फ़रवरी 23, 2016
खंड-खंड होता बुंदेलखंड

हाल ही में बुंदेलखंड को पास से देखने का मौका मिला। दूर-दूर तक जहां
तक नज़र जा सकती है, वहां तक देखो, बंजर पड़ी खेती यहां की कहानी खुद ही बंया करने
लगती है। हरियाली का नामोनिशां नहीं है। गांव के गांव खाली हो रहें, लोग पलायन कर
रहे हैं। जो यह नहीं कर सकते वह जिंदगी से पलायन का फैसला कर लेते हैं। बुदेलों की
यह धरती जो वीरता और गौरव की गाथाओं से भरी पड़ी है, वहां आज दुर्दशा के गीते
सुनायी देते हैं। झांसी के खिसनी बुजुर्ग गांव में 3300 एकड़ जमीन है, सूखे के
कारण यहां 100 एकड़ में भी अनाज नहीं उपजाया जा सका। किसानों पर बैंको का करोड़ों
रूपया बकाया है, आंकड़े बताते हैं कि बुंदेलखंड के लगभग 14 लाख किसानो पर सरकारी
बैकों का एक हजार करोड़ से ज्यादा रूपया बकाया है। यहां पीने के पानी की उपलब्धता
न के बराबर है, लोग नालों का पानी पीकर अपनी प्यास बुझा रहे हैं। सरकार घोषणायें
तो करती है, लेकिन इस नसूर बन चुके सुखे के जख्म को त्वरित की मदद की आवश्यकता
होती है। ऐसे में सरकारी मशीनरी की लेटलतीफी के चलते यह जख्म किसानों को निगलता
जा रहा है। आंकड़ों की माने तो यहां बीते 6 सालों 4 हजार से ज्यादा किसानों न आत्महत्या
या आत्मदाह किया है। यह तो सिर्फ आंकड़ें हैं, कई मौतें तो इसमें रिकार्ड ही नहीं
होती। इन मौतों का जिम्मेदार किसे मानें, कर्ज, सूखा या भूख को। फिर सबकुछ एक साथ
आ जाये तो क्या होगा। हाल ही में एक किसान ने उस दिन चौराहे पर आत्मदाह कर लिया
जब देश के प्रधानमंत्री किसानों से मन की बात कर रहे थे। कारण था फसल का मुआवजा न
मिलना। वह बच गया उसका इलाज चल रहा है। लेकिन हैरत तो तब होता है जब सरकारी मशीनरी
का कोई भी मुलाजिम उसे देखने तक नहीं पहुंचा। ऐसे में मन की बात केवल और केवल
खयाली पुलाव भर नज़र आते हैं।
देश की राजनीतिक दृष्टि से देखें तो बुंदेलखंड खासी अहमियत रखता है।
फिर चाहें वह प्रादेशिक राजनीति हो यह देशिक राजनीति। इसीलिए बुंदेलखंड को अलग
राज्य बनाने की मांग भी उठती रहती है। परंतु इस क्षेत्र के लिए सरकार द्वारा किये
गए प्रयासों को देखा जाये तो वह नकाफी नज़र आते हैं क्योंकि धरातल पर
उतरते-उतरते वह प्रयास भ्रष्टाचार का शिकार हो गए। यदि प्रयासों के सही क्रिन्यावयन
की व्यवस्था सरकार ने कर दी होती तो स्थिति इतनी भयावह नहीं होती। न तो यहां
किसी समस्या का निष्पक्ष आंकलन होता है और न ही सही रिपोर्ट ऊपर तक पहुंचती है।
सही सोच और देशज नजरिया सबकुछ बदल सकता है।
कभी जल, जंगल और जमीन के सौंदर्य से भरपूर बुंदेलखंड आज कराह रहा है,
इसके लिए सरकार को वृहद योजनायें बनाने की बजाय छोटे-छोटे स्तर तक जाकर काम करना
होगा। घावों पर संवेदना का मरहम तभी लगाया जा सकता है, जब हम मरीज के पास जायें।
बुंदेलखंड को पैकेज के साथ-साथ भाव संवेदना की भी आवश्यकता है। यहां संवाद की
जरूरत है, संवाद उन किसानों से जो जिंदगी की जंग को हारने की तैयारी कर रहा है। बुंदेलखंड
