अप्रैल 11, 2018

बढ़ता तापमान, बढ़ती मुश्किलें

गर्मियों की शुरूआत हो चुकी है। अप्रैल के महीने की धूप कुछ ऐसी हो रही है मानो सबकुछ जला कर खाक कर देगी। इसका कारण है पिछले दो दशकों से लगातार अधिकतम स्तर के तापमान का बढ़ाना। मौसम वि​भाग की माने तो विगत 20 सालों में अधिकतम तापमान सामान्य स्तर से लगभग 6  डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है और इस बढ़ोत्तरी ने स्थायित्व ले लिया है। इसलिए आलम यह है कि अप्रैल से जून तक जो तापमान 30 से 32 डिग्री सेल्सियस रहता था वह अब बढ़ाकर 40 से 41 डिग्री तक दर्ज हो रहा है। इस बढ़ते तापमान को लेकर चिंतित होना जायज है, लेकिन ये जागरूकता आखिर आयेगी कब!​
रिपोर्टों की मानें तो उत्तर भारत के शहरों में दक्षिण भारत से ज्यादा गर्मी रिकार्ड हो रही है। वर्ष 2000 में जहां राजस्थान, दिल्ली, उत्तरप्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश आदि राज्यों में औसत अधिकतम तापमान लगभग 33 डिग्री सेल्सियसर रहता था। वो मार्च के महीने से ही लगभग 40 डिग्री सेल्सियस रिकार्ड हो रहा है, जबकि जून आने में अभी तीन महीने बाकी है। इसका अर्थ यह हुआ साल दर साल लगभग 0.5 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ रहा है। इसके बढ़ते तापमान की जिम्मेदारी आखिरी किसकी है। हमारी, आपकी या सरकार की। कंक्रीट के खड़े होते जंगल, उद्योगों से निकलने वाला रेडिएशन, वायु, जल आदि का प्रदूषण इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है। हमें अपनी सुविधा के लिए ठंडा पानी चाहिए तो फ्रिज लगा लिया, ठंडा कमरा चाहिए तो एसी लगा लिया। परंतु कभी ये नहीं सोचा इससे पर्यावरण कितना प्रभावित होता है। इसके अलावा बढ़ती आबादी भी तापमान बढ़ाने में एक बहुत ही म​हत्वपूर्ण कारक है। भारत के जिन इलाकों में जनसंख्या दबाव अधिक है वहां का तापमान स्वत: ही ज्यादा रिकार्ड हो रहा है। मसलन अगर दिल्ली की बात करें तो स्थिति यही है। 25 लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में वहां के निवासियों के सुख—सुविधा की चीजें साल भर में अधिकतम तापमान को लगभग 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा देती हैं। ऐसे शहरों को मौसम विभाग ने हीट आयलैंड कहा है। इसके अलावा अगर मौसम विभाग की मानें तो साल 2021 से 2050 तक देश के कुछ बड़े शहरों जैसे दिल्ली, चेन्नई, मुंबई, कोलकाता, बैंगलुरू आदि के तापमान में 5 डिग्री की बढ़ोत्तरी दर्ज की जायेगी। इसके अलावा पहाड़ी क्षेत्रों में तापमान में काफी परिवर्तन देखने को मिले हैं। अगर श्रीनगर और इम्फाल की बात करें तो यहां तापमान में सर्वाधिक बदलाव देखने को मिले। श्रीनगर में मार्च के माह में तापमान में सर्वाधिक वृद्धि दर्ज की गई जो कहीं न कहीं हिमालयी क्षेत्रों के लिए घातक है।
अगर वैज्ञानिकों की मानें तो इस तापमान को बढ़ाने में सर्वाधिक योगदान हमारी और आपकी की लापरवाही का है। पिछले 50 सालों में कोयला और पेट्रोलियम जैसे जीवाश्म ईंधनों का इतना अधिक उपयोग किया गया कि वातावरण गर्मी पैदा करने वाली कार्बन डाइऑक्साइड और दूसरी ग्रीनहाउस गैसों से भर गया। एक अनुमान के मुताबिक वायुमंडल में पहले की तुलना में 30 प्रतिशत ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड मौजूद है। जिसके कारण मौसम अप्रत्याशित व्यवहार कर रहा है। सूखा, अतिवृष्टि, चक्रवात और समुद्री हलचलों को वैज्ञानिक तापमान वृद्धि का नतीजा बताते हैं। पिछले छह दशकों में ध्रुवीय बर्फ भण्डारों में जबरदस्त गिरावट दर्ज की गई है। समुद्र का बढ़ता ​जलस्तर भी इसी का ही परिणाम है। नासा के एक अध्ययन के अनुसार मौजूदा सदी के बीतते-बीतते इस कमी से समुद्री जलस्तर वृद्धि के परिणामस्वरूप दुनिया भर की तटीय बस्तियाँ जलमग्न हो चुकी होंगी। दूसरी ओर खेतिहर मैदानी इलाकों में पानी की किल्लत कृषि उत्पादन पर बहुत बुरा असर डालेगी। धरती का तापमान बढ़ने से समूची जलवायु बदल जाएगी।
कुल मिलाकर अगर देंखे तो पायेंगे राहें आसान नहीं हैं। वैज्ञानिकों को यहां तक मानना है यहां से तबाही ही तबाही नज़र आ रही है, जहां से बिन मिटे लौटना संभव नहीं हैं। फिर भी हम मिल जुलकर सार्थक प्रयास के सहारे कुछ दिन तो कुदरत से और मांग सकते हैं। अपनी गैर जरूरी आवश्यकताओं पर लगाम लगानी होगी। जैसे बिजली बचाकर, पानी बचाकर, कारों को जरूरत के हिसाब से उपयोग करके, पॉलीथीन का उपयोग न करके हम पर्यावरण को प्रदूषित होने से बचा सकते हैं। इसके अलावा पेड़ लगाकर इस दिशा में सर्वाधिक योगदान दिया जा सकता है। तापमान बढ़ रहा है, यह चिंता की बात है, हमने और आपने ने ही प्रकृति का दोहन के फलस्वरूप इसको इस खतरनाक स्तर तक पहुंचा दिया है। चिंता भी हमें ही करनी होगी। पहले ही बहुत देर हो चुकी है, अब और अधिक इंतजार किया तो शायद यह वसुधा बचे ही न। इसलिए आज से अभी से प्रयास करें।

मार्च 28, 2018

मीडिया चौपाल से मीडिया महोत्सव : संचारकों के सशक्तिकरण की कवायद

 “मीडिया महोत्सव – 2018” का आयोजन 31 मार्च-01 अप्रैल, 2018 (चैत्र पूर्णिमा- वैशाख कृष्ण प्रथमा, विक्रम संवत 2075) को भोपाल (मध्यप्रदेश, भारत) स्थित ‘मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् परिसर में होगा।

 दो दिवसीय मीडिया महोत्सव 8 सत्रों में संपन्न होगा।  इन सत्रों में भारत की सुरक्षा के विविध आयाम और जनसंचार माध्यमों से सम्बंधित विभिन्न मुद्दों – भारत की सुरक्षा : देश, काल, परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में, साइबर एवं डिजिटल युग में व्यक्ति, परिवार एवं समाज की सुरक्षा सुरक्षा, पांथिक एवं साम्प्रदायिक/मजहबी कट्टरता के दौर में सुरक्षा, भारत की सुरक्षा और मीडिया : अंतर्संबंधों की पड़ताल, भारत की सुरक्षा : राजनीति और मीडिया की नजर में, भारत की सुरक्षा : मीडिया, विज्ञान और टेक्नॉलाजी, सभ्यतागत एवं सांस्कृतिक सुरक्षा की चुनौतियां आदि पर गंभीर विमर्श होगा।  मीडिया क्षेत्र में रूचि रखने वाले विद्यार्थी, अध्येता, अध्यापक, पत्रकार, साहित्यकार, ब्लॉगर, वेब संचालक, लेखक, मीडिया एक्टिविस्ट, संचारक, मत-निर्माता, रंगकर्मी, कला-धर्मी अपना पंजीयन करें और मीडिया महोत्सव में सहभागी हों इसी में हमारे प्रयासों की सार्थकता है।

