मध्य प्रदेश का चुनाव कई मायनों में बड़ा होगा। क्योंकि सभवतः नवम्बर 2018 में मध्यप्रदेश की 230 विधानसभा सीटों पर होने वाला यह चुनाव लोकसभा के चुनावों से तुरंत पहले होगा या फिर लोकसभा चुनावों के साथ ही सम्पन्न हो। ऐसे में प्रदेश की दोनों बड़ी पार्टियों ने चुनावी तैयारियां शुरू कर दी हैं। एक तरफ जहां विगत 15 सालों से प्रदेश में बीजेपी के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ‘एकात्म यात्रा’ के सहारे वोटों को रिझाने का काम कर रहें हैं वहीं दूसरी काँग्रेस गुजरात से लेकर आए ‘नरम हिन्दुत्व’ के सहारे इस और कदम बढ़ा रही है। ये सब तो ठीक है। मंदिर-मस्जिद जाना वोटों को अपने पक्ष मे करने का पुराना तरीका है। वर्तमान में देखें तो मध्यप्रदेश की विधानसभा में 165 सीटें बीजेपी, 58 काँग्रेस, 4 बहुजन समाजवादी पार्टी और 3 सीटें निर्दलीय विधायकों के पास हैं। ऐसे मे कॉंग्रेस के लिए बहुमत के आंकड़े तक पहुंचाना एक बड़ी चुनौती है और बीजेपी के लिए चुनौती है अपनी सीटें बचाने की। हालांकि 20 जनवरी को निकाय उपचुनावों में बीजेपी को झटका लगा है और पार्टी को 5 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है। वही काँग्रेस ने 5 सीटें अधिक जीतकर अपने होने का एहसास प्रदेश बीजेपी को करवाया है।
काँग्रेस निकाय उपचुनाव सुखद अनुभूति लेकर आए हैं लेकिन पार्टी का पेंच उलझता है वहाँ आकार, जब वो अपने लिए मुख्यमंत्री पद के एक अदद चेहरे की तलाश करते हैं। क्योंकि पार्टी अधिकांश कार्यकर्ता मुख्यमंत्री के चेहरे की जल्द घोषणा के पक्ष में हैं, और इस क्रम में ग्वालियर के युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम कई बार सामने आया है। लेकिन अभी तक काँग्रेस का कोई भी पदाधिकारी इस पर खुल कर बोलने को तैयार नहीं है। इसके अलावा कमलनाथ का नाम भी की कई लोगों की जुवान पर है। दोनों पक्षों के लोग दिल्ली यानि पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी तक अपनी बात पहुँचने और अपने पक्ष में समीकरण साधने कि पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।
वहीं काँग्रेस पार्टी कुछ बड़े नेता बिना चेहरे के चुनाव लड़ने की रणनीति के पक्षधर हैं। इनकी माने तो पार्टी में अभी इसके लिए मंथन चल रहा हैं, परंतु अभी कुछ भी निर्धारित नहीं है। काँग्रेस विधायक दल के नेता अजय सिंह नाम न घोषित करने के पक्ष में हैं उनकी दलील है कि 1956 से जब से मध्य प्रदेश का गठन हुआ है तब से मुख्यमंत्री के नाम के पूर्व घोषणा उनकी परंपरा में नहीं है। ऐसे में सब कुछ अभी अधपका सा लग रहा है। लेकिन अंदर के सूत्रों कि माने तो पार्टी इस मामले में फूँक-फूँक कर कदम रख रही है और साथ ही बीजेपी द्वारा उत्तर प्रदेश मे अपनाए गए फॉर्मूले को अपनाने पर विचार कर रही है। इसके साथ ही पार्टी के कार्यकर्ताओं को नए पन और नए अध्यक्ष और नए बदलावों का एहसास करने के लिए ये भी कहा गया है कि टिकट को लेकर जो भी निर्णय होगा वो भोपाल में ही होगा कोई भी इस काम के लिए दिल्ली नहीं जाएगा। पार्टी के नियमों को तोड़ने पर कार्रवाई कि भी बात भी की जा रही है।
आपको याद होगा बीजेपी ने उत्तर प्रदेश चुनावों से पहले मुख्यमंत्री पद के लिए कई दावेदारों कि खबरें मीडिया कि सुर्खियां बनी और आखिर में अब बीजेपी भारी बहुमत से चुनाव जीत गई तब लीक से हटकर योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुखिया बनाया गया। काँग्रेस भी इसी फॉर्मूले पर काम कर रही है। पार्टी का मानना है कि जीतने ज्यादा लोगों के चेहरे के साथ चुनाव लड़ा जायेगा उतने ज्यादा लोगों के समर्थकों का साथ मिलेगा और पार्टी चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करेगी। जिस तरह उत्तरप्रदेश में बीजेपी को इस रणनीति का फायदा मिला था। हालांकि इसका नुकसान भी है, मान लेते हैं कि पार्टी किसी तरह बहुमत के स्तर तक पंहुच जाती है, जिसकी संभावना कम है, तो क्या अंत में पार्टी के लोग उत्तर प्रदेश में बीजेपी कि तरह संयम दिखा पाएंगे। ऐसे में काँग्रेस के लिए यह मुश्किल खड़ी हो सकती है, मुख्यमंत्री किसको बनाए? और राजनीतिक समीकरणों को किस तरह से साधें। फिलहाल तो ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम इसमें सबसे ऊपर है, उसके बाद नंबर आता है कमलनाथ का। परंतु यदि काँग्रेस बीजेपी कि राह पर चल निकलती है तो फिर क्षेत्रीय, जातीय और प्रादेशिक समीकारणों को साधने वाले कई और नाम भी इस लिस्ट में जुड़ेंगे। ये देखने वाली बात होगी कि काँग्रेस आगामी चुनावों में इस रणनीति का बीजेपी कि तरह फायदा ले पाती है या फिर नुकसान उठाती।
यह आलेख आप मध्य प्रदेश जनसंदेश के 22/01/2018 के अंक में भी पढ़ सकते हैं।
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