को संजीवनी की आवश्यकता है, इसके लिए अलग राज्य बनाने की आवश्यकता नहीं है।
समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेदारी से यदि कार्य किया जाये तो बन सकती है। आल्हा,
उदल, बुंदेलों, चंदेलों और झांसी की रानी के इस इलाके जनमानस को भी एकजुट होकर
प्रयास करना होगा खुद की दशा सुधारने के लिए। खुद का किया गया पुरूषार्थ ही आखिर
में काम आता है।
कहते हैं कि वक्त और भूखमरी की मार जब सवाल करती है तो कोई भी जबाब
हो नकाफी नज़र आता है। बुंदेलखंड के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। यहां एक बार फिर सूखा पड़ा है। न खाने को
रोटी है और न पीने को पानी। ऐसी अवस्था में बड़े-बड़े राहत पैकेज बोने पड़ जाते
हैं। कुछ रोज पहले खबरों में बुंदेलखंड का खूब बोलबाला रहा, अब गायब है। क्योंकि
खबर तो खबर है कुछ देर चलती है फिर गिरा दी जाती है, तर्क आता है लगातार दुर्दशा
दिखाने से भी निराशा ही हाथ लगती है। ऐसे में लगातार 3 और 1987 से अबतक 19 सूखे
झेल चुका बुंदेलखंड अपनी आप बीती सुनाये भी तो किसे। ऐसे में बुंदेलखंड खंड-खंड
होता जा रहा है।
हाल ही में बुंदेलखंड को पास से देखने का मौका मिला। दूर-दूर तक जहां
तक नज़र जा सकती है, वहां तक देखो, बंजर पड़ी खेती यहां की कहानी खुद ही बंया करने
लगती है। हरियाली का नामोनिशां नहीं है। गांव के गांव खाली हो रहें, लोग पलायन कर
रहे हैं। जो यह नहीं कर सकते वह जिंदगी से पलायन का फैसला कर लेते हैं। बुदेलों की
यह धरती जो वीरता और गौरव की गाथाओं से भरी पड़ी है, वहां आज दुर्दशा के गीते
सुनायी देते हैं। झांसी के खिसनी बुजुर्ग गांव में 3300 एकड़ जमीन है, सूखे के
कारण यहां 100 एकड़ में भी अनाज नहीं उपजाया जा सका। किसानों पर बैंको का करोड़ों
रूपया बकाया है, आंकड़े बताते हैं कि बुंदेलखंड के लगभग 14 लाख किसानो पर सरकारी
बैकों का एक हजार करोड़ से ज्यादा रूपया बकाया है। यहां पीने के पानी की उपलब्धता
न के बराबर है, लोग नालों का पानी पीकर अपनी प्यास बुझा रहे हैं। सरकार घोषणायें
तो करती है, लेकिन इस नसूर बन चुके सुखे के जख्म को त्वरित की मदद की आवश्यकता
होती है। ऐसे में सरकारी मशीनरी की लेटलतीफी के चलते यह जख्म किसानों को निगलता
जा रहा है। आंकड़ों की माने तो यहां बीते 6 सालों 4 हजार से ज्यादा किसानों न आत्महत्या
या आत्मदाह किया है। यह तो सिर्फ आंकड़ें हैं, कई मौतें तो इसमें रिकार्ड ही नहीं
होती। इन मौतों का जिम्मेदार किसे मानें, कर्ज, सूखा या भूख को। फिर सबकुछ एक साथ
आ जाये तो क्या होगा। हाल ही में एक किसान ने उस दिन चौराहे पर आत्मदाह कर लिया
जब देश के प्रधानमंत्री किसानों से मन की बात कर रहे थे। कारण था फसल का मुआवजा न
मिलना। वह बच गया उसका इलाज चल रहा है। लेकिन हैरत तो तब होता है जब सरकारी मशीनरी
का कोई भी मुलाजिम उसे देखने तक नहीं पहुंचा। ऐसे में मन की बात केवल और केवल
खयाली पुलाव भर नज़र आते हैं।
देश की राजनीतिक दृष्टि से देखें तो बुंदेलखंड खासी अहमियत रखता है।
फिर चाहें वह प्रादेशिक राजनीति हो यह देशिक राजनीति। इसीलिए बुंदेलखंड को अलग
राज्य बनाने की मांग भी उठती रहती है। परंतु इस क्षेत्र के लिए सरकार द्वारा किये
गए प्रयासों को देखा जाये तो वह नकाफी नज़र आते हैं क्योंकि धरातल पर
उतरते-उतरते वह प्रयास भ्रष्टाचार का शिकार हो गए। यदि प्रयासों के सही क्रिन्यावयन
की व्यवस्था सरकार ने कर दी होती तो स्थिति इतनी भयावह नहीं होती। न तो यहां
किसी समस्या का निष्पक्ष आंकलन होता है और न ही सही रिपोर्ट ऊपर तक पहुंचती है।
सही सोच और देशज नजरिया सबकुछ बदल सकता है।
कभी जल, जंगल और जमीन के सौंदर्य से भरपूर बुंदेलखंड आज कराह रहा है,
इसके लिए सरकार को वृहद योजनायें बनाने की बजाय छोटे-छोटे स्तर तक जाकर काम करना
होगा। घावों पर संवेदना का मरहम तभी लगाया जा सकता है, जब हम मरीज के पास जायें।
बुंदेलखंड को पैकेज के साथ-साथ भाव संवेदना की भी आवश्यकता है। यहां संवाद की
जरूरत है, संवाद उन किसानों से जो जिंदगी की जंग को हारने की तैयारी कर रहा है। बुंदेलखंड
को संजीवनी की आवश्यकता है, इसके लिए अलग राज्य बनाने की आवश्यकता नहीं है।
समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेदारी से यदि कार्य किया जाये तो बन सकती है। आल्हा,
उदल, बुंदेलों, चंदेलों और झांसी की रानी के इस इलाके जनमानस को भी एकजुट होकर
प्रयास करना होगा खुद की दशा सुधारने के लिए। खुद का किया गया पुरूषार्थ ही आखिर
में काम आता है।
Article published in Madhya Pradesh Jan Sandesh Paper 19/01/2016.
फ़रवरी 21, 2016
मीडिया और राजनीति का रंगमंच
पिछले दस दिनों से बहुत ही भयावह स्थिति से
गुजर रहा हूं। ठीक से नींद नहीं आ रही। डरा सा हूं। सहमा सा हूं। ऐसा डर ऐसी
स्थिति मैने अपने इस अल्प जीवनकाल में कभी नहीं देखी। हिंदूत्व की विचारधारा में
पला-बढ़ा, विद्यामंदिर से शिक्षा ग्रहण की जहां देशभक्ति का पाठ खूब पढ़ाया जाता
है। 15 अगस्त और 26 जनवरी या कहीं भी जब भी तिरंगा फहरते देखता हूं तो रोम-रोम
पुलकित हो जाता है। 2 अक्टूबर को लालबहादूर शास्त्री के जीवन संस्मरण सुनकर
अपने आसूं रोक नहीं पाता वहीं कलाम जी के जाने पर खूब रोता हूं। भगत को पढ़ता हूं
तो कामना करता हूं कि बेटा हो तो भगत जैसा। भारत माता पर बलिदान हुए सपूतों की
कहांनियां आंखों में आंसू ला देती हैं। जमीन से जुड़ा हर मुद्दा सिसकने पर मजबूर
कर देता है।
मैं किसी विचारधारा विशेष का समर्थक नहीं
हूं। मीडिया पढ़ता हूं इसलिए पढ़ना पड़ता है, सबको पढ़ता हूं, हर विचारधारा को
चाहें वह किसी भी तथाकथित वाद से प्रेरित हो। हर विचारधारा में अपनी अच्छाई हैं,
अपनी बुराईयां। परंतु जिस तरह का माहौल पिछले दिनों बनाया गया, उसे देखकर, सुनकर
ऐसा नहीं लगा कि मेरे यह कोई भी तर्क मेरे देशभक्त होने का प्रमाण है। जेएनयू
प्रकरण पर जो हुआ उस पर खूब बहस हुई, देश के खिलाफ नारे किसी भी सच्चे भारतवासी
को बर्दाश्त नहीं हो सकते। लेकिन जब से देख रहा हूं सब कुछ पहले से रचा रचाया लग
