जेएनयू में कल जो हुआ वह निंदनीय
है। नकाबपोश गुन्डों ने एबीवीपी और वामपंथी विचारधारा के समर्थक विद्यार्थियों को पीट—पीटकर
घायल कर दिया। उसके बाद शुरू हुयी पार्टियों की राजनीति और मीडिया का खेल। आजकल मीडिया
खेल खेलने लगा है। दोनों ओर के मीडिया चैनलों एक दूसरे को विक्टिम की तरह पेश करना
शुरू किया। लेकिन सबसे उम्दा मीडिया सोशल मीडिया ने उनका खेल बिगाड़ दिया जो मीडिया
चैनल एबीवीपी और लेफ्ट के लिए बैटिंग कर रहे हैं अंत में उन्हें खबरों मं नकाबपोश लिखना
पड़ा। ये नकाबपोश कौन थे अभी तक किसी को नहीं पता। दोनों ओर में व्हाटस ऐप में स्क्रीनशॉट
वायरल हो चुके हैं। इनकी पड़ताल जारी है, और धीरे—धीरे एक और क्रांति का पटाक्षेप होता
दिख रहा है। ऐसे में जो राजनीतिक पार्टिंयां छात्रों के सहारे जमीन तलाशने में लगी
थीं वो एक बार ओर मुंह की खाती दिख रही हैं।
जेएनयू का आंदोलन फीस और हॉस्टल
नियमों में बदलाव के खिलाफ पिछले तीन महीने से चल रहा है, पहले कक्षाएं नहीं चलने दी
गईं। फिर परीक्षाओं का बहीष्कार किया और अब नामांकन प्रक्रिया को बाधित करने का दौर
जारी था। फिर भी कई विद्यार्थियों ने नए सत्र के लिए नामांकन किया। तीन जनवरी को नामांकन
प्रक्रिया को बाधित करने के लिए सर्वर रूम को बंद करने वाले छात्रों में भी नकाबपोश
शामिल थे। इनका वीडियो भी सोशल मीडिया पर तैर रहा है। इसमें कौन लोग हैं, वो आसानी
से पहचाने जा सकते हैं। इससे नाराज होकर आंदोलन कर रहे और नामांकन करने वाले छात्रों
के बीच मारपीट हुई। इसी बीच घटना में नकाबपोशों के आगमन होता है और फिर शुरू होती है
राजनीति।
इस जड़ तलाशने की कोशिश करते
हैं। ये कोई नया नहीं है अभी हाल ही में नागरिकता संसोधन विधेयक के समय भी जामिया और
एएमयू के छात्रों को मोहरे की तरह उपयोग किया गया। जाधवपुर की खबरों से भी आप लोग वाकिफ
होंगे। वहां राज्यपाल तक को घुसने नहीं दिया जाता। पूरे देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों
और कॉलेजों में छात्रों के बीच छुटपुट झडपें आम बात है। लेकिन जेएनयू है, दिल्ली में
है, मीडिया पास है तो पक्ष क्या विपक्ष और विपक्ष क्या दोनों अपने अपने लोगों के साथ
आसानी से खड़े हो जाते हैं और मीडिया को मुद्दा मिल जाता है, अपनी टीआरपी को रंगने
का। असल में मेरी समझ यह कहती है कि अधिकतर विपक्षी पर्टियों की जमीन खिसक रही है।
नागरिकता संसोधन विधेयक पर प्रारंभ में तो सहयोग मिला, वह भी अब ढलान की ओर है। ऐसे
में राजनीति के सबसे आसान मोहरे, विद्यार्थियों को भड़काओ, उनके आंदोलनों में खुद की
राजनीति घुसाओ और आग लगी रहने दो। जब तक दिल्ली चुनाव नहीं हो जाता।
ऐसे मौकों पर केन्द्र, राज्य
सरकार और पुलिस की भूमिका अहम हो जाती है। तीनों को चाहिए की राजनीति छोड़कर इस घटना
की निष्पक्ष जांच करायें और जो भी लोग इस विभत्सकृत्य में शामिल हैं, चाहें वो किसी
गुट के हों, उन्हें मीडिया के सामