कहते हैं कि वक्त और भूखमरी की मार जब सवाल करती है तो कोई भी जबाब
हो नकाफी नज़र आता है। बुंदेलखंड के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। यहां एक बार फिर सूखा पड़ा है। न खाने को
रोटी है और न पीने को पानी। ऐसी अवस्था में बड़े-बड़े राहत पैकेज बोने पड़ जाते
हैं। कुछ रोज पहले खबरों में बुंदेलखंड का खूब बोलबाला रहा, अब गायब है। क्योंकि
खबर तो खबर है कुछ देर चलती है फिर गिरा दी जाती है, तर्क आता है लगातार दुर्दशा
दिखाने से भी निराशा ही हाथ लगती है। ऐसे में लगातार 3 और 1987 से अबतक 19 सूखे
झेल चुका बुंदेलखंड अपनी आप बीती सुनाये भी तो किसे। ऐसे में बुंदेलखंड खंड-खंड
होता जा रहा है।
हाल ही में बुंदेलखंड को पास से देखने का मौका मिला। दूर-दूर तक जहां
तक नज़र जा सकती है, वहां तक देखो, बंजर पड़ी खेती यहां की कहानी खुद ही बंया करने
लगती है। हरियाली का नामोनिशां नहीं है। गांव के गांव खाली हो रहें, लोग पलायन कर
रहे हैं। जो यह नहीं कर सकते वह जिंदगी से पलायन का फैसला कर लेते हैं। बुदेलों की
यह धरती जो वीरता और गौरव की गाथाओं से भरी पड़ी है, वहां आज दुर्दशा के गीते
सुनायी देते हैं। झांसी के खिसनी बुजुर्ग गांव में 3300 एकड़ जमीन है, सूखे के
कारण यहां 100 एकड़ में भी अनाज नहीं उपजाया जा सका। किसानों पर बैंको का करोड़ों
रूपया बकाया है, आंकड़े बताते हैं कि बुंदेलखंड के लगभग 14 लाख किसानो पर सरकारी
बैकों का एक हजार करोड़ से ज्यादा रूपया बकाया है। यहां पीने के पानी की उपलब्धता
न के बराबर है, लोग नालों का पानी पीकर अपनी प्यास बुझा रहे हैं। सरकार घोषणायें
तो करती है, लेकिन इस नसूर बन चुके सुखे के जख्म को त्वरित की मदद की आवश्यकता
होती है। ऐसे में सरकारी मशीनरी की लेटलतीफी के चलते यह जख्म किसानों को निगलता
जा रहा है। आंकड़ों की माने तो यहां बीते 6 सालों 4 हजार से ज्यादा किसानों न आत्महत्या
या आत्मदाह किया है। यह तो सिर्फ आंकड़ें हैं, कई मौतें तो इसमें रिकार्ड ही नहीं
होती। इन मौतों का जिम्मेदार किसे मानें, कर्ज, सूखा या भूख को। फिर सबकुछ एक साथ
आ जाये तो क्या होगा। हाल ही में एक किसान ने उस दिन चौराहे पर आत्मदाह कर लिया
जब देश के प्रधानमंत्री किसानों से मन की बात कर रहे थे। कारण था फसल का मुआवजा न
मिलना। वह बच गया उसका इलाज चल रहा है। लेकिन हैरत तो तब होता है जब सरकारी मशीनरी
का कोई भी मुलाजिम उसे देखने तक नहीं पहुंचा। ऐसे में मन की बात केवल और केवल
खयाली पुलाव भर नज़र आते हैं।
देश की राजनीतिक दृष्टि से देखें तो बुंदेलखंड खासी अहमियत रखता है।
फिर चाहें वह प्रादेशिक राजनीति हो यह देशिक राजनीति। इसीलिए बुंदेलखंड को अलग
राज्य बनाने की मांग भी उठती रहती है। परंतु इस क्षेत्र के लिए सरकार द्वारा किये
गए प्रयासों को देखा जाये तो वह नकाफी नज़र आते हैं क्योंकि धरातल पर
उतरते-उतरते वह प्रयास भ्रष्टाचार का शिकार हो गए। यदि प्रयासों के सही क्रिन्यावयन
की व्यवस्था सरकार ने कर दी होती तो स्थिति इतनी भयावह नहीं होती। न तो यहां
किसी समस्या का निष्पक्ष आंकलन होता है और न ही सही रिपोर्ट ऊपर तक पहुंचती है।
सही सोच और देशज नजरिया सबकुछ बदल सकता है।
कभी जल, जंगल और जमीन के सौंदर्य से भरपूर बुंदेलखंड आज कराह रहा है,
इसके लिए सरकार को वृहद योजनायें बनाने की बजाय छोटे-छोटे स्तर तक जाकर काम करना
होगा। घावों पर संवेदना का मरहम तभी लगाया जा सकता है, जब हम मरीज के पास जायें।
बुंदेलखंड को पैकेज के साथ-साथ भाव संवेदना की भी आवश्यकता है। यहां संवाद की
जरूरत है, संवाद उन किसानों से जो जिंदगी की जंग को हारने की तैयारी कर रहा है। बुंदेलखंड
को संजीवनी की आवश्यकता है, इसके लिए अलग राज्य बनाने की आवश्यकता नहीं है।
समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेदारी से यदि कार्य किया जाये तो बन सकती है। आल्हा,
उदल, बुंदेलों, चंदेलों और झांसी की रानी के इस इलाके जनमानस को भी एकजुट होकर
प्रयास करना होगा खुद की दशा सुधारने के लिए। खुद का किया गया पुरूषार्थ ही आखिर
में काम आता है।