रहा है। मीडिया और राजनीति का रंगमंच सजा है, जिसकी कहानी पहले ही लिखी जा चुकी
है।
कब नारे लगने हैं। कब वीडियो दिखाना है। कब
देशद्रोही का तमागा दिया जायेगा। देश में खलबली मचेगी। कब पुलिस किसी को गिरफ्तार
करेगी। कब कौन सी पार्टी का नेता जेएनयू पहुंचेगा। कब पटियाला हाऊस कोर्ट में बवाल
होगा। कब एबीवीपी के 3 कार्यकर्ता इस्तीफा देंगे। कब देश के सर्वोच्च चिन्ह
तिरंगे का राजनीतिकरण किया जायेगा। कब वीडियो के फर्जी होने की बात सामने आयेगी।
कब केरल में आरएसएस के कार्यकर्ता की हत्या होगी। कब जादवपुर भी जेएनयू के साथ
खड़ा हो जायेगा। कब पटियाला हाउस कोर्ट में वकील ही जज की भूमिका में आ जायेंगे।
कब मेक इन इंडिया के पंडाल में आग लगेगी। कब किसी को गालियों और गोलियों के लिए
कहा जायेगा। कब कौन सा प्रवक्ता टीवी पर क्या बोलेगा। कब जेएनयू बचाओ रैली
निकाली जायेगी। कब यूनिटी मार्च होगा। कब सोनी सोरी पर हमला होगा। सबकुछ पहले से
निर्धारित सा लग रहा है। कब टीवी अंधा हो जायेगा। सबकुछ ऐसे हो रहा है मानों दोनों
ओर से पहले ही कहानी लिखी जा चुकी है, मंचन चल रहा है, किरदार वही पुराने हैं लेकिन
उनके दायित्व बदल चुके हैं। सूचना के सर्वोच्च साधन टीवी से सूचना गायब है।
लोकतंत्र का चौथे खंभा, बाकी बचे तीनों खंभों की जिम्मेदारी संभाल रहा है।
लोकतंत्र अपंग हो चुका है। भीड़ और मीडिया देश की दिशाधारा तय करने लगी है। प्रवक्ताओं
के कहने ही क्या देश को राज्यवाद और राष्ट्रवाद में उलझा रहे हैं। इसी बीच ये
भी पता चलता है कि किसान फैशन में आत्महत्या करते हैं। कई मुद्दे हैं, कई सवाल
हैं, पर जबाव नदारद है। दोनों ओर के लोग एक दूसरे को सबक सिखाने पर आमादा हैं।
सोशल मीडिया इसमें महत्ती भूमिका अदा कर रहा है। जैसे रंगमंच में लाइटिंग की होती
है। कब किस पात्र पर फोकस करना है, यह सोशल मीडिया पर तय हो रहा है। देश के 15
फीसदी से भी कम टेक्नोसेवियों का अड्डा सोशल मीडिया, देश की 100 फीसदी जनता का फोकस
तय कर रहा है। खुले पत्र लिखने की होड़ मची है, कोई प्रधानमंत्री को लिख रहा है,
तो कोई पत्रकारों को।
हम भारतीय भी इस रंगमंच में किरदार बनते जा
रहे हैं। पहले दर्शक बने, फिर भावना उमड़ी और हम भी किरदार की भूमिका में हैं।
रंगमंच में भी यही होता है। मीडिया, सत्ता के गठजोड़ में आम आदमी जाये भी तो कहां
जाये। 1 अरब 25 करोड़ आबादी वाले देश में, 1 करोड़ से भी कम लोग देश के हर नागरिक
के प्रवक्ता बन बैठें हैं। ये कैसा दौर है, ये कैसा समय हैं। जहां देश के सबसे
सम्पन्न राज्यों में गिना जाने वाला हरियाणा, आरक्षण की आग झेल रहा है। इसके
असर अन्य राज्यों में दिख रहे हैं। देश किस दिशा में जा रहा है। उत्तर कौन
देगा। क्या ऐसे ही भारत विश्व गुरू बनेगा। अगर यही स्थिति रही है तो देश में आग
लग जायेगी, जब देश जलेगा तो लाशों का न तो कोई धर्म होगा, न कोई वाद। ऐसी स्थिति में
देश को जाने से बचा लो।
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