आयोजन में मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद्, निस्केयर (सीएसआईआर), राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, देव संस्कृति विश्वविद्यालय (हरिद्वार), भोज (मुक्त) विश्वविद्यालय, इंडिया वाटर पोर्टल, विवेकानंद केंद्र (भोपाल), विश्व संवाद केंद्र, जनसंपर्क विभाग (म.प्र. शासन) सहित अनेक शासकीय व स्वैच्छिक संस्थानों की साझेदारी रहेगी। 

भोपाल, दिल्ली, ग्वालियर, हरिद्वार और चित्रकूट के बाद फिर भोपाल में चौपालियों का पड़ाव। छह मीडिया चौपाल के बाद पहला महोत्सव। अपनी तरह का अनोखा और अनूठा प्रयास । मीडिया चौपाल की श्रृंखला को जारी रखते हुए इस बार एक सर्वथा नए स्वरुप, विस्तार और व्यापकता के साथ ‘मीडिया महोत्सव’ की शुरुआत की जा रही है। इसका उद्देश्य जनसंचार माध्यमों का मानविकीकरण, भारतीयकरण, सामाजीकरण और सकारात्मकता हैl  संचारकों का नेट्वर्किंग, क्षमता संवर्धन और सशक्तिकरण भी मीडिया महोत्सव का प्रमुख उद्देश्य है। 

छह वर्ष पहले संचार कर्मशीलों का जुटान भोपाल में हुआ था, तब से जो सिलसिला शुरू हुआ वह निरंतर जारी है। पिछ्ले साल की चौपाल चित्रकूट में जमी थी। इससे पहले वर्ष 2012 और 2013 में मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद ने भोपाल में चौपाल की मेजबानी की थी। हर बार स्पन्दन संस्था की भूमिका संयोजन और समन्वय की ही होती है। चौपाल के आयोजनों में अब तक मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद्, सीएसआईआर–निस्केयर, देव संस्कृति विश्वविद्यालय, दिव्य प्रेम सेवा मिशन, राष्ट्रीय विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संचार परिषद्, अटल बिहारी वाजपेयी हिंदी विश्वविद्यालय, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर, भारतीय जनसंचार संस्थान, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, इंडिया वाटर पोर्टल और इंडियन साइंस राइटर्स एसोशिएसन, विज्ञान भारती, जम्मू-कश्मीर अध्ययन केन्द्र, दीनदयाल शोध संस्थान जैसी संस्थाओं सहयोग किया है। यह कहना उचित ही होगा कि मीडिया चौपाल की तरह यह ‘मीडिया महोत्सव’ भी संस्थानों की साझी विरासत और साझा प्रयास है। साझेदारों और सहयोगियों की तादाद बढ़ाना हम चौपालियों की ही जिम्मेदारी है।
पूछने वाले पूछ सकते हैं कि मीडिया चौपाल या मीडिया महोत्सव के आयोजन का उद्देश्य क्या है? यह सवाल वाजिब है और जरूरी भी। दरअसल, नदी-पानी, पर्यावरण, विज्ञान, विकास या ग्रामोदय, मुद्दा कोई भी हो – यह सब चौपालियों के जुटने और एकजुट होने का बहाना है। यह सही है कि चौपाल में पिछले छह वर्षों से कोई मुद्दों के कारण, तो कोई व्यक्ति विशेष के कारण अपनी भागीदारी करता रहा है। कोई जमावडा देखने आता है, तो कोई अपना संपर्क बढाने। लेकिन यह भी एक बड़ा सच है कि ज्यादातर चौपाली चौपाल में सीखने और सिखाने आते हैं। वे एक-दूसरे के साथ मिलते-जुलते स्वयं को समृद्ध और सशक्त करने आते हैं। चौपाली, जो किसी न किसी संचार माध्यम से जुड़े संचारक हैं, कमजोर रहेंगे तो समाज को सशक्त कैसे कर पायेंगे ! दरअसल संचार माध्यमों और संचारकों का उद्देश्य ही ज्ञानयुक्त, शिक्षित, जागरुक और संवेदनशील समाज का निर्माण है। यह तभी संभव है जब ये गुण माध्यमों और संचारकों में भी विद्यमान हों। इसीलिये चौपाल के बारे में बार-बार कहा गया है कि यह संचार कर्मशीलों, पत्रकारों, संचार प्रतिनिधियों को सन्देश, नेटवर्किंग और माध्यम अभिसरण (मीडिया कंवर्जेंस) के द्वारा सशक्त करने का माध्यम बन रहा है। अगर संचारक को ही विषय का व्यापक ज्ञान न हो, वह मुद्दों पर आधी-अधूरी समझ रखता हो तो समाज को वाजिब सन्देश कैसे दे पायेगा ! इसीलिये सन्देश वाहक को विज्ञान, विकास, सभ्यता-संस्कृति, प्रकृति, पर्यावरण, नदी, पानी, खेती-किसानी, सुरक्षा जैसे मुद्दों के साथ देश-काल और परिस्थिति आदि के बारे में भी सही समझ होना जरूरी है। पत्रकारिता और संचार के शिक्षण संस्थानों में संचार कौशल, प्रक्रिया व पद्धति के बारे में तो पढाया-सिखाया जाता है, लेकिन समसामयिक महत्व के विषय छूटते रहे हैं। वैसे भी आजकल सामान्य पत्रकारिता का जमाना नहीं रहा। संचारकों के लिए संचार विशेषज्ञता के साथ ही मुद्दों, विषयों की विशेषज्ञता या कम से कम सामान्य समझ आवश्यक है। इसलिये भी चौपाल का महत्त्व प्रासंगिक हो जाता है।

वर्त्तमान जनसंचार माध्यमों में राजनीति, अपराध और मनोरंजन की बढ़ती हिस्सेदारी चिंता की बात है। माध्यमों में ज्ञानात्मक पक्ष उपेक्षित है। संचार माध्यमों पर यूरोपीय, नकारात्मक, और अमानवीय पक्ष हावी है। माध्यमों को भारतीय, सकारात्मक और मानवीय होने की जरूरत है। गैर-जरूरी सन्देश लेना पाठक, श्रोता एवं दर्शक के लिए मजबूरी है। माध्यमों में मनोरंजन का ही बोलबाला है, से शिक्षा लगभग नदारद है। मीडिया चौपाल का एक उद्देश्य यह भी है कि समाज की जरूरतों के लिहाज से विकास, विज्ञान, पर्यावरण, संस्कृति और गैर राजनीतिक, गैर-आपराधिक तथा गैर-मनोरंजनात्मक संदेशों को भी वाजिब स्थान और समय मिले। इसके लिये संचारकों का प्रशिक्षण और उन्मुखीकरण जरूरी है। इसीलिये ग्वालियर और दिल्ली के मीडिया चौपाल में देश और मध्यप्रदेश की नदियों को जानने-समझने के साथ ही नदी-विज्ञान और पारिस्थितकी, जनमाध्यमों में नदियां : स्थिति, चुनौतियां और सम्भावनायें, नदियों का पुनर्जीवन : संचारकों की भूमिका, नदियों की रिपोर्टिंग के लिये इसके विविध पक्षों को भी जाना-समझा। इस चौपाल की खास बात यह रही कि प्रतिभागियों ने नदी के सैद्धांतिक पक्ष के परिपेक्ष्य में नदी की वास्तविकता को देखा। इसके लिए चौपाल में नदी भ्रमण का खास सत्र रखा गया था। चौपालियों, विशेषरूप से विद्यार्थियों ने नाले में बदल गये नदी को खुली आंखों से देखा। वे न सिर्फ नदियों के विज्ञान और इतिहास से रू-ब-रू हुए, बल्कि वे ये भी जान सके कि कोई नदी नाले में कैसे तब्दील हो जाती है। इसी प्रकार हरिद्वार मीडिया चौपाल में संचारकों ने विकास की अवधारणाओं और प्रारूपों (मॉडल) समझने की कोशिश की। चित्रकूट मीडिया चौपाल में ग्रामोदय की अवधारणा, नीति और कार्य-योजना को जानने की कोशिश की गई।

