महाराष्ट्र के कोरेगाँव में जो हुआ वो
निश्चित रूप निंदनीय है, लेकिन जो हो रहा है,
उसे तार भूत से तो जुड़ते ही हैं, साथ ही भविष्य की राजनीति
की पटकथा भी लिखने की कोशिश भी हो रही है। 2014 में लोकसभा चुनावों में भाजपा की
जीत के साथ, बहुमत से बीजेपी की सरकार बनी। बीते चार सालों
में बीजेपी ने यूपी, गुजरात के साथ-साथ गोवा, मणिपुर, हिमाचल, बिहार, जम्मू-कश्मीर में खुद के बलबूते और सहयोगी पार्टियों के सहारे सरकार
बनाई। इसी बीच बीजेपी सरकार ने अपनी नीतियों से सहारे बहुसंख्यक राजनीति की शुरुआत
की और धीरे-धीरे विपक्ष के द्वारा दिया गया सांप्रदायिक पार्टी होने का तमगा भी
बीजेपी ने उतार फेंका। बीजेपी ने जो भी चुनाव जीते उनकी खास बात थी की दलित, ओबीसी और हिन्दुत्व से दूर जा चुकी अनेक जतियों के लोग भी बीजेपी कि बहुसंख्यक
राजनीति के एजेंडे के साथ जुड़े। इनका बहुसंख्यकीकरण हुआ। यह विपक्ष के लिए सबसे
बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया और इस तोड़ खोजने के कोशिशें तेज हो गईं।
अगर बीते दो साल की दलित हिंसा की घटनाओं
पर नजर डालें तो पाएंगे उनका स्वरूप एक जैसा ही मिलेगा। सबसे पहले बिहार चुनावों
में इस जातीय ध्रुवीकरण की कोशिश हुयी, और बीजेपी सरकार नहीं बना
पाई। ये जातीय ध्रुवीकरण की राजनीति का पहला प्रयोग था। परंतु आरजेडी के साथ
जेडीयू की अनबन ने बीजेपी को वह सरकार बनाने का मौका दे दिया। उसके बाद जो राजनीति अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और जातिगत
राजनीति को दरकिनार करते हुये आगे बढ़ती रही, 2017 के
उत्तरप्रदेश चुनावों ने सबसे बड़ा झटका दिया और क्षेत्रीय और जाति के आधार पर बनी
राजनीतिक पार्टियों के अवसान के रूप में देखा जाने लगा।
गुजरात चुनावों से पूर्व सितंबर-अक्तूबर
2017 में राज्य से दलितों पर अत्याचार की कई खबरें आयी। कई सच्ची थी, कई झूठी
साबित हुई। लेकिन खबरों को मीडिया ने जिस तरह से परोसा उसके अनुसार, गुजरात सरकार को दलितों का उत्पीडन करने वाली सरकार की तरह प्रस्तुत
किया। उना कांड तो हर किसी की जुबान पर था। ये जातीय ध्रुवीकरण की राजनीति का
दूसरा प्रयोग था। इस ध्रुवीकरण का फायदा भी काँग्रेस को मिला, क्योंकि गुजरात में हुये दलित आंदोलन का काँग्रेस ने खुलकर मुखर होकर साथ
दिया। काँग्रेस को इसका फायदा भी मिला, काँग्रेस ने अनुसूचित
जाति में 6 फीसदी, अनुसूचित जनजाति में 2 फीसदी और पटेल तथा
अन्य पिछड़ा वर्ग की सीटों पर क्रमश 6 फीसदी और 4 फीसदी वोट बढ़ाए। काँग्रेस अपने
युवा नेताओं के सहयोग से गुजरात चुनावों एक मजबूत पार्टी बनकर उभरी। लेकिन सरकार
बीजेपी की ही बनी। परंतु एक खास बात हुई, इन चुनावों ने
जातीय ध्रुवीकरण की आधारशिला को मजबूती प्रदान की। इसके साथ ही देश के कुछ
विश्वविध्यालयों में घटी घटनाओं को देखेंगे तो पाएंगे कि वहाँ भी जाति कहीं न कहीं
मुख्य मुद्दा रही है।
गुजरात चुनावों के बाद कुछ लेखों के
माध्यम से लालू यादव को चारा घोटाले में दोषी ठहराए जाने के बाद, कुछ दिग्गज
पत्रकारों के माध्यम से बीजेपी को सवर्ण राजनीति के तराजू पर तौलने कि एक कोशिश कि
गई। जिससे इस जातीय ध्रुवीकरण कि राजनीति में ईंट और सीमेंट जुटाया जा सके। बहुसंख्यक होती राजनीति के दौर में अभी तक किसी
भी विपक्षी पार्टी के पास इसकी काट नहीं नहीं थी। लेकिन नरम हिन्दुत्व कि आवरण
ओढ़कर, जातीय ध्रुवीकारण को काट के रूप में पेश किया जा रहा
है और कर्नाटक को साधने की कोशिशें हो रही हैं। कर्नाटक में दलित मतदाताओं की
संख्या निर्णायक स्थिति में है। बीजेपी संगठन ये जानने में
असमर्थ रहा या फिर जानकार अंजान बना रहा।
महाराष्ट्र के कोरेगाँव में जाति कि दीवार
उठाकर बहुसंख्यक को बांटने का प्रयास किया जा रहा है। बीते एक साल कि जिन बातों का
जिक्र यहाँ किया गया है वो तो अभी कि राजनीति का लब्बो-लुआब है। इससे पूर्व भी
सामाजिक न्याय के बहाने समाज को बांटने के कई किस्से आपको भूत के पेट में खोजने पर
मिल ही जाएंगे। आंकलन करें तो पाएंगे कोरेगाँव की ताजा घटना पिछली कई घटनाओं का
प्रतिरूप है। जिसके सहारे बहुसंख्यकों में दरार डालकर नव-पार्थक्यवाद
की विभाजक रेखा खींची जा रही है और मीडिया उसे हवा देने की भरसक कोशिशें कर रहा
है। शतरंज की भांति बिसात बिछाई जा रही, जो अभी हैं वो केवल
मोहरे हैं। उन्हें क्योंकि उन्हें हमेशा ही इस विभाजक राजनीति का मोहरा बनाया गया
लेकिन उन्हें क्या मिला ये तो सबका पता है। लेकिन जो
हो रहा है विश्व मानचित्र पर एक अलग छाप छोड़ते भारत के लिए घातक है।
यह लेख http://www.nationpost.in/politics-on-cast-division/ पर भी प्रकाशित हुआ है।
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’अंधियारे में शिक्षा-ज्योति फ़ैलाने वाले को नमन : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
जवाब देंहटाएंआपका बहुत बहुत धन्यवाद.....
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