जनवरी 22, 2018

मध्यप्रदेश में काँग्रेस चलेगी बीजेपी की राह....

मध्य प्रदेश का चुनाव कई मायनों में बड़ा होगा। क्योंकि सभवतः नवम्बर 2018 में मध्यप्रदेश की 230 विधानसभा सीटों पर होने वाला यह चुनाव लोकसभा के चुनावों से तुरंत पहले होगा या फिर लोकसभा चुनावों के साथ ही सम्पन्न हो। ऐसे में प्रदेश की दोनों बड़ी पार्टियों ने चुनावी तैयारियां शुरू कर दी हैं। एक तरफ जहां विगत 15 सालों से प्रदेश में बीजेपी के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ‘एकात्म यात्रा’ के सहारे वोटों को रिझाने का काम कर रहें हैं वहीं दूसरी काँग्रेस गुजरात से लेकर आए ‘नरम हिन्दुत्व’ के सहारे इस और कदम बढ़ा रही है। ये सब तो ठीक है। मंदिर-मस्जिद जाना वोटों को अपने पक्ष मे करने का पुराना तरीका है। वर्तमान में देखें तो मध्यप्रदेश की विधानसभा में 165 सीटें बीजेपी, 58 काँग्रेस, 4 बहुजन समाजवादी पार्टी और 3 सीटें निर्दलीय विधायकों के पास हैं। ऐसे मे कॉंग्रेस के लिए बहुमत के आंकड़े तक पहुंचाना एक बड़ी चुनौती है और बीजेपी के लिए चुनौती है अपनी सीटें बचाने की। हालांकि 20 जनवरी को निकाय उपचुनावों में बीजेपी को झटका लगा है और पार्टी को 5 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है। वही काँग्रेस ने 5 सीटें अधिक जीतकर अपने होने का एहसास प्रदेश बीजेपी को करवाया है।
काँग्रेस निकाय उपचुनाव सुखद अनुभूति लेकर आए हैं लेकिन पार्टी का पेंच उलझता है वहाँ आकार, जब वो अपने लिए मुख्यमंत्री पद के एक अदद चेहरे की तलाश करते हैं। क्योंकि पार्टी अधिकांश कार्यकर्ता मुख्यमंत्री के चेहरे की जल्द घोषणा के पक्ष में हैं, और इस क्रम में ग्वालियर के युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम कई बार सामने आया है। लेकिन अभी तक काँग्रेस का कोई भी पदाधिकारी इस पर खुल कर बोलने को तैयार नहीं है। इसके अलावा कमलनाथ का नाम भी की कई लोगों की जुवान पर है। दोनों पक्षों के लोग दिल्ली यानि पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी तक अपनी बात पहुँचने और अपने पक्ष में समीकरण साधने कि पुरजोर कोशिश कर रहे हैं।
वहीं काँग्रेस पार्टी कुछ बड़े नेता बिना चेहरे के चुनाव लड़ने की रणनीति के पक्षधर हैं। इनकी माने तो पार्टी में अभी इसके लिए मंथन चल रहा हैं, परंतु अभी कुछ भी निर्धारित नहीं है। काँग्रेस विधायक दल के नेता अजय सिंह नाम न घोषित करने के पक्ष में हैं उनकी दलील है कि 1956 से जब से मध्य प्रदेश का गठन हुआ है तब से मुख्यमंत्री के नाम के पूर्व घोषणा उनकी परंपरा में नहीं है। ऐसे में सब कुछ अभी अधपका सा लग रहा है। लेकिन अंदर के सूत्रों कि माने तो पार्टी इस मामले में फूँक-फूँक कर कदम रख रही है और साथ ही बीजेपी द्वारा उत्तर प्रदेश मे अपनाए गए फॉर्मूले को अपनाने पर विचार कर रही है। इसके साथ ही पार्टी के कार्यकर्ताओं को नए पन और नए अध्यक्ष और नए बदलावों का एहसास करने के लिए ये भी कहा गया है कि टिकट को लेकर जो भी निर्णय होगा वो भोपाल में ही होगा कोई भी इस काम के लिए दिल्ली नहीं जाएगा। पार्टी के नियमों को तोड़ने पर कार्रवाई कि भी बात भी की जा रही है।
आपको याद होगा बीजेपी ने उत्तर प्रदेश चुनावों से पहले मुख्यमंत्री पद के लिए कई दावेदारों कि खबरें मीडिया कि सुर्खियां बनी और आखिर में अब बीजेपी भारी बहुमत से चुनाव जीत गई तब लीक से हटकर योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुखिया बनाया गया। काँग्रेस भी इसी फॉर्मूले पर काम कर रही है। पार्टी का मानना है कि जीतने ज्यादा लोगों के चेहरे के साथ चुनाव लड़ा जायेगा उतने ज्यादा लोगों के समर्थकों का साथ मिलेगा और पार्टी चुनावों में अच्छा प्रदर्शन करेगी। जिस तरह उत्तरप्रदेश में बीजेपी को इस रणनीति का फायदा मिला था। हालांकि इसका नुकसान भी है, मान लेते हैं कि पार्टी किसी तरह बहुमत के स्तर तक पंहुच जाती है, जिसकी संभावना कम है, तो क्या अंत में पार्टी के लोग उत्तर प्रदेश में बीजेपी कि तरह संयम दिखा पाएंगे। ऐसे में काँग्रेस के लिए यह मुश्किल खड़ी हो सकती है, मुख्यमंत्री किसको बनाए? और राजनीतिक समीकरणों को किस तरह से साधें। फिलहाल तो ज्योतिरादित्य सिंधिया का नाम इसमें सबसे ऊपर है, उसके बाद नंबर आता है कमलनाथ का। परंतु यदि काँग्रेस बीजेपी कि राह पर चल निकलती है तो फिर क्षेत्रीय, जातीय और प्रादेशिक समीकारणों को साधने वाले कई और नाम भी इस लिस्ट में जुड़ेंगे। ये देखने वाली बात होगी कि काँग्रेस आगामी चुनावों में इस रणनीति का बीजेपी कि तरह फायदा ले पाती है या फिर नुकसान उठाती। 
यह आलेख आप मध्य प्रदेश जनसंदेश के 22/01/2018 के अंक में भी पढ़ सकते हैं। 