जानकारी लेने-देने, जागरूक करने, सम्वेदंशीलता बढाने, शिक्षित करने और प्रेरित करने के साथ ही व्यवहार परिवर्तन में मीडिया (जनसंचार माध्यमों) के महत्त्व को सभी ने स्वीकार किया है। मीडिया के समुचित, योजनाबद्ध और रणनीतिक उपयोग के द्वारा किसी अभियान, जनान्दोलन और कार्यक्रम की सफलता सुनिश्चित की जा सकती है। सूचना, शिक्षा और मनोरंजन सहित अनेक परिवर्तनकारी उद्देश्यों के लिये जन-माध्यमों का उपयोग किया जाता रहा है। किंतु कुछ वर्षों से यह देखा जा रहा है कि वर्तमान मीडिया में अधिकांश स्थान और समय – राजनीति, अपराध और मनोरंजन को मिलता है। विकास-पर्यावरण, संस्कृति-परंपरा, ज्ञान- विज्ञान से संबंधित मुद्दे या तो मीडिया में दरकिनार हैं या हैं भी तो बहुत कम। सम्प्रेषण में विषय-विशेषज्ञता को कम महत्त्व दिया जा रहा है। मीडिया संस्थानों और मीडिया शिक्षण में विशेष-विषय का ज्ञान और इसके प्रभावी संप्रेषण की प्रेरणा भी बहुत कम है। यही कारण है कि विकास, ज्ञान-विज्ञान और अन्य विषयों से संबंधित रिपोर्टिंग, फीचर लेखन, आलेख और साक्षात्कार आदि में गुणात्मक और मात्रात्मक कमी दिखाई देती है। अत: विभिन्न वर्गों में जागरुकता, संवेदनशीलता और व्यवहार परिवर्तन के लिये विशेष प्रकार की संप्रेषण योजना और रणनीति की आवश्यकता महसूस की जाती है। वर्तमान समय में यह बेहद आवश्यक है कि विकास-पर्यावरण, संस्कृति-परंपरा, ज्ञान- विज्ञान आदि विषयों को मीडिया में वाजिब स्थान और समय मिले। लगातार कोशिशों के बावजूद भी राजनीति, अपराध और मनोरंजन आवश्यकता से अधिक स्थान और समय ले रहा है। इसमें से कुछ समय और स्थान की कटौती हो और यह विकास संबधी विषयों को भी मिले।

संचार माध्यमों में संचारकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। संचारक ही संचार माध्यमों को आम जनता के लिए सरल, सहज, अनुकूल और उपयोगी बनाता है। इसीलिये संचार माध्यमों के सशक्तिकरण के साथ-साथ संचारकों का सशक्तिकरण भी आवश्यक है। कहा जा सकता है कि जन-माध्यमों के विकास के साथ-साथ उपयोगकर्ताओं और संचारकों का माध्यम सशक्तिकरण भी उतना ही जरूरी है। मीडिया चौपाल की अवधारणा संचार माध्यमों के साथ ही उसके उपयोगकर्ताओं और संचारकों के क्षमता संवर्धन से भी जुडी है। संचार माध्यम (मीडिया) के क्षेत्र में संगठित और असंगठित दोनों स्तरों पर प्रयास हो रहा है। इन प्रयासों को एक मंच प्रदान करना, संचार के विविध माध्यमों (मीडिया) के अभिसरण (कन्वर्जेन्स) के लिए प्रयास करना, संचारकों का नेटवर्किंग करना तथा इसके द्वारा विकासपरक संचार को बढावा देना मीडिया चौपाल का प्रमुख उद्देश्य रहा है। मीडिया चौपाल के माध्यम से यह कोशिश होती रही है कि जन-कल्याण के मुद्दे, खासकर- विज्ञान, विकास, समाज-संस्कृति भी जन-माध्यमों के एजेंडे का अधिक से अधिक हिस्सा बन सकें।

संचारकों के सशक्तिकरण और विकासात्मक संचार को विस्तार देने के उद्देश्य से वर्ष 2012 में इस सिलसिले की शुरुआत हुई थी। शुरुआती दो चौपाल भोपाल में आयोजित किया गया। 12 अगस्त, 2012 को “विकास की बात विज्ञान के साथ – नये मीडिया की भूमिका”  विषय पर एक दिवसीय चौपाल का आयोजन भोपाल में हुआ था, जबकि 14-15, सितम्बर, 2013 को “जन-जन के लिए विज्ञान, जन जन के लिए मीडिया” विषय पर वेब संचालक, ब्लॉगर्स, सोशल मीडिया संचारक और आलेख-फीचर लेखकों का जुटान भी भोपाल में ही हुआ था। इस चौपाल में नया मीडिया, नई चुनौतियां (तथ्य, कथ्य और भाषा के विशेष सन्दर्भ में), आमजन में वैज्ञानिक दृष्टि का विकास और जनमाध्यमों की भूमिका, विकास कार्य-क्षेत्र और मीडिया अभिसरण (कन्वर्जेंस) की रूपरेखा, आपदा प्रबंधन और नया मीडिया, नये मीडिया के परिपेक्ष्य में जन-माध्यमों का अंतर्संबंध तथा सुझाव और भावी रूपरेखा आदि विषयों पर चर्चा हुई थी।

इसी प्रकार वर्ष 2014 में नद्य: रक्षति रक्षित: की अवधारणा पर केन्द्रित “नदी संरक्षण में मीडिया की भूमिका” पर मीडिया चौपाल का आयोजन नई दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान में 11-12 अक्टूबर को हुआ। वर्ष 2015 में जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर में 11-12 अक्टूबर को मीडिया चौपाल नदी सरक्षण के विषय पर ही सम्पन्न हुआ।

वर्ष 2016 में 22-23 अक्टूबर को हरिद्वार में विज्ञान और विकास के साथ मीडिया के अंतर्संबंधों को समझने-बूझने के लिए चौपाली जुटे। इस बार दिव्य प्रेम सेवा मिशन के संस्थापक आशीष गौतम और सामाजिक कार्यकर्ता संजय चतुर्वेदी जी के आमंत्रण पर हरिद्वार में चौपाल लगना तय हुआ । दैव-संयोग से चौपालियों को देवभूमि में जुटने का सौभाग्य मिला। देवभूमि के आमंत्रण, सहयोग, सहूलियत और सद्भाव के प्रति दिव्य प्रेम सेवा मिशन परिवार के प्रति सभी चौपालियों का कृतज्ञ होना स्वाभाविक ही था। इस चौपाल के सफल आयोजन में देव संस्कृति विश्वविद्यालय की भूमिका स्मरणीय और उल्लेखनीय है। गत वर्ष चौपालियों को चित्रकूट से दीनदयाल शोध संस्थान का बुलावा मिला। वर्ष 2017 में 25 से 27 फरवरी तक ग्रामोदय मीडिया चौपाल का आयोजन हुआ।
इन आयोजनों में जनसंचार माध्यमों और संबन्धित विषयों के विशेषज्ञों सहित विद्यार्थियों, संचारकों, अध्यापकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सीखने-सिखाने का प्रयास किया। अपने अनुभवों को साझा करते हुए बेहतर विकासात्मक संचार की सम्भावनाओं पर विमर्श भी किया। संचार को लोकहितकारी और लोक-कल्याणकारी भावनाओं से पोषित करने की योजना और रणनीति पर भी बात की गई। देवी अहिल्या विवि इंदौर, इंक मीडिया स्कूल (सागर), अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विवि वर्धा, खालसा कालेज नई दिल्ली, भारतीय जनसंचार संस्थान नई दिल्ली, दीनदयाल शोध संस्थान जैसी संस्थाओं की भीगीदारी के साथ ही विषय-विशेषज्ञ के रूप में श्री के. एन. गोविन्दाचार्य, श्री अनुपम मिश्र, श्री सुरेश प्रभु, श्री राममाधव, श्री प्रभात झा, श्री जयभान सिंह पवैया, श्री अनिल माधव दवे, श्री दिनेश मिश्र, प्रो. प्रमोद के. वर्मा (महानिदेशक, म.प्र. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद), प्रो. बृज किशोर कुठियाला (कुलपति, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल), डा. रमेश पोखरियाल निशंक, प्रो. रामेश्वर मिश्र पंकज, प्रो. हेमंत जोशी (विभागाध्यक्ष, पत्रकारिता विभाग, भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली), ड़ा. मनोज पटेरिया (अपर महानिदेशक, प्रसार भारती), श्री के. जी. सुरेश (वरिष्ठ पत्रकार), श्री प्रेम शुक्ल (संपादक, सामना हिन्दी), प्रो. कुसुमलता केडिया, श्री अभय महाजन, ड़ा. सुबोध मोहंती (विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली), श्री गिरीश उपाध्याय (वरिष्ठ पत्रकार), , श्री उमाकांत उमराँव, श्री आर.एल फ्रांसिस (वरिष्ठ स्तम्भकार), श्री प्रकाश हिन्दुस्तानी (वरिष्ठ पत्रकार और ब्लागर), सुश्री स्मिता मिश्रा (स्वतंत्र पत्रकार, नई दिल्ली), श्री जयदीप कर्णिक (वेब दुनिया), श्री रमेश शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार), श्री रितेश पाठक (संपादक, योजना, नई दिल्ली), श्री अनिल पाण्डेय, श्री यशवंत सिंह, श्री हर्षवर्धन त्रिपाठी, श्री केसर सिंह, श्री संजय तिवारी, श्री उमेश चतुर्वेदी, श्री राजकुमार भारद्वाज, सुश्री कायनात काजी, श्री अनुराग पुनेठा, श्री हितेश शंकर, श्री स्वदेश सिंह, श्रीमती सुभद्रा राठौर, श्रीमती संध्या शर्मा, श्रीमती सरिता अरगरे, श्रीमती संगीता पुरी, सुश्री वर्तिका तोमर, सहित लगभग 500 से अधिक पत्रकारों, स्तंभ-लेखकों, वेब संचालक, ब्लॉगर्स, सोशल मीडिया संचारक, आलेख-फीचर लेखकों और संचार के शोधार्थी व अध्येता इस चौपाल से जुड़ चुके हैं। यह कारवां बढ़ता जा रहा है। विषय विशेषज्ञों और संचारकों का मेल एक शुभ संकेत है।

मीडिया चौपालों की सफलता ने मीडिया महोत्सव के लिए प्रेरित किया। तय यह हुआ कि वर्ष भर देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग मुद्दों पर क्षेत्रीय स्तर पर छोटे-बड़े मीडिया चौपालों का आयोजन होगा। फिर साल के अंत में देशभर के चौपाली मीडिया महोत्सव के लिए जुटेंगे। इसमें पत्र-पत्रिका, रेडियो-टेलीविजन, वेब-ब्लॉग व डिजिटल माध्यमों के कर्मशील तो होंगे ही साहित्य-सिनेमा, कला-संस्कृति के धर्मी भी होंगे। पुस्तकों और फिल्मों का प्रदर्शन भी होगा और रंगकर्म की प्रस्तुति भी। संचार माध्यमों की पुरातन और नूतन विधाओं का संयोग होगा यह मीडिया महोत्सव। इस बार मीडिया महोत्सव भारत की सुरक्षा पर केन्द्रित है।

“मीडिया महोत्सव – 2018” का आयोजन 31 मार्च-01 अप्रैल, 2018 (चैत्र पूर्णिमा- वैशाख कृष्ण प्रथमा, विक्रम संवत 2075) को भोपाल (मध्यप्रदेश, भारत) स्थित ‘मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद् परिसर में प्रस्तावित है l आयोजन में मध्यप्रदेश विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद्, निस्केयर (सीएसआईआर), राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, राजीव गांधी प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, देव संस्कृति विश्वविद्यालय (हरिद्वार), भोज (मुक्त) विश्वविद्यालय, इंडिया वाटर पोर्टल, विवेकानंद केंद्र (भोपाल), विश्व संवाद केंद्र, जनसंपर्क विभाग (म.प्र. शासन) सहित अनेक शासकीय व स्वैच्छिक संस्थानों की साझेदारी रहेगी। 
मीडिया महोत्सव दो दिवसीय और लगभग 8 सत्रों में संपन्न होगा। इन सत्रों में भारत की सुरक्षा के विविध आयाम और जनसंचार माध्यमों से सम्बंधित विभिन्न मुद्दों – भारत की सुरक्षा : देश, काल, परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में, साइबर एवं डिजिटल युग में व्यक्ति, परिवार एवं समाज की सुरक्षा सुरक्षा, पांथिक एवं साम्प्रदायिक/मजहबी कट्टरता के दौर में सुरक्षा, भारत की सुरक्षा और मीडिया : अंतर्संबंधों की पड़ताल, भारत की सुरक्षा : राजनीति और मीडिया की नजर में, भारत की सुरक्षा : मीडिया, विज्ञान और टेक्नॉलाजी, सभ्यतागत एवं सांस्कृतिक सुरक्षा की चुनौतियां आदि पर गंभीर विमर्श होगा। 

मीडिया क्षेत्र में रूचि रखने वाले विद्यार्थी, अध्येता, अध्यापक, पत्रकार, साहित्यकार, ब्लॉगर, वेब संचालक, लेखक, मीडिया एक्टिविस्ट, संचारक, मत-निर्माता, रंगकर्मी, कला-धर्मी अपना पंजीयन करें और मीडिया महोत्सव में सहभागी हों इसी में हमारे प्रयासों की सार्थकता है।

साभार : http://www.spandanfeatures.com/media-chaupal-to-media-festival-empowerment-of-communicators/

मार्च 23, 2018

राग भैरवी की धुन पर थिरके कदम


स्ट्रिंग्स एंड स्टेप्स महोत्सव 2018 में हुई कत्थक से सजी कई मनमोहिनी प्रस्तुतियाँ
नई दिल्ली: भारत की सां​स्कृतिक धरोहर है यहां का संगीत और नृत्य। कुछ ऐसा ही देखने को मिला इंडिया ​हेबिटेट सेंटर के स्टेनिन सभागार में जहां संगीत  के सुरें पर ​थिरकते कदम देखकर ऐसा लगा मानो वंसत की मनमोहनी ​ऋतु के अवतरण हो रहा हो जनजन का मन लुभाने के लिए। विगत सोमवार को ढलती शाम के साथ संगीत और नृत्य की मधुर तरंगिनी से सजी स्ट्रिंग्स एंड स्टेप्स महोत्सव 2018 में कई मनमोहक प्रस्तुतियां सम्पन्न हुई।

कार्यक्रम का शुभारंभ केन्द्रीय मंत्री रामदास अठावलेभूतपूर्व राज्यपाल छत्तीसगढ शेखर दत्त, डीसीपी दिल्ली जितेन्द्रमणि त्रिपाठी और संस्था के प्रमुख नील रंजन मुखर्जी के साथ संगीता मजूमदार ने दीप प्रज्ज्वलन के साथ किया। इसके बाद स्ट्रिंग्स एंड स्टेप्स की छात्राओं ने कत्थक नृत्य से सजी गणेश वंदना की प्रस्तुती दी। इस मोहक प्रस्तुती के बाद संगीता और कुमार प्रदीप्तो के युगल कत्थक नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत की गई शिवस्तुति ने दर्शकों को तालियां बजाने के लिए बाध्य कर दिया। कत्थक वेशभूषा में दोनों कलाकारों ने सत्यम, शिवम, सुंदरम की रचना को जीवंत किया। इस नृत्य में उनका साथ दे रहे थे हवाइन गिटार पर नील रंजन मुखर्जी जोकि शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता हैं। क्रमश: शिव पार्वती के लास्य और ताडंव नृत्य में दोनों कलाकारों की प्रतिभा के साथसाथ साजों पर संगत कर रहे, गायन और पढंत कलाकारों को भी खासा योगदान रहा। नर्तकों के आपसी तालमेल, नालिनी निगम का मधुर गायन, मयूख भट्टाचार्य द्वारा पढंत, जुहेब अहमद के तबले की थाप, हिमाशुं दत्त की बांसूरी की धुन और भानू सिसोदिया के पखावज ने कार्यक्रम की सांस्कृतिक प्रस्तुती के लिहाज से शिखर पहुंचा दिया। 

कार्यक्रम के अंतिम चरण में देशविदेश में हंस वीणा के ख्याति लब्ध वादक बरून कुमार पाल और तबला वादक उस्ताद अकरम खान के साथ राग वसंत की मधुरिम तान छेड़ी। जिसने श्रोतओं को मंत्रमुग्ध कर दिया। कार्यक्रम का संचालन राधिका ने किया। इस मौके पर केन्द्रीय मंत्री रामदास अठावले ने कहा नृत्य और संगीत से सजी यह प्रस्तुतियां वास्तव में बहुत सराहनीय हैं। उन्होंने स्ट्रिंग्स एंड स्टेप्स की संगीता मजूमदार की भूरि भूरि प्रशंसा की और कहा कि इस तरह के नृत्य से भारतीय संस्कृति के मानदंडों को बाखूबी स्थापित किया जा सकता है।

वो कभी हमारे नहीं हो सकते.....









