उत्तर प्रदेश में चुनाव के पहले चरण के शानदार आगाज के साथ यह अटकलें और भी तेज हो गई हैं कि मुख्यमंत्री का सिंहासन किस पार्टी के हाथ लगेगा? बुधवार को कड़ी सुरक्षा के बीच हुए पहले चरण में 10 जिलों सीतापुर, बाराबंकी, फैजाबाद, अम्बेडकर नगर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, गोंडा, सिद्धार्थनगर और बस्ती की 55 सीटों के मतदान में लगभग 64 फीसदी मतदाताओं ने मताधिकार का प्रयोग किया। इसके साथ ही 862 उम्मीदवारों की किस्मत ईवीएम में बंद हो गई। 2007 के चुनाव में यहां यह संख्या 50 फीसदी से भी कम थी। इन्द्रदेव ने बारिश के माध्यम से मतदाताओं के हौसले को परखना चाहा लेकिन मतदाताओं ने सभी रिकार्ड ध्वस्त करने की ठानी थी। प्रदेश को अच्छी सरकार देने का सपना संजोये मतदाताओं ने सभी आजादी के बाद के रिकार्ड ध्वस्त करते हुए सर्वाधिक मतदान किया।
यूपी को देश की जान है। यहां किसी पार्टी की कामयाबी का मतलब होता है, केंद्र सरकार की राजनीति में मजूबत दखलंदाजी। इसीलिए 2012 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की चारों बड़ी पर्टियों भाजपा, बसपा, सपा और कांग्रेस यहां एड़ी से चोटी का जोर लगा रही हैं। उत्तर प्रदेश का चुनाव देश की राजनीति में अहम भूमिका निभाता है। यहां उठाती सियासी गर्म हवाओं की तपन दिल्ली तक महसूस की जाती है। उत्तर प्रदेश की राजनीति ने कई उतार चढ़ाव देखे हैं। आजादी की क्रांति के बाद भारत की विकल्प से मरहूम राजनीति में जनता का केवल एक ही सहारा था, काग्रेंस। इसके पश्चात हुई, हरित क्रांति ने क्षेत्रीय पर्टियों के लिए जमीन तैयार की और जनता के समक्ष विकल्पों की भरमार हो गई। इन्हीं विकल्पों में अपना सच्चा हितैषी तलाशते-तलाशते जनता ने अपना अस्तित्व ही खो सा दिया। चंद लोगों के जनाधार के सहारे सरकारें बनी और उन्होंने प्रदेश को जमकर लूटा। यहां हर पार्टी ने अपने पैर जमाने के लिए नए-नए पैंतरे अपनाए। किसी ने जातिवाद का सहारा लिया, किसी ने हिन्दुत्व का तो किसी ने सोशल इंजीनियरिंग, तो कोई समाजवाद और अल्पसंख्यक राजनीति के सहारे सत्ता तक पहुंचने का रास्ता बनाने लगा। जो भी आया बस अपना पेट भरकर चला गया। जनता बेचारी, न तो इधर की रही, न उधर की।
भ्रष्टाचार, अनाचार और दुराचार की मार से आहत जनता के सामने कोई विकल्प ही नहीं था कि 2012 के चुनाव में किस पार्टी को सौंपी जाय उत्तर प्रदेश के भाग्य की चाबी। अन्ना आंदोलन ने जनता को जगाने का काम किया। नए-नए घोटालों के खुलासे ने पर्टियों का कच्चा चिठ्ठा जनता के समाने खोल दिया। नेताओं की तू-तू, मैं-मैं और खोखले चुनावी वादों की असलियत जनता पिछले कई दशकों से देख रही थी। इसलिए अब इन पर भरोसा करना भी लाजिमी न था। इस बार भी पर्टियां ने अपने वादों के हथकंडे अपनाए, किसी ने बिजली की बात की तो किसी ने लैपटॉप की। लेकिन जनता के मन में क्या है ये कोई नहीं जान पाया। मणिपुर, पंजाब और उत्तराखंड के मतदान में मतदाताओं ने इस बार अपने इरादों से परिचित करवा ही दिया था। इसके बाद उत्तर प्रदेश के पहले चरण में भी मतदाताओं ने जोशोखरोश से मतदान किया मगर मतदाताओं का बढ़ा हुआ प्रतिशत कई सवाल छोड़ कर गया है। क्या यह बदलाव के संकेत हैं ? क्या जनता जागरूक हो चुकी है? किसको समझा है जनता ने अपना रहनुमा? कौन होगा प्रदेश का राजा? ऐसे कई सवाल जिसने पार्टियों और राजनीतिक चिंतकों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। अभी प्रदेश में सात चरणों का चुनाव होना बाकी है। अगर मतदाताओं का आंकड़ा ऐसा ही रहा तो यह निश्चित ही यह एक बड़े बदलाव का सूत्रधार होगा और उत्तर प्रदेश तथा देश की राजनीति के लिए शुभ संकेत छोड़कर जाएगा।
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