी जान ये सब चीजें
बदल भी सकती हैं और प्रेम को नष्ट भी कर सकती हैं या नहीं भी। ब्राउनिंग का यह
कहना सर्वथा उचित है क्योंकि दैहिक प्रेम को कब तक जिया जा सकता है। ऐसा प्रेम देह
की सुंदरता समाप्त होते ही समाप्त हो जाएगा। काश! ये बदले जमाने का प्रेम धरती पर
उगने वाला वटवृक्ष बन, पाताल तक अपनी जडे़ं पहुंचा पाता और जन्म-जन्मांतरों तक
अटल-निश्चल इस धरा की शोभा बढ़ता।
आज के इस भौतिकतावादी युग में
संवेदना और विश्वास की परिपाटी का लोप हो रहा है और प्रेम का भरे बाजार वासना और
कामना के हाथों चीरहरण हो रहा है, ऐसे में जरूरत है बदलाव की। जो प्रेम को बाजारी चमक-दमक में
खोने से बचा ले। हम प्रेम में निहित संवेदना, गरिमा और इसकी आंतरिक गहराई को
पहचानें। जिस दिन हम सब प्रेम का असली मर्म समझ लेंगे, उसी दिन से मनुष्य अपनी
संकीर्णताओं से निकलकर बिना शर्त के प्रेम करेगा। तभी धरती भी प्रेम के रस में
डूबकर नृत्य कर उठेगी और बंजर होती प्रेम की खेती हो हम बचा सकेंगे। ऐसे में
सार्थक होंगी कविवृंद की ये पक्तियां-जैसो बंधन प्रेम कौ, तैसो बंध न और।
अमर उजाला काम्पेक्ट में 14 फरवरी को पृष्ठ 12 संपादकीय में प्रकाशित हुआ है। http://compepaper.amarujala.com/svww_index.php