आसमान के किसी कोने से झांकती-ताकती होंगी,
इस देश को निहारती होंगी,
भगत, राजगुरू और सुखदेव की रूहें,
फूट फूट कर रोती होंगी,
और सिसकते हुये सहसा कह उठती होंगी,
देखो साथियों इसलिए हम झूले थे फांसी पर,
देखो कैसे हमको-तुमको,
हम सब साथियों को,
बाँट लिया है,
इन्होने राजनीति करने के लिए,
आज हमारी तस्वीरें लगाएंगे,
फूल मालाएँ चढ़ाएँगे,
गीत गाएँगे, जलसे होंगे,
हमारी शहादत पर होंगे बड़े बड़े व्याख्यान,
लेकिन ये सब केवल एक दिन का है,
इसके बाद फिर से ये
कभी आजाद के नाम पर,
कभी सुभाष के नाम पर,
कभी महात्मा के नाम पर,
कभी अशफाक़ के नाम पर,
कभी बिस्मिल के नाम पर,
कभी हमारे नाम पर, कभी तुम्हारे नाम पर,
करने लगेंगे राजनीति.....
एक पल को सब ठहर सा जाता है,
फिर से आवाज आती है
साथियों लेकिन न जाने क्यों फिर से,
भारत में फिर पैदा होने का मन करता है,
फिर से इन देश तोड़कों से लड़ने का मन करता है,
इन्हें बताने का मन करता है,
तुम स्वार्थ के लिए मेरे विचार बेचते हो,
करते हो भारत को तोड़ने का षड्यंत्र,
मेरे विचारों को बेचना बंद करो,
हमने भारत की अखंडता के स्वप्न सँजोये थे,
इन को समझाना चाहता हूँ,
भारत एक है, अखंड है,
भारत है तो तुम हो, ये न होगा तो कुछ भी न होगा,
भारत को भारत रहने दो,
और कहना चाहता हूँ
भगत, सुखदेव, राजगुरु, आजाद, बिश्मिल, अशफाक़ को,
मत बांटो,
माँट बांटो हमें,
धर्म और राजनीतिक विचार के नाम पर,
हम अखंड भारत का विचार हैं,
हम भारत हैं,
जिन्हे देश से प्यार नहीं,
जो देश को बेचने का स्वप्न पालते हैं,
वो कभी हमारे नहीं हो सकते
वो कभी हमारे नहीं हो सकते.....

फ़रवरी 02, 2018

चुनावी लकीर खींचता बजट


लोगों को उम्मीद थी की, आने वाले लोकसभा चुनावों से पहले मोदी सरकार, ऐसा बजट लेकर आएगी जो आपके सारे सपने पूरे कर देगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। और अधिकतर लोग उदास हैं। क्योंकि सैलरी पाने वाले लोगों के लिए बजट का मतलब होता है, टैक्स स्लेव में कमी। मेरी भी उम्मीद यही थी। नोटेबंदी और जीएसटी के बाद ट्रैक पर लौटती भारतीय अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से ये एक अच्छा बजट है। बजट के सहारे सरकार ने एक बड़ी लकीर खींचने की कोशिश की है, जो आगे आने वाले सरकारों की दिशा धारा तय करेगी। मेरा अनुमान था बजट का मूल बिन्दु स्व उद्यमिता के इर्द गिर्द होगा और टैक्स में कटौती के साथ मुद्रा योजना के सहारे स्व उद्यमिता को बढ़ावा देने का प्रयास यह सरकार प्रभावी रूप से करेगी। बजट के देखे तो पाएंगे कि इस बजट के मूल में स्व-उद्यमिता ही है। जिसके सहारे सरकार स्व रोजगार सृजन की नई इबारत लिखने का प्रयास कर रही है।

किसानों से लेकर, उद्यमियों के लिए जो भी घोषणाएँ बजट में की गईं हैं, उनके मूल मे स्व उद्यमिता के सहारे स्व रोजगार ही है। बजट में किसानों और गरीबों के लिए जो भी नए प्रावधान किए गए हैं उस लक्ष्य को प्राप्त करना वर्तमान सरकार और आगे आने वाली सरकारों की ज़िम्मेदारी है। मसलन एक ही योजना 'आयुष्मान योजना' को लें। इस योजना में 10 करोड़ गरीब परिवारों को 5 लाख प्रतिवर्ष तक का इलाज़ के खर्चे की बात सरकार ने की है। अब इस के वर्तमान और भविष्यगत अर्थ समझें। नीति आयोग की मानें तो वर्तमान में योजना अभी शुरू होने में लगभग एक साल लग जाएगा। इसका मतलब यह हुआ कि योजना का असल प्रभाव आगामी चुनावों और उसके बाद आने वाले बजट में देखने को मिलेगा। बीजेपी के लिए स्वछता के बाद स्वास्थ्य सबसे बड़ा मुद्दा होने वाला है। क्या विपक्षी पार्टियां 5 लाख से ज्यादा का वादा कर पाएँगी। शायद नहीं। इसके अलावा लघु और माध्यम उद्योगों के लिए जो प्रावधान किए गए हैं, मेक इन इंडिया के लिहाज वो बहुत ही प्रभावशाली सिद्ध होंगे। असल में आगामी चुनावों के लिए विपक्ष के सारे मुद्दे बीजेपी ने इस बजट के सहारे छीनने के कोशिश की है या छीन लिए हैं। इसलिए कल बजट के बाद कोई भी विपक्षी प्रवक्ता प्रभावी ढंग से बजट को गलत नहीं बता पाया। शाम होते होते अर्थ शास्त्रियों ने कुछ एक चीजों को काउंटर करने कि कोशिश की, लेकिन वो भी बहुत कुछ नहीं कह पाये। इसलिए ये कहा जा सकता है की यह बजट राजनीतिक परिपक्वता और आगामी चुनावों को ध्यान में रखकर बनाया गया है, इसमें कही गई बातें आगामी चुनावों में प्रभावी मुद्दा बनेगी।

जनवरी 22, 2018

मध्यप्रदेश में काँग्रेस चलेगी बीजेपी की राह....

