पिछले दस दिनों से बहुत ही भयावह स्थिति से
गुजर रहा हूं। ठीक से नींद नहीं आ रही। डरा सा हूं। सहमा सा हूं। ऐसा डर ऐसी
स्थिति मैने अपने इस अल्प जीवनकाल में कभी नहीं देखी। हिंदूत्व की विचारधारा में
पला-बढ़ा, विद्यामंदिर से शिक्षा ग्रहण की जहां देशभक्ति का पाठ खूब पढ़ाया जाता
है। 15 अगस्त और 26 जनवरी या कहीं भी जब भी तिरंगा फहरते देखता हूं तो रोम-रोम
पुलकित हो जाता है। 2 अक्टूबर को लालबहादूर शास्त्री के जीवन संस्मरण सुनकर
अपने आसूं रोक नहीं पाता वहीं कलाम जी के जाने पर खूब रोता हूं। भगत को पढ़ता हूं
तो कामना करता हूं कि बेटा हो तो भगत जैसा। भारत माता पर बलिदान हुए सपूतों की
कहांनियां आंखों में आंसू ला देती हैं। जमीन से जुड़ा हर मुद्दा सिसकने पर मजबूर
कर देता है।
मैं किसी विचारधारा विशेष का समर्थक नहीं
हूं। मीडिया पढ़ता हूं इसलिए पढ़ना पड़ता है, सबको पढ़ता हूं, हर विचारधारा को
चाहें वह किसी भी तथाकथित वाद से प्रेरित हो। हर विचारधारा में अपनी अच्छाई हैं,
अपनी बुराईयां। परंतु जिस तरह का माहौल पिछले दिनों बनाया गया, उसे देखकर, सुनकर
ऐसा नहीं लगा कि मेरे यह कोई भी तर्क मेरे देशभक्त होने का प्रमाण है। जेएनयू
प्रकरण पर जो हुआ उस पर खूब बहस हुई, देश के खिलाफ नारे किसी भी सच्चे भारतवासी
को बर्दाश्त नहीं हो सकते। लेकिन जब से देख रहा हूं सब कुछ पहले से रचा रचाया लग
रहा है। मीडिया और राजनीति का रंगमंच सजा है, जिसकी कहानी पहले ही लिखी जा चुकी
है।
कब नारे लगने हैं। कब वीडियो दिखाना है। कब
देशद्रोही का तमागा दिया जायेगा। देश में खलबली मचेगी। कब पुलिस किसी को गिरफ्तार
करेगी। कब कौन सी पार्टी का नेता जेएनयू पहुंचेगा। कब पटियाला हाऊस कोर्ट में बवाल
होगा। कब एबीवीपी के 3 कार्यकर्ता इस्तीफा देंगे। कब देश के सर्वोच्च चिन्ह
तिरंगे का राजनीतिकरण किया जायेगा। कब वीडियो के फर्जी होने की बात सामने आयेगी।
कब केरल में आरएसएस के कार्यकर्ता की हत्या होगी। कब जादवपुर भी जेएनयू के साथ
खड़ा हो जायेगा। कब पटियाला हाउस कोर्ट में वकील ही जज की भूमिका में आ जायेंगे।
कब मेक इन इंडिया के पंडाल में आग लगेगी। कब किसी को गालियों और गोलियों के लिए
कहा जायेगा। कब कौन सा प्रवक्ता टीवी पर क्या बोलेगा। कब जेएनयू बचाओ रैली
निकाली जायेगी। कब यूनिटी मार्च होगा। कब सोनी सोरी पर हमला होगा। सबकुछ पहले से
निर्धारित सा लग रहा है। कब टीवी अंधा हो जायेगा। सबकुछ ऐसे हो रहा है मानों दोनों
ओर से पहले ही कहानी लिखी जा चुकी है, मंचन चल रहा है, किरदार वही पुराने हैं लेकिन
उनके दायित्व बदल चुके हैं। सूचना के सर्वोच्च साधन टीवी से सूचना गायब है।
लोकतंत्र का चौथे खंभा, बाकी बचे तीनों खंभों की जिम्मेदारी संभाल रहा है।
लोकतंत्र अपंग हो चुका है। भीड़ और मीडिया देश की दिशाधारा तय करने लगी है। प्रवक्ताओं
के कहने ही क्या देश को राज्यवाद और राष्ट्रवाद में उलझा रहे हैं। इसी बीच ये
भी पता चलता है कि किसान फैशन में आत्महत्या करते हैं। कई मुद्दे हैं, कई सवाल
हैं, पर जबाव नदारद है। दोनों ओर के लोग एक दूसरे को सबक सिखाने पर आमादा हैं।
सोशल मीडिया इसमें महत्ती भूमिका अदा कर रहा है। जैसे रंगमंच में लाइटिंग की होती
है। कब किस पात्र पर फोकस करना है, यह सोशल मीडिया पर तय हो रहा है। देश के 15
फीसदी से भी कम टेक्नोसेवियों का अड्डा सोशल मीडिया, देश की 100 फीसदी जनता का फोकस
तय कर रहा है। खुले पत्र लिखने की होड़ मची है, कोई प्रधानमंत्री को लिख रहा है,
तो कोई पत्रकारों को।
हम भारतीय भी इस रंगमंच में किरदार बनते जा
रहे हैं। पहले दर्शक बने, फिर भावना उमड़ी और हम भी किरदार की भूमिका में हैं।
रंगमंच में भी यही होता है। मीडिया, सत्ता के गठजोड़ में आम आदमी जाये भी तो कहां
जाये। 1 अरब 25 करोड़ आबादी वाले देश में, 1 करोड़ से भी कम लोग देश के हर नागरिक
के प्रवक्ता बन बैठें हैं। ये कैसा दौर है, ये कैसा समय हैं। जहां देश के सबसे
सम्पन्न राज्यों में गिना जाने वाला हरियाणा, आरक्षण की आग झेल रहा है। इसके
असर अन्य राज्यों में दिख रहे हैं। देश किस दिशा में जा रहा है। उत्तर कौन
देगा। क्या ऐसे ही भारत विश्व गुरू बनेगा। अगर यही स्थिति रही है तो देश में आग
लग जायेगी, जब देश जलेगा तो लाशों का न तो कोई धर्म होगा, न कोई वाद। ऐसी स्थिति में
देश को जाने से बचा लो।
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