जनवरी 01, 2018

बहुसंख्यक राजनीति के नाम होगा साल 2018

साल 2017 में भारतीय राजनीति में कई परिवर्तन देखने को मिले। इसमे सबसे बड़ा परिवर्तन था बहुसंख्यक राजनीति का आरंभ होना। यह राजनीतिक दृष्टि बहुत बड़ा पैराडाइम शिफ्ट है। आजादी के बाद जो राजनीति अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के ताने बाने के साथ चलती और बहुसंख्यकों के दरकिनार करते हुये आगे बढ़ती रही, 2017 के उत्तरप्रदेश चुनावों ने उसमे रोड़ा अटका दिया। काँग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों ने बहुसंख्यकों के बीच जो स्थान छोड़ दिया था, उसे बीजेपी ने बाखूबी भरा और उत्तर प्रदेश को कुछ इस तरह फतेह किया की बाकी पार्टियों की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई। यहाँ तक कि इसे क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के अवसान के रूप में देखा जाने लगा।
2017 का उत्तर प्रदेश चुनाव राजनीति के बहुसंख्यकीकरण का आरंभ था। इसी के साथ बीजेपी ने ऐसी ताकत हासिल कर ली की वो बाकी पार्टियों का भी एजेण्डा तय करने लगी। बाकी बची पार्टियां भी उसके प्रतिउत्तर में बहुसंख्यक राजनीति के सहारे अपनी जमीन बचाने या फिर बनाने का प्रयास करने लगी। गुजरात चुनाव में राहुल द्वारा नरम हिन्दुत्व का सहारा लेना, और खुद को जनेऊधारी हिन्दू साबित करने का निरर्थक प्रयास भी इसी का हिस्सा रहा। हालांकि गुजरात में काँग्रेस ने सम्मान जनक सीटें जरूर हासिल की, जो राहुल के भविष्य के नेता की संभावनाओं को पुष्ट कर सकती हैं। काँग्रेस ने नरम हिदुत्व का चोला सिर्फ इसलिए ओढ़ा जिससे वो बीजेपी के हिन्दुत्व की काट कर सके। लेकिन इस प्रयास ने काँग्रेस को कहीं न कहीं बीजेपी की तरह ही बहुसंख्यक राजनीतिक दल की तरह पेश कर दिया। काँग्रेस के राजनीतिक हितचिंतक इसे काँग्रेस का बीजेपीकरण कह रहे हैं। और इसे देश की राजनीति के लिए घातक बता रहे हैं। उनका मानना है कि गुजरात कि पराजय से सबक लेकर, नरम हिन्दुत्व कि राजनीति छोड़कर काँग्रेस को कुछ अलग करना चाहिए। क्योंकि नरम हिंदुत्व भारतीय समाज के लिए गंभीर चुनौती है। लेकिन अशोक गहलोत का हाल ही में दिया गया हिंदूत्व समर्थित बयान उनकी चिंताओं को और ज्यादा बढ़ा देता है। इसके साथ ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमाइया का खुद को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी से बेहतर हिन्दू बताना और चुनावों मई नरम हिन्दुत्व को ही बीजेपी के खिलाफ हथियार बनाना उनकी चिंताओं को दोगुना कर देता है। सनद रहे कि आगामी मार्च-अप्रैल 2018 में कर्नाटक के चुनाव होने हैं, वहाँ ये नरम हिन्दुत्व काँग्रेस के लिए भारी पड़ सकता है।
समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव भी बीजेपी के हिन्दुत्व को बुरा और सपा के हिन्दुत्व को अच्छा बताने लिए 2019 कि रणनीति तैयार कर रहे हैं। उधर पश्चिम बंगाल उपचुनावों में टीएमसी ने चुनाव भले ही जीता हो लेकिन बीजेपी के वहाँ भी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है और ग्रामीण इलाकों में बीजेपी कि बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुये, राज्य कि मुखिया ममता बेनर्जी ने भी खुद को सहिष्णु हिन्दू दिखने कि तैयारी कर ली है।  हाल ही में 26 दिसम्बर को गंगासागर भ्रमण के दौरान कपिलमुनि के आश्रम में लगभग एक घंटा बिताया। जो इस बात का संकेत करता है कि पश्चिम बंगाल में भी बहुसंख्यक राजनीति कि बात देर सबेर आरंभ हो चुकी है। 
वर्ष 2017 में एक खास बात और हुई, दलित, ओबीसी और हिन्दुत्व से दूर जा चुकी अनेक जतियों के लोग भी बीजेपी कि बहुसंख्यक राजनीति के एजेंडे के साथ जुड़े। इनका भी बहुसंख्यकीकरण हो रहा है। जो बाकी पार्टियों के लिए चिंता का विषय है। हालांकि कुछ लेखों के माध्यम से लालू यादव को चारा घोटाले में दोषी ठहराए जाने के बाद, कुछ दिग्गज पत्रकारों के माध्यम से बीजेपी को सवर्ण राजनीति के तराजू पर तौलने कि एक कोशिश कि गई। जिससे इस बहुसंख्यक होती राजनीति में कुछ स्थान बनाया जा सके लेकिन वो बुरी तरह फेल हो गया। बीजेपी इसकी काट पहले ही कर चुकी, 2014 में नरेंद्र मोदी को ओबीसी चेहरे साथ प्रधानमंत्री बनाकर और उसके बाद अनुसूचित जाति के रामनाथ कोविन्द को राष्ट्रपति बनाकर। इसके अलावा बीजेपी के कई मुख्यमंत्री भी ओबीसी आदि जातियों से आते हैं।

बहुसंख्यक होती राजनीति के इस दौर में अभी तक किसी भी विपक्षी पार्टी के पास इसकी काट नहीं नहीं है। सभी बीजेपी के एजेंडे के साथ चल रहे हैं या यूं कहा जाए आजादी के 70 साल बाद देश के बहुसंख्यकों ने पहली बार अपने वोट का महत्व समझा है और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, जातीय तुष्टिकरण के बहाने सत्ता में आ बैठी थी, उन्हें बहुसंख्यकों ने आईना दिखाया और बताया कि वो भी इसी देश में रहते हैं। 2018 का आगाज भी इसी तरह कि राजनीति के साथ होगा और इसी बहुसंख्यक राजनीति के नाम होगा, क्योंकि किसी भी विपक्षी पार्टी पास अभी तक इसका कोई भी विकल्प मौजूद नहीं है। 

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