हाल के दिनों में सेलेक्टिव नैरेटिव की बानगी कई बार देखने को मिली। चाहें वह नॉट इन माइ नेम आंदोलन हो या हाल ही में जो गौरी लंकेश की हत्या को लेकर चल रहा विमर्श हो। इन सभी में एक समानता थी, वह थी 'हिंदूत्व विरोध'। मोदी विरोध और संघ विरोध तो इसलिए क्योंकि ये हिंदुत्व के पोषक माने जाते हैं और भाजपा विरोध इसीलिए कि वह इसी विचारधारा के लोगों की पार्टी है। इनके विरोध के पैमाने देखिए ये हिंदुत्व को हमेशा ही ब्राह्मणवाद और कट्टरवाद से जोड़ देंगे। विरोध में शामिल विरोधियों से अगर ये सवाल करो को कि क्या दूसरे अन्य संप्रदायों में क्या कट्टरता, रूढ़िवाद नहीं है? तब ये कहेंगे कि आप धर्म की राजनीति करते हो, चाहे धर्म का सही अर्थ क्या है, उन्हें मालूम हो या न मालूम हो। और आप को एंटी सेकुलर घोषित करते उन्हें ज़रा भी देर नहीं लगेगी। ज्यादा बहस में उलझेंगे तो कट्टर हिंदू, हिंदू आतंकवादी, हिंदुत्व ब्रिगेड न जाने किस—किस नाम से संबोधित करने लगेंगे। फिर आपको संघी और मोदी भक्त तक ले जायेंगे। गौरतलब है कि इनका विमर्श किसी एक मुद्दे पर टिककर नहीं हो सकता।
अगर आप इनसे कहेंगे कि एक मुद्दे पर टिके रहो वो इनसे नहीं हो पाता, ये आपको घुमा फिराकर सेकुरलिज्म, हिंदुत्व, मोदी भक्ति, भगवा भक्ति में घेरने की कोशिश करेंगे, अगर नहीं हो पाया तो कट्टरपंथी होने का मेडल देकर भाग लेंगे। संघ का विरोध करेंगे तो 1920—1950 तक लेकर जायेंगे और कहेंगे कि सारे संंघ समस्त हिंदुवादी संगठनों का संचालक है। फिर सावरकर, गोडसे की से आपकी रिश्तेदारी घोषित कर देंगे। लेकिन अगर इनमें पूछो कि नक्सलवाद और हिंदुत्व घृणावाद से जुड़े हुए संगठन भी तो आपकी विचारधारा की उपज हैं तो ये कहेंगे नहीं उनसे हमारा कोई लेना देना नहीं और ज्यादा विमर्श में उलझे तो आप संविधान विरोधी हैं और भगवा आतंकी हैं। मोदी को विरोध करना तो इनका जन्मसिद्ध अधिकार है। जिसे ये फासिज्म, हिटलर न जाने क्या—क्या नामों से जोड़ते रहते हैं। परंतु अंधविरोध करते—करते ये भूल जाते हैं कि इस सेलेक्टिव नैरेविटिज्म का नुकसान किसे और फायदा किसे हो रहा है?