कहते हैं कि वक्त और भूखमरी की मार जब सवाल करती है तो कोई भी जबाब
हो नकाफी नज़र आता है। बुंदेलखंड के साथ भी ऐसा ही हो रहा है। यहां एक बार फिर सूखा पड़ा है। न खाने को
रोटी है और न पीने को पानी। ऐसी अवस्था में बड़े-बड़े राहत पैकेज बोने पड़ जाते
हैं। कुछ रोज पहले खबरों में बुंदेलखंड का खूब बोलबाला रहा, अब गायब है। क्योंकि
खबर तो खबर है कुछ देर चलती है फिर गिरा दी जाती है, तर्क आता है लगातार दुर्दशा
दिखाने से भी निराशा ही हाथ लगती है। ऐसे में लगातार 3 और 1987 से अबतक 19 सूखे
झेल चुका बुंदेलखंड अपनी आप बीती सुनाये भी तो किसे। ऐसे में बुंदेलखंड खंड-खंड
होता जा रहा है।
हाल ही में बुंदेलखंड को पास से देखने का मौका मिला। दूर-दूर तक जहां
तक नज़र जा सकती है, वहां तक देखो, बंजर पड़ी खेती यहां की कहानी खुद ही बंया करने
लगती है। हरियाली का नामोनिशां नहीं है। गांव के गांव खाली हो रहें, लोग पलायन कर
रहे हैं। जो यह नहीं कर सकते वह जिंदगी से पलायन का फैसला कर लेते हैं। बुदेलों की
यह धरती जो वीरता और गौरव की गाथाओं से भरी पड़ी है, वहां आज दुर्दशा के गीते
सुनायी देते हैं। झांसी के खिसनी बुजुर्ग गांव में 3300 एकड़ जमीन है, सूखे के
कारण यहां 100 एकड़ में भी अनाज नहीं उपजाया जा सका। किसानों पर बैंको का करोड़ों
रूपया बकाया है, आंकड़े बताते हैं कि बुंदेलखंड के लगभग 14 लाख किसानो पर सरकारी
बैकों का एक हजार करोड़ से ज्यादा रूपया बकाया है। यहां पीने के पानी की उपलब्धता
न के बराबर है, लोग नालों का पानी पीकर अपनी प्यास बुझा रहे हैं। सरकार घोषणायें
तो करती है, लेकिन इस नसूर बन चुके सुखे के जख्म को त्वरित की मदद की आवश्यकता
होती है। ऐसे में सरकारी मशीनरी की लेटलतीफी के चलते यह जख्म किसानों को निगलता
जा रहा है। आंकड़ों की माने तो यहां बीते 6 सालों 4 हजार से ज्यादा किसानों न आत्महत्या
या आत्मदाह किया है। यह तो सिर्फ आंकड़ें हैं, कई मौतें तो इसमें रिकार्ड ही नहीं
होती। इन मौतों का जिम्मेदार किसे मानें, कर्ज, सूखा या भूख को। फिर सबकुछ एक साथ
आ जाये तो क्या होगा। हाल ही में एक किसान ने उस दिन चौराहे पर आत्मदाह कर लिया
जब देश के प्रधानमंत्री किसानों से मन की बात कर रहे थे। कारण था फसल का मुआवजा न
मिलना। वह बच गया उसका इलाज चल रहा है। लेकिन हैरत तो तब होता है जब सरकारी मशीनरी
का कोई भी मुलाजिम उसे देखने तक नहीं पहुंचा। ऐसे में मन की बात केवल और केवल
खयाली पुलाव भर नज़र आते हैं।
देश की राजनीतिक दृष्टि से देखें तो बुंदेलखंड खासी अहमियत रखता है।
फिर चाहें वह प्रादेशिक राजनीति हो यह देशिक राजनीति। इसीलिए बुंदेलखंड को अलग
राज्य बनाने की मांग भी उठती रहती है। परंतु इस क्षेत्र के लिए सरकार द्वारा किये
गए प्रयासों को देखा जाये तो वह नकाफी नज़र आते हैं क्योंकि धरातल पर
उतरते-उतरते वह प्रयास भ्रष्टाचार का शिकार हो गए। यदि प्रयासों के सही क्रिन्यावयन
की व्यवस्था सरकार ने कर दी होती तो स्थिति इतनी भयावह नहीं होती। न तो यहां
किसी समस्या का निष्पक्ष आंकलन होता है और न ही सही रिपोर्ट ऊपर तक पहुंचती है।
सही सोच और देशज नजरिया सबकुछ बदल सकता है।
कभी जल, जंगल और जमीन के सौंदर्य से भरपूर बुंदेलखंड आज कराह रहा है,
इसके लिए सरकार को वृहद योजनायें बनाने की बजाय छोटे-छोटे स्तर तक जाकर काम करना
होगा। घावों पर संवेदना का मरहम तभी लगाया जा सकता है, जब हम मरीज के पास जायें।
बुंदेलखंड को पैकेज के साथ-साथ भाव संवेदना की भी आवश्यकता है। यहां संवाद की
जरूरत है, संवाद उन किसानों से जो जिंदगी की जंग को हारने की तैयारी कर रहा है। बुंदेलखंड
को संजीवनी की आवश्यकता है, इसके लिए अलग राज्य बनाने की आवश्यकता नहीं है।
समझदारी, ईमानदारी और जिम्मेदारी से यदि कार्य किया जाये तो बन सकती है। आल्हा,
उदल, बुंदेलों, चंदेलों और झांसी की रानी के इस इलाके जनमानस को भी एकजुट होकर
प्रयास करना होगा खुद की दशा सुधारने के लिए। खुद का किया गया पुरूषार्थ ही आखिर
में काम आता है।
Article published in Madhya Pradesh Jan Sandesh Paper 19/01/2016.
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