बज उठे मन वीणा का राग


गुनगुनी धूप के साथ प्रकृति का कण कण झंकृत है। जैसे वीणा की धुन पर थिरक रही प्रकृति सुंदरी पीतवर्ण की चुनरी ओढ़े, रंग बिरंगी तितलियों के साथ दौड़ रही है और मानवीय चेतना में एक नई ताजगी का संचार कर रही है। कड़कड़ाती ठंड खुद को समेट रही है और लौट रही है वहाँ जहां से वो आई थी। आम के पेड़ों पर मंजरियों की उठती सुगंध और कोयल की कूक मन को तरंगित कर रही है। हर ओर मानो खुशियों का स्व संचार हो रहा है। पक्षियों की कलरव, पीली-पीली सरसों, पेड़ों का शृंगार करने उभरी हुई नई कोपलें सब-कुछ मन को उल्लासित कर रहा है। आज का वसंत कुछ ऐसा ही है, जो मानवीय मनों पर अनुदान और वरदान की बारिश कर रहा है। आशा की नई किरणें विश्वास के नव सूर्य के साथ, मन को नव उमंग देने को आतुर है। जो हम सबको रंगना चाहती पीताभ रंग में, जो प्रतीक है प्रेम का, उमंग का, उत्साह का, उल्लास का। ये ज्यों ज्यों गढ़ा होता जाएगा इससे उठाने लगेगी बलिदान और विजय की खुशबू। ये वसंत ही तो है जो देता है संदेश निरंतरता के साथ हर पर विजयगान करने का, परिवर्तन को स्वीकार करने का और आगे बढ़ाने का तब तक, जब तक तुम्हें तुम्हारा उच्चतर लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। ये एक ऐसा राग है जिसकी सिद्धि गर हो जाए तो जीवन संगीतशास्त्र आनंद से भर उठता है। वसंत एक ऐसा राग है जिसे दिन-रात, सप्ताह, महीने, साल, किसी भी पहर में गाया बजाया जा सकता है। 
वसंत ईश्वर की सर्वव्यापकता का प्रतीक है। भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं की-वसंत ऋतुनाम कुसुमाकर: अर्थात ऋतुओं में, मैं कुसुमाकर अर्थात वसंत के रूप में हूँ। वसंत को काम अर्थात सौन्दर्य का पुत्र कहा जाता है, जो एक से एक मनोरम दृश्य रचता है। चाहें वह पतझड़ के बाद जीवन का संचार हो, हर और नव पुष्पों के सहारे खुशियों का संचार हो या फिर संचार हो ऊर्जा का। सब कुछ वसंत में संभव है। हेमंत के ठिठुरन से निकलकर प्रकृति की सुंदरता सर्वत्र मनोहारी चित्रावली प्रस्तुत कर रही है। इन सबके इतर वसंत ज्ञान की देवी माँ सरस्वती का प्रकट्य दिवस भी है। यह माना जाता है की मानव की उत्पत्ति से पहले सब मौन था, तब सृष्टा ने वाक का आविर्भाव किया, और जिस दिन यह सब घटित हुआ वह दिन था वसंत पंचमी का। जिसके सहारे प्रकृति के सभी जीवों को मधुर वाणी मिली। माँ सरस्वती इस वाणी की देवी हैं। प्रकट्येनसरस्वत्यावसंत पंचमी तिथौ। विद्या जयंती सा तेन लोके सर्वत्र कथ्यते॥ माँ सरस्वती के सहारे वाक का प्रकट्य हुआ इसलिए वो सृजन की निरंतरता की प्रेरणा देती हैं। माँ चतुर्भुज रूप में वीणा से आनंद, पुस्तक से ज्ञान और माला के सहारे वैराग्य का संचार करती हैं। माता सरस्वती का वाहन हंस हमें सिखाता है कि हम विवेकवान बनें।  माँ सरस्वती एकात्मता का संदेश भी देती हैं, ऐसे मान्यता है की सरस्वती तीन देवियों लक्ष्मी, शक्ति और सरस्वती का सम्मलित स्वरूप है। अगर हम सरस्वती अर्थात् विद्या के वाहन बनाना चाहते हैं तो हमें अपने आचरण, अपने व्यवहार में मयूर जैसी सुंदरता लानी होगी। इस दिन उनकी पूर्ण मनोभाव से पूजा-अर्चना करनी चाहिए। हमें स्वयं और दूसरों के विकास की प्रेरणा लेनी चाहिए। इस दिन हमें अपने भविष्य की रणनीति माता सरस्वती के श्री चरणों में बैठकर निर्धारित कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त अपने दोष, दुर्गुणों का परित्याग कर अच्छे मार्ग का अनुगमन कर सकते हैं। जिस मार्ग पर चलकर हमें शांति और सुकून प्राप्त हो। मां सरस्वती हमें प्रेरणा देती हैं श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की। इस दिन हम पीले वस्त्र धारण करते हैं, पीले अन्न खाते हैं, हल्दी से पूजन करते हैं। पीला रंग प्रतीक है समृद्धि का। इस कारण वसंत पंचमी हम सबको समृद्धि के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है।

            सनातन धर्म की यह विशेषता है कि यहाँ लगभग हर रोज कोई न कोई त्यौहार होता है। शायद इसीलिए इसको संसार में उच्च स्थान प्राप्त है।  वसंत पंचमी का पर्व भी इसी क्रम मे आता है। वास्तव में मानसिक उल्लास का और आंतरिक आह्लाद के भावों को व्यक्त करने वाला पर्व है। यह पर्व सौंदर्य विकास और मन की उमंगों में वृद्धि करने वाला माना जाता है। वसंत ऋतु में मनुष्य ही नहीं जड़ और चेतन प्रकृति भी श्रृंगार करती हैं। प्रकृति का हर परिवर्तन मनुष्य के जीवन में परिवर्तन अवश्य लाता है। इन परिवर्तनों को यदि समझ लिया जाए तो जीवन का पथ सहज और सुगम हो जाता है। वसंत के मर्म को समझें, वसंत वास्तव में आंतरिक उल्लास का पर्व है। वसंत से सीख लें और मन की जकड़न को दूर करते हुए, सुखी जीवन का आरंभ आज और अभी से करें। जिससे इस वसंत में मन वीणा का राग बज उठे। 
इस लेख को आप अमर उजाला सलेक्ट में भी पढ़ सकते हैं
http://epaper.amarujala.com/2018/01/22/cp/ac/06/06.pdf