मध्य प्रदेश का चुनाव कई मायनों में बड़ा होगा। क्योंकि सभवतः नवम्बर 2018 में मध्यप्रदेश की 230 विधानसभा सीटों पर होने वाला यह चुनाव लोकसभा के चुनावों से तुरंत पहले होगा या फिर लोकसभा चुनावों के साथ ही सम्पन्न हो। ऐसे में प्रदेश की दोनों बड़ी पार्टियों ने चुनावी तैयारियां शुरू कर दी हैं। एक तरफ जहां विगत 15 सालों से प्रदेश में बीजेपी के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ‘एकात्म यात्रा’ के सहारे वोटों को रिझाने का काम कर रहें हैं वहीं दूसरी काँग्रेस गुजरात से लेकर आए ‘नरम हिन्दुत्व’ के सहारे इस और कदम बढ़ा रही है। ये सब तो ठीक है। मंदिर-मस्जिद जाना वोटों को अपने पक्ष मे करने का पुराना तरीका है। वर्तमान में देखें तो मध्यप्रदेश की विधानसभा में 165 सीटें बीजेपी, 58 काँग्रेस, 4 बहुजन समाजवादी पार्टी और 3 सीटें निर्दलीय विधायकों के पास हैं। ऐसे मे कॉंग्रेस के लिए बहुमत के आंकड़े तक पहुंचाना एक बड़ी चुनौती है और बीजेपी के लिए चुनौती है अपनी सीटें बचाने की। हालांकि 20 जनवरी को निकाय उपचुनावों में बीजेपी को झटका लगा है और पार्टी को 5 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है। वही काँग्रेस ने 5 सीटें अधिक जीतकर अपने होने का एहसास प्रदेश बीजेपी को करवाया है।
काँग्रेस निकाय उपचुनाव सुखद अनुभूति लेकर आए हैं लेकिन पार्टी का पेंच उलझता है वहाँ आकार, जब वो अपने लिए मुख्यमंत्री पद के एक अदद चेहरे की तलाश करते हैं। क्योंकि पार्टी अधिकांश कार्यकर्ता मुख्यमंत्री के चेहरे की जल्द घोषणा के पक्ष में हैं, और इस क्रम में ग्वालियर के युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम कई बार सामने आया है। लेकिन अभी तक काँग्रेस का कोई भी पदाधिकारी इस पर खुल कर बोलने को तैयार नहीं है। इसके अलावा कमलनाथ का नाम भी की कई लोगों की जुवान पर है। दोनों पक्षों के लोग दिल्ली यानि पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी तक अपनी बात पहुँचने और अपने पक्ष में समीकरण साधने कि पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।
वहीं काँग्रेस पार्टी कुछ बड़े नेता बिना चेहरे के चुनाव लड़ने की रणनीति के पक्षधर हैं। इनकी माने तो पार्टी में अभी इसके लिए मंथन चल रहा हैं, परंतु अभी कुछ भी निर्धारित नहीं है। काँग्रेस विधायक दल के नेता अजय सिंह नाम न घोषित करने के पक्ष में हैं उनकी दलील है कि 1956 से जब से मध्य प्रदेश का गठन हुआ है तब से मुख्यमंत्री के नाम के पूर्व घोषणा उनकी परंपरा में नहीं है। ऐसे में सब कुछ अभी अधपका सा लग रहा है। लेकिन अंदर के सूत्रों कि माने तो पार्टी इस मामले में फूँक-फूँक कर कदम रख रही है और साथ ही बीजेपी द्वारा उत्तर प्रदेश मे अपनाए गए फॉर्मूले को अपनाने पर विचार कर रही है। इसके साथ ही पार्टी के कार्यकर्ताओं को नए पन और नए अध्यक्ष और नए बदलावों का एहसास करने के लिए ये भी कहा गया है कि टिकट को लेकर जो भी निर्णय होगा वो भोपाल में ही होगा कोई भी इस काम के लिए दिल्ली नहीं जाएगा। पार्टी के नियमों को तोड़ने पर कार्रवाई कि भी बात भी की जा रही है।
आपको याद होगा बीजेपी ने उत्तर प्रदेश चुनावों से पहले मुख्यमंत्री पद के लिए कई दावेदारों कि खबरें मीडिया कि सुर्खियां बनी और आखिर में अब बीजेपी भारी बहुमत से चुनाव जीत गई तब लीक से हटकर योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुखिया बनाया गया। काँग्रेस भी इसी फॉर्मूले पर काम कर रही है। पार्टी का मानना है कि जीतने ज्यादा लोगों के चेहरे के साथ चुनाव लड़ा जायेगा उतने ज्यादा लोगों के समर्थकों का साथ मिलेगा और पार्टी चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करेगी। जिस तरह उत्तरप्रदेश में बीजेपी को इस रणनीति का फायदा मिला था। हालांकि इसका नुकसान भी है, मान लेते हैं कि पार्टी किसी तरह बहुमत के स्तर तक पंहुच जाती है, जिसकी संभावना कम है, तो क्या अंत में पार्टी के लोग उत्तर प्रदेश में बीजेपी कि तरह संयम दिखा पाएंगे। ऐसे में काँग्रेस के लिए यह मुश्किल खड़ी हो सकती है, मुख्यमंत्री किसको बनाए? और राजनीतिक समीकरणों को किस तरह से साधें। फिलहाल तो ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम इसमें सबसे ऊपर है, उसके बाद नंबर आता है कमलनाथ का। परंतु यदि काँग्रेस बीजेपी कि राह पर चल निकलती है तो फिर क्षेत्रीय, जातीय और प्रादेशिक समीकारणों को साधने वाले कई और नाम भी इस लिस्ट में जुड़ेंगे। ये देखने वाली बात होगी कि काँग्रेस आगामी चुनावों में इस रणनीति का बीजेपी कि तरह फायदा ले पाती है या फिर नुकसान उठाती। 
यह आलेख आप मध्य प्रदेश जनसंदेश के 22/01/2018 के अंक में भी पढ़ सकते हैं। 

बज उठे मन वीणा का राग


गुनगुनी धूप के साथ प्रकृति का कण कण झंकृत है। जैसे वीणा की धुन पर थिरक रही प्रकृति सुंदरी पीतवर्ण की चुनरी ओढ़े, रंग बिरंगी तितलियों के साथ दौड़ रही है और मानवीय चेतना में एक नई ताजगी का संचार कर रही है। कड़कड़ाती ठंड खुद को समेट रही है और लौट रही है वहाँ जहां से वो आई थी। आम के पेड़ों पर मंजरियों की उठती सुगंध और कोयल की कूक मन को तरंगित कर रही है। हर ओर मानो खुशियों का स्व संचार हो रहा है। पक्षियों की कलरव, पीली-पीली सरसों, पेड़ों का शृंगार करने उभरी हुई नई कोपलें सब-कुछ मन को उल्लासित कर रहा है। आज का वसंत कुछ ऐसा ही है, जो मानवीय मनों पर अनुदान और वरदान की बारिश कर रहा है। आशा की नई किरणें विश्वास के नव सूर्य के साथ, मन को नव उमंग देने को आतुर है। जो हम सबको रंगना चाहती पीताभ रंग में, जो प्रतीक है प्रेम का, उमंग का, उत्साह का, उल्लास का। ये ज्यों ज्यों गढ़ा होता जाएगा इससे उठाने लगेगी बलिदान और विजय की खुशबू। ये वसंत ही तो है जो देता है संदेश निरंतरता के साथ हर पर विजयगान करने का, परिवर्तन को स्वीकार करने का और आगे बढ़ाने का तब तक, जब तक तुम्हें तुम्हारा उच्चतर लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। ये एक ऐसा राग है जिसकी सिद्धि गर हो जाए तो जीवन संगीतशास्त्र आनंद से भर उठता है। वसंत एक ऐसा राग है जिसे दिन-रात, सप्ताह, महीने, साल, किसी भी पहर में गाया बजाया जा सकता है। 
वसंत ईश्वर की सर्वव्यापकता का प्रतीक है। भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं की-वसंत ऋतुनाम कुसुमाकर: अर्थात ऋतुओं में, मैं कुसुमाकर अर्थात वसंत के रूप में हूँ। वसंत को काम अर्थात सौन्दर्य का पुत्र कहा जाता है, जो एक से एक मनोरम दृश्य रचता है। चाहें वह पतझड़ के बाद जीवन का संचार हो, हर और नव पुष्पों के सहारे खुशियों का संचार हो या फिर संचार हो ऊर्जा का। सब कुछ वसंत में संभव है। हेमंत के ठिठुरन से निकलकर प्रकृति की सुंदरता सर्वत्र मनोहारी चित्रावली प्रस्तुत कर रही है। इन सबके इतर वसंत ज्ञान की देवी माँ सरस्वती का प्रकट्य दिवस भी है। यह माना जाता है की मानव की उत्पत्ति से पहले सब मौन था, तब सृष्टा ने वाक का आविर्भाव किया, और जिस दिन यह सब घटित हुआ वह दिन था वसंत पंचमी का। जिसके सहारे प्रकृति के सभी जीवों को मधुर वाणी मिली। माँ सरस्वती इस वाणी की देवी हैं। प्रकट्येनसरस्वत्यावसंत पंचमी तिथौ। विद्या जयंती सा तेन लोके सर्वत्र कथ्यते॥ माँ सरस्वती के सहारे वाक का प्रकट्य हुआ इसलिए वो सृजन की निरंतरता की प्रेरणा देती हैं। माँ चतुर्भुज रूप में वीणा से आनंद, पुस्तक से ज्ञान और माला के सहारे वैराग्य का संचार करती हैं। माता सरस्वती का वाहन हंस हमें सिखाता है कि हम विवेकवान बनें।  माँ सरस्वती एकात्मता का संदेश भी देती हैं, ऐसे मान्यता है की सरस्वती तीन देवियों लक्ष्मी, शक्ति और सरस्वती का सम्मलित स्वरूप है। अगर हम सरस्वती अर्थात् विद्या के वाहन बनाना चाहते हैं तो हमें अपने आचरण, अपने व्यवहार में मयूर जैसी सुंदरता लानी होगी। इस दिन उनकी पूर्ण मनोभाव से पूजा-अर्चना करनी चाहिए। हमें स्वयं और दूसरों के विकास की प्रेरणा लेनी चाहिए। इस दिन हमें अपने भविष्य की रणनीति माता सरस्वती के श्री चरणों में बैठकर निर्धारित कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त अपने दोष, दुर्गुणों का परित्याग कर अच्छे मार्ग का अनुगमन कर सकते हैं। जिस मार्ग पर चलकर हमें शांति और सुकून प्राप्त हो। मां सरस्वती हमें प्रेरणा देती हैं श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की। इस दिन हम पीले वस्त्र धारण करते हैं, पीले अन्न खाते हैं, हल्दी से पूजन करते हैं। पीला रंग प्रतीक है समृद्धि का। इस कारण वसंत पंचमी हम सबको समृद्धि के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है।

            सनातन धर्म की यह विशेषता है कि यहाँ लगभग हर रोज कोई न कोई त्यौहार होता है। शायद इसीलिए इसको संसार में उच्च स्थान प्राप्त है।  वसंत पंचमी का पर्व भी इसी क्रम मे आता है। वास्तव में मानसिक उल्लास का और आंतरिक आह्लाद के भावों को व्यक्त करने वाला पर्व है। यह पर्व सौंदर्य विकास और मन की उमंगों में वृद्धि करने वाला माना जाता है। वसंत ऋतु में मनुष्य ही नहीं जड़ और चेतन प्रकृति भी श्रृंगार करती हैं। प्रकृति का हर परिवर्तन मनुष्य के जीवन में परिवर्तन अवश्य लाता है। इन परिवर्तनों को यदि समझ लिया जाए तो जीवन का पथ सहज और सुगम हो जाता है। वसंत के मर्म को समझें, वसंत वास्तव में आंतरिक उल्लास का पर्व है। वसंत से सीख लें और मन की जकड़न को दूर करते हुए, सुखी जीवन का आरंभ आज और अभी से करें। जिससे इस वसंत में मन वीणा का राग बज उठे। 
इस लेख को आप अमर उजाला सलेक्ट में भी पढ़ सकते हैं
http://epaper.amarujala.com/2018/01/22/cp/ac/06/06.pdf

जनवरी 03, 2018

जातीय विभाजन के सहारे राजनीति

महाराष्ट्र के कोरेगाँव में जो हुआ वो निश्चित रूप निंदनीय है, लेकिन जो हो रहा है, उसे तार भूत से तो जुड़ते ही हैं, साथ ही भविष्य की राजनीति की पटकथा भी लिखने की कोशिश भी हो रही है। 2014 में लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत के साथ, बहुमत से बीजेपी की सरकार बनी। बीते चार सालों में बीजेपी ने यूपी, गुजरात के साथ-साथ गोवा, मणिपुर, हिमाचल, बिहार, जम्मू-कश्मीर में खुद के बलबूते और सहयोगी पार्टियों के सहारे सरकार बनाई। इसी बीच बीजेपी सरकार ने अपनी नीतियों से सहारे बहुसंख्यक राजनीति की शुरुआत की और धीरे-धीरे विपक्ष के द्वारा दिया गया सांप्रदायिक पार्टी होने का तमगा भी बीजेपी ने उतार फेंका। बीजेपी ने जो भी चुनाव जीते उनकी खास बात थी की दलित, ओबीसी और हिन्दुत्व से दूर जा चुकी अनेक जतियों के लोग भी बीजेपी कि बहुसंख्यक राजनीति के एजेंडे के साथ जुड़े। इनका बहुसंख्यकीकरण हुआ। यह विपक्ष के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया और इस तोड़ खोजने के कोशिशें तेज हो गईं।
अगर बीते दो साल की दलित हिंसा की घटनाओं पर नजर डालें तो पाएंगे उनका स्वरूप एक जैसा ही मिलेगा। सबसे पहले बिहार चुनावों में इस जातीय ध्रुवीकरण की कोशिश हुयी, और बीजेपी सरकार नहीं बना पाई। ये जातीय ध्रुवीकरण की राजनीति का पहला प्रयोग था। परंतु आरजेडी के साथ जेडीयू की अनबन ने बीजेपी को वह सरकार बनाने का मौका दे दिया। उसके बाद जो राजनीति अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और जातिगत राजनीति को दरकिनार करते हुये आगे बढ़ती रही, 2017 के उत्तरप्रदेश चुनावों ने सबसे बड़ा झटका दिया और क्षेत्रीय और जाति के आधार पर बनी राजनीतिक पार्टियों के अवसान के रूप में देखा जाने लगा।
गुजरात चुनावों से पूर्व सितंबर-अक्तूबर 2017 में राज्य से दलितों पर अत्याचार की कई खबरें आयी। कई सच्ची थी, कई झूठी साबित हुई। लेकिन खबरों को मीडिया ने जिस तरह से परोसा उसके अनुसार, गुजरात सरकार को दलितों का उत्पीडन करने वाली सरकार की तरह प्रस्तुत किया। उना कांड तो हर किसी की जुबान पर था। ये जातीय ध्रुवीकरण की राजनीति का दूसरा प्रयोग था। इस ध्रुवीकरण का फायदा भी काँग्रेस को मिला, क्योंकि गुजरात में हुये दलित आंदोलन का काँग्रेस ने खुलकर मुखर होकर साथ दिया। काँग्रेस को इसका फायदा भी मिला, काँग्रेस ने अनुसूचित जाति में 6 फीसदी, अनुसूचित जनजाति में 2 फीसदी और पटेल तथा अन्य पिछड़ा वर्ग की सीटों पर क्रमश 6 फीसदी और 4 फीसदी वोट बढ़ाए। काँग्रेस अपने युवा नेताओं के सहयोग से गुजरात चुनावों एक मजबूत पार्टी बनकर उभरी। लेकिन सरकार बीजेपी की ही बनी। परंतु एक खास बात हुई, इन चुनावों ने जातीय ध्रुवीकरण की आधारशिला को मजबूती प्रदान की। इसके साथ ही देश के कुछ विश्वविध्यालयों में घटी घटनाओं को देखेंगे तो पाएंगे कि वहाँ भी जाति कहीं न कहीं मुख्य मुद्दा रही है।
गुजरात चुनावों के बाद कुछ लेखों के माध्यम से लालू यादव को चारा घोटाले में दोषी ठहराए जाने के बाद, कुछ दिग्गज पत्रकारों के माध्यम से बीजेपी को सवर्ण राजनीति के तराजू पर तौलने कि एक कोशिश कि गई। जिससे इस जातीय ध्रुवीकरण कि राजनीति में ईंट और सीमेंट जुटाया जा सके।  बहुसंख्यक होती राजनीति के दौर में अभी तक किसी भी विपक्षी पार्टी के पास इसकी काट नहीं नहीं थी। लेकिन नरम हिन्दुत्व कि आवरण ओढ़कर, जातीय ध्रुवीकारण को काट के रूप में पेश किया जा रहा है और कर्नाटक को साधने की कोशिशें हो रही हैं। कर्नाटक में दलित मतदाताओं की संख्या निर्णायक स्थिति में है। बीजेपी संगठन ये जानने में असमर्थ रहा या फिर जानकार अंजान बना रहा।
महाराष्ट्र के कोरेगाँव में जाति कि दीवार उठाकर बहुसंख्यक को बांटने का प्रयास किया जा रहा है। बीते एक साल कि जिन बातों का जिक्र यहाँ किया गया है वो तो अभी कि राजनीति का लब्बो-लुआब है। इससे पूर्व भी सामाजिक न्याय के बहाने समाज को बांटने के कई किस्से आपको भूत के पेट में खोजने पर मिल ही जाएंगे। आंकलन करें तो पाएंगे कोरेगाँव की ताजा घटना पिछली कई घटनाओं का प्रतिरूप है। जिसके सहारे बहुसंख्यकों में दरार डालकर नव-पार्थक्यवाद की विभाजक रेखा खींची जा रही है और मीडिया उसे हवा देने की भरसक कोशिशें कर रहा है। शतरंज की भांति बिसात बिछाई जा रही, जो अभी हैं वो केवल मोहरे हैं। उन्हें क्योंकि उन्हें हमेशा ही इस विभाजक राजनीति का मोहरा बनाया गया लेकिन उन्हें क्या मिला ये तो सबका पता है। लेकिन जो हो रहा है विश्व मानचित्र पर एक अलग छाप छोड़ते भारत के लिए घातक है।

यह लेख http://www.nationpost.in/politics-on-cast-division/ पर भी प्रकाशित हुआ है। 


जनवरी 01, 2018

बहुसंख्यक राजनीति के नाम होगा साल 2018

साल 2017 में भारतीय राजनीति में कई परिवर्तन देखने को मिले। इसमे सबसे बड़ा परिवर्तन था बहुसंख्यक राजनीति का आरंभ होना। यह राजनीतिक दृष्टि बहुत बड़ा पैराडाइम शिफ्ट है। आजादी के बाद जो राजनीति अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के ताने बाने के साथ चलती और बहुसंख्यकों के दरकिनार करते हुये आगे बढ़ती रही, 2017 के उत्तरप्रदेश चुनावों ने उसमे रोड़ा अटका दिया। काँग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों ने बहुसंख्यकों के बीच जो स्थान छोड़ दिया था, उसे बीजेपी ने बाखूबी भरा और उत्तर प्रदेश को कुछ इस तरह फतेह किया की बाकी पार्टियों की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई। यहाँ तक कि इसे क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के अवसान के रूप में देखा जाने लगा।
2017 का उत्तर प्रदेश चुनाव राजनीति के बहुसंख्यकीकरण का आरंभ था। इसी के साथ बीजेपी ने ऐसी ताकत हासिल कर ली की वो बाकी पार्टियों का भी एजेण्डा तय करने लगी। बाकी बची पार्टियां भी उसके प्रतिउत्तर में बहुसंख्यक राजनीति के सहारे अपनी जमीन बचाने या फिर बनाने का प्रयास करने लगी। गुजरात चुनाव में राहुल द्वारा नरम हिन्दुत्व का सहारा लेना, और खुद को जनेऊधारी हिन्दू साबित करने का निरर्थक प्रयास भी इसी का हिस्सा रहा। हालांकि गुजरात में काँग्रेस ने सम्मान जनक सीटें जरूर हासिल की, जो राहुल के भविष्य के नेता की संभावनाओं को पुष्ट कर सकती हैं। काँग्रेस ने नरम हिदुत्व का चोला सिर्फ इसलिए ओढ़ा जिससे वो बीजेपी के हिन्दुत्व की काट कर सके। लेकिन इस प्रयास ने काँग्रेस को कहीं न कहीं बीजेपी की तरह ही बहुसंख्यक राजनीतिक दल की तरह पेश कर दिया। काँग्रेस के राजनीतिक हितचिंतक इसे काँग्रेस का बीजेपीकरण कह रहे हैं। और इसे देश की राजनीति के लिए घातक बता रहे हैं। उनका मानना है कि गुजरात कि पराजय से सबक लेकर, नरम हिन्दुत्व कि राजनीति छोड़कर काँग्रेस को कुछ अलग करना चाहिए। क्योंकि नरम हिंदुत्व भारतीय समाज के लिए गंभीर चुनौती है। लेकिन अशोक गहलोत का हाल ही में दिया गया हिंदूत्व समर्थित बयान उनकी चिंताओं को और ज्यादा बढ़ा देता है। इसके साथ ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमाइया का खुद को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी से बेहतर हिन्दू बताना और चुनावों मई नरम हिन्दुत्व को ही बीजेपी के खिलाफ हथियार बनाना उनकी चिंताओं को दोगुना कर देता है। सनद रहे कि आगामी मार्च-अप्रैल 2018 में कर्नाटक के चुनाव होने हैं, वहाँ ये नरम हिन्दुत्व काँग्रेस के लिए भारी पड़ सकता है।
समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव भी बीजेपी के हिन्दुत्व को बुरा और सपा के हिन्दुत्व को अच्छा बताने लिए 2019 कि रणनीति तैयार कर रहे हैं। उधर पश्चिम बंगाल उपचुनावों में टीएमसी ने चुनाव भले ही जीता हो लेकिन बीजेपी के वहाँ भी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है और ग्रामीण इलाकों में बीजेपी कि बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुये, राज्य कि मुखिया ममता बेनर्जी ने भी खुद को सहिष्णु हिन्दू दिखने कि तैयारी कर ली है।  हाल ही में 26 दिसम्बर को गंगासागर भ्रमण के दौरान कपिलमुनि के आश्रम में लगभग एक घंटा बिताया। जो इस बात का संकेत करता है कि पश्चिम बंगाल में भी बहुसंख्यक राजनीति कि बात देर सबेर आरंभ हो चुकी है। 
वर्ष 2017 में एक खास बात और हुई, दलित, ओबीसी और हिन्दुत्व से दूर जा चुकी अनेक जतियों के लोग भी बीजेपी कि बहुसंख्यक राजनीति के एजेंडे के साथ जुड़े। इनका भी बहुसंख्यकीकरण हो रहा है। जो बाकी पार्टियों के लिए चिंता का विषय है। हालांकि कुछ लेखों के माध्यम से लालू यादव को चारा घोटाले में दोषी ठहराए जाने के बाद, कुछ दिग्गज पत्रकारों के माध्यम से बीजेपी को सवर्ण राजनीति के तराजू पर तौलने कि एक कोशिश कि गई। जिससे इस बहुसंख्यक होती राजनीति में कुछ स्थान बनाया जा सके लेकिन वो बुरी तरह फेल हो गया। बीजेपी इसकी काट पहले ही कर चुकी, 2014 में नरेंद्र मोदी को ओबीसी चेहरे साथ प्रधानमंत्री बनाकर और उसके बाद अनुसूचित जाति के रामनाथ कोविन्द को राष्ट्रपति बनाकर। इसके अलावा बीजेपी के कई मुख्यमंत्री भी ओबीसी आदि जातियों से आते हैं।

बहुसंख्यक होती राजनीति के इस दौर में अभी तक किसी भी विपक्षी पार्टी के पास इसकी काट नहीं नहीं है। सभी बीजेपी के एजेंडे के साथ चल रहे हैं या यूं कहा जाए आजादी के 70 साल बाद देश के बहुसंख्यकों ने पहली बार अपने वोट का महत्व समझा है और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, जातीय तुष्टिकरण के बहाने सत्ता में आ बैठी थी, उन्हें बहुसंख्यकों ने आईना दिखाया और बताया कि वो भी इसी देश में रहते हैं। 2018 का आगाज भी इसी तरह कि राजनीति के साथ होगा और इसी बहुसंख्यक राजनीति के नाम होगा, क्योंकि किसी भी विपक्षी पार्टी पास अभी तक इसका कोई भी विकल्प मौजूद नहीं है।