सोशल मीडिया के आने से सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं को हुआ है। बंद कमरों और सेमिनार हाल में जो विमर्श अब सोशल मीडिया पर हो रहा है और यहां दूध का दूध और पानी का पानी होते देर नहीं लगती। सोशल मीडिया ने कलेक्टिव काउंटर नैरेटिव का जन्म दिया है। जहां ये सेलेक्टिव नैरेटिव करने वाले लोग टिक नहीं पाते। पहले टीवी, न्यूजपेपर जिसको छापने से कतराते थे आज सोशल मीडिया पर चला रहा विमर्श दिखाना और लिखना इनकी मजबूरी बन गया। मेरे बुद्धिजीवी मित्र इस बात का ध्यान रखें कि यह सब लिखने का आशय यह कतई नहीं है कि में किसी भी गलत घटना का समर्थन कर रहा हूं। जनता की बात करनी है तो सबकी बात करनी पड़ेगी। दोहरा चरित्र नहीं चल पायेगा। हत्या विरोध करना है तो सभी हत्याओं को समान रूप से देखना
होगा। कट्टरपंथ का विरोध करना है तो हर धर्म और संम्प्रदाय में व्याप्त कट्टरपंथ का विरोध करना होगा। सामाजिक न्याय की बात करनी है हर धर्म और संम्प्रदाय के लोगों के हक
की लड़ाई लड़नी होगी। अरे ऐसा कहीं पढ़ा था तुम्हारा मूलमंत्र तो हक की लड़ाई लड़ना था,
हर दबे—कुचले वर्ग की। या ये केवल ढकोसला था। या फिर सत्ता की लोलुपता ने तुम्हें अंधविरोधी बना दिया और वह अंधविरोध अब सेलेक्टिव अंधविरोध में बदल चुका है। —————————आदित्य शुक्ला
अगर आप इनसे कहेंगे कि एक मुद्दे पर टिके रहो वो इनसे नहीं हो पाता, ये आपको घुमा फिराकर सेकुरलिज्म, हिंदुत्व, मोदी भक्ति, भगवा भक्ति में घेरने की कोशिश करेंगे, अगर नहीं हो पाया तो कट्टरपंथी होने का मेडल देकर भाग लेंगे। संघ का विरोध करेंगे तो 1920—1950 तक लेकर जायेंगे और कहेंगे कि सारे संंघ समस्त हिंदुवादी संगठनों का संचालक है। फिर सावरकर, गोडसे की से आपकी रिश्तेदारी घोषित कर देंगे। लेकिन अगर इनमें पूछो कि नक्सलवाद और हिंदुत्व घृणावाद से जुड़े हुए संगठन भी तो आपकी विचारधारा की उपज हैं तो ये कहेंगे नहीं उनसे हमारा कोई लेना देना नहीं और ज्यादा विमर्श में उलझे तो आप संविधान विरोधी हैं और भगवा आतंकी हैं। मोदी को विरोध करना तो इनका जन्मसिद्ध अधिकार है। जिसे ये फासिज्म, हिटलर न जाने क्या—क्या नामों से जोड़ते रहते हैं। परंतु अंधविरोध करते—करते ये भूल जाते हैं कि इस सेलेक्टिव नैरेविटिज्म का नुकसान किसे और फायदा किसे हो रहा है?
सोशल मीडिया के आने से सबसे ज्यादा नुकसान इन्हीं को हुआ है। बंद कमरों और सेमिनार हाल में जो विमर्श अब सोशल मीडिया पर हो रहा है और यहां दूध का दूध और पानी का पानी होते देर नहीं लगती। सोशल मीडिया ने कलेक्टिव काउंटर नैरेटिव का जन्म दिया है। जहां ये सेलेक्टिव नैरेटिव करने वाले लोग टिक नहीं पाते। पहले टीवी, न्यूजपेपर जिसको छापने से कतराते थे आज सोशल मीडिया पर चला रहा विमर्श दिखाना और लिखना इनकी मजबूरी बन गया। मेरे बुद्धिजीवी मित्र इस बात का ध्यान रखें कि यह सब लिखने का आशय यह कतई नहीं है कि में किसी भी गलत घटना का समर्थन कर रहा हूं। जनता की बात करनी है तो सबकी बात करनी पड़ेगी। दोहरा चरित्र नहीं चल पायेगा। हत्या विरोध करना है तो सभी हत्याओं को समान रूप से देखना
होगा। कट्टरपंथ का विरोध करना है तो हर धर्म और संम्प्रदाय में व्याप्त कट्टरपंथ का विरोध करना होगा। सामाजिक न्याय की बात करनी है हर धर्म और संम्प्रदाय के लोगों के हक
की लड़ाई लड़नी होगी। अरे ऐसा कहीं पढ़ा था तुम्हारा मूलमंत्र तो हक की लड़ाई लड़ना था,
हर दबे—कुचले वर्ग की। या ये केवल ढकोसला था। या फिर सत्ता की लोलुपता ने तुम्हें अंधविरोधी बना दिया और वह अंधविरोध अब सेलेक्टिव अंधविरोध में बदल चुका है। —————————आदित्य शुक्ला
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