जनवरी 03, 2018

जातीय विभाजन के सहारे राजनीति

महाराष्ट्र के कोरेगाँव में जो हुआ वो निश्चित रूप निंदनीय है, लेकिन जो हो रहा है, उसे तार भूत से तो जुड़ते ही हैं, साथ ही भविष्य की राजनीति की पटकथा भी लिखने की कोशिश भी हो रही है। 2014 में लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत के साथ, बहुमत से बीजेपी की सरकार बनी। बीते चार सालों में बीजेपी ने यूपी, गुजरात के साथ-साथ गोवा, मणिपुर, हिमाचल, बिहार, जम्मू-कश्मीर में खुद के बलबूते और सहयोगी पार्टियों के सहारे सरकार बनाई। इसी बीच बीजेपी सरकार ने अपनी नीतियों से सहारे बहुसंख्यक राजनीति की शुरुआत की और धीरे-धीरे विपक्ष के द्वारा दिया गया सांप्रदायिक पार्टी होने का तमगा भी बीजेपी ने उतार फेंका। बीजेपी ने जो भी चुनाव जीते उनकी खास बात थी की दलित, ओबीसी और हिन्दुत्व से दूर जा चुकी अनेक जतियों के लोग भी बीजेपी कि बहुसंख्यक राजनीति के एजेंडे के साथ जुड़े। इनका बहुसंख्यकीकरण हुआ। यह विपक्ष के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में सामने आया और इस तोड़ खोजने के कोशिशें तेज हो गईं।
अगर बीते दो साल की दलित हिंसा की घटनाओं पर नजर डालें तो पाएंगे उनका स्वरूप एक जैसा ही मिलेगा। सबसे पहले बिहार चुनावों में इस जातीय ध्रुवीकरण की कोशिश हुयी, और बीजेपी सरकार नहीं बना पाई। ये जातीय ध्रुवीकरण की राजनीति का पहला प्रयोग था। परंतु आरजेडी के साथ जेडीयू की अनबन ने बीजेपी को वह सरकार बनाने का मौका दे दिया। उसके बाद जो राजनीति अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और जातिगत राजनीति को दरकिनार करते हुये आगे बढ़ती रही, 2017 के उत्तरप्रदेश चुनावों ने सबसे बड़ा झटका दिया और क्षेत्रीय और जाति के आधार पर बनी राजनीतिक पार्टियों के अवसान के रूप में देखा जाने लगा।
गुजरात चुनावों से पूर्व सितंबर-अक्तूबर 2017 में राज्य से दलितों पर अत्याचार की कई खबरें आयी। कई सच्ची थी, कई झूठी साबित हुई। लेकिन खबरों को मीडिया ने जिस तरह से परोसा उसके अनुसार, गुजरात सरकार को दलितों का उत्पीडन करने वाली सरकार की तरह प्रस्तुत किया। उना कांड तो हर किसी की जुबान पर था। ये जातीय ध्रुवीकरण की राजनीति का दूसरा प्रयोग था। इस ध्रुवीकरण का फायदा भी काँग्रेस को मिला, क्योंकि गुजरात में हुये दलित आंदोलन का काँग्रेस ने खुलकर मुखर होकर साथ दिया। काँग्रेस को इसका फायदा भी मिला, काँग्रेस ने अनुसूचित जाति में 6 फीसदी, अनुसूचित जनजाति में 2 फीसदी और पटेल तथा अन्य पिछड़ा वर्ग की सीटों पर क्रमश 6 फीसदी और 4 फीसदी वोट बढ़ाए। काँग्रेस अपने युवा नेताओं के सहयोग से गुजरात चुनावों एक मजबूत पार्टी बनकर उभरी। लेकिन सरकार बीजेपी की ही बनी। परंतु एक खास बात हुई, इन चुनावों ने जातीय ध्रुवीकरण की आधारशिला को मजबूती प्रदान की। इसके साथ ही देश के कुछ विश्वविध्यालयों में घटी घटनाओं को देखेंगे तो पाएंगे कि वहाँ भी जाति कहीं न कहीं मुख्य मुद्दा रही है।
गुजरात चुनावों के बाद कुछ लेखों के माध्यम से लालू यादव को चारा घोटाले में दोषी ठहराए जाने के बाद, कुछ दिग्गज पत्रकारों के माध्यम से बीजेपी को सवर्ण राजनीति के तराजू पर तौलने कि एक कोशिश कि गई। जिससे इस जातीय ध्रुवीकरण कि राजनीति में ईंट और सीमेंट जुटाया जा सके।  बहुसंख्यक होती राजनीति के दौर में अभी तक किसी भी विपक्षी पार्टी के पास इसकी काट नहीं नहीं थी। लेकिन नरम हिन्दुत्व कि आवरण ओढ़कर, जातीय ध्रुवीकारण को काट के रूप में पेश किया जा रहा है और कर्नाटक को साधने की कोशिशें हो रही हैं। कर्नाटक में दलित मतदाताओं की संख्या निर्णायक स्थिति में है। बीजेपी संगठन ये जानने में असमर्थ रहा या फिर जानकार अंजान बना रहा।
महाराष्ट्र के कोरेगाँव में जाति कि दीवार उठाकर बहुसंख्यक को बांटने का प्रयास किया जा रहा है। बीते एक साल कि जिन बातों का जिक्र यहाँ किया गया है वो तो अभी कि राजनीति का लब्बो-लुआब है। इससे पूर्व भी सामाजिक न्याय के बहाने समाज को बांटने के कई किस्से आपको भूत के पेट में खोजने पर मिल ही जाएंगे। आंकलन करें तो पाएंगे कोरेगाँव की ताजा घटना पिछली कई घटनाओं का प्रतिरूप है। जिसके सहारे बहुसंख्यकों में दरार डालकर नव-पार्थक्यवाद की विभाजक रेखा खींची जा रही है और मीडिया उसे हवा देने की भरसक कोशिशें कर रहा है। शतरंज की भांति बिसात बिछाई जा रही, जो अभी हैं वो केवल मोहरे हैं। उन्हें क्योंकि उन्हें हमेशा ही इस विभाजक राजनीति का मोहरा बनाया गया लेकिन उन्हें क्या मिला ये तो सबका पता है। लेकिन जो हो रहा है विश्व मानचित्र पर एक अलग छाप छोड़ते भारत के लिए घातक है।

यह लेख http://www.nationpost.in/politics-on-cast-division/ पर भी प्रकाशित हुआ है। 


जनवरी 01, 2018

बहुसंख्यक राजनीति के नाम होगा साल 2018

साल 2017 में भारतीय राजनीति में कई परिवर्तन देखने को मिले। इसमे सबसे बड़ा परिवर्तन था बहुसंख्यक राजनीति का आरंभ होना। यह राजनीतिक दृष्टि बहुत बड़ा पैराडाइम शिफ्ट है। आजादी के बाद जो राजनीति अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के ताने बाने के साथ चलती और बहुसंख्यकों के दरकिनार करते हुये आगे बढ़ती रही, 2017 के उत्तरप्रदेश चुनावों ने उसमे रोड़ा अटका दिया। काँग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों ने बहुसंख्यकों के बीच जो स्थान छोड़ दिया था, उसे बीजेपी ने बाखूबी भरा और उत्तर प्रदेश को कुछ इस तरह फतेह किया की बाकी पार्टियों की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई। यहाँ तक कि इसे क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियों के अवसान के रूप में देखा जाने लगा।
2017 का उत्तर प्रदेश चुनाव राजनीति के बहुसंख्यकीकरण का आरंभ था। इसी के साथ बीजेपी ने ऐसी ताकत हासिल कर ली की वो बाकी पार्टियों का भी एजेण्डा तय करने लगी। बाकी बची पार्टियां भी उसके प्रतिउत्तर में बहुसंख्यक राजनीति के सहारे अपनी जमीन बचाने या फिर बनाने का प्रयास करने लगी। गुजरात चुनाव में राहुल द्वारा नरम हिन्दुत्व का सहारा लेना, और खुद को जनेऊधारी हिन्दू साबित करने का निरर्थक प्रयास भी इसी का हिस्सा रहा। हालांकि गुजरात में काँग्रेस ने सम्मान जनक सीटें जरूर हासिल की, जो राहुल के भविष्य के नेता की संभावनाओं को पुष्ट कर सकती हैं। काँग्रेस ने नरम हिदुत्व का चोला सिर्फ इसलिए ओढ़ा जिससे वो बीजेपी के हिन्दुत्व की काट कर सके। लेकिन इस प्रयास ने काँग्रेस को कहीं न कहीं बीजेपी की तरह ही बहुसंख्यक राजनीतिक दल की तरह पेश कर दिया। काँग्रेस के राजनीतिक हितचिंतक इसे काँग्रेस का बीजेपीकरण कह रहे हैं। और इसे देश की राजनीति के लिए घातक बता रहे हैं। उनका मानना है कि गुजरात कि पराजय से सबक लेकर, नरम हिन्दुत्व कि राजनीति छोड़कर काँग्रेस को कुछ अलग करना चाहिए। क्योंकि नरम हिंदुत्व भारतीय समाज के लिए गंभीर चुनौती है। लेकिन अशोक गहलोत का हाल ही में दिया गया हिंदूत्व समर्थित बयान उनकी चिंताओं को और ज्यादा बढ़ा देता है। इसके साथ ही कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमाइया का खुद को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी से बेहतर हिन्दू बताना और चुनावों मई नरम हिन्दुत्व को ही बीजेपी के खिलाफ हथियार बनाना उनकी चिंताओं को दोगुना कर देता है। सनद रहे कि आगामी मार्च-अप्रैल 2018 में कर्नाटक के चुनाव होने हैं, वहाँ ये नरम हिन्दुत्व काँग्रेस के लिए भारी पड़ सकता है।
समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव भी बीजेपी के हिन्दुत्व को बुरा और सपा के हिन्दुत्व को अच्छा बताने लिए 2019 कि रणनीति तैयार कर रहे हैं। उधर पश्चिम बंगाल उपचुनावों में टीएमसी ने चुनाव भले ही जीता हो लेकिन बीजेपी के वहाँ भी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है और ग्रामीण इलाकों में बीजेपी कि बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुये, राज्य कि मुखिया ममता बेनर्जी ने भी खुद को सहिष्णु हिन्दू दिखने कि तैयारी कर ली है।  हाल ही में 26 दिसम्बर को गंगासागर भ्रमण के दौरान कपिलमुनि के आश्रम में लगभग एक घंटा बिताया। जो इस बात का संकेत करता है कि पश्चिम बंगाल में भी बहुसंख्यक राजनीति कि बात देर सबेर आरंभ हो चुकी है। 
वर्ष 2017 में एक खास बात और हुई, दलित, ओबीसी और हिन्दुत्व से दूर जा चुकी अनेक जतियों के लोग भी बीजेपी कि बहुसंख्यक राजनीति के एजेंडे के साथ जुड़े। इनका भी बहुसंख्यकीकरण हो रहा है। जो बाकी पार्टियों के लिए चिंता का विषय है। हालांकि कुछ लेखों के माध्यम से लालू यादव को चारा घोटाले में दोषी ठहराए जाने के बाद, कुछ दिग्गज पत्रकारों के माध्यम से बीजेपी को सवर्ण राजनीति के तराजू पर तौलने कि एक कोशिश कि गई। जिससे इस बहुसंख्यक होती राजनीति में कुछ स्थान बनाया जा सके लेकिन वो बुरी तरह फेल हो गया। बीजेपी इसकी काट पहले ही कर चुकी, 2014 में नरेंद्र मोदी को ओबीसी चेहरे साथ प्रधानमंत्री बनाकर और उसके बाद अनुसूचित जाति के रामनाथ कोविन्द को राष्ट्रपति बनाकर। इसके अलावा बीजेपी के कई मुख्यमंत्री भी ओबीसी आदि जातियों से आते हैं।

बहुसंख्यक होती राजनीति के इस दौर में अभी तक किसी भी विपक्षी पार्टी के पास इसकी काट नहीं नहीं है। सभी बीजेपी के एजेंडे के साथ चल रहे हैं या यूं कहा जाए आजादी के 70 साल बाद देश के बहुसंख्यकों ने पहली बार अपने वोट का महत्व समझा है और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण, जातीय तुष्टिकरण के बहाने सत्ता में आ बैठी थी, उन्हें बहुसंख्यकों ने आईना दिखाया और बताया कि वो भी इसी देश में रहते हैं। 2018 का आगाज भी इसी तरह कि राजनीति के साथ होगा और इसी बहुसंख्यक राजनीति के नाम होगा, क्योंकि किसी भी विपक्षी पार्टी पास अभी तक इसका कोई भी विकल्प मौजूद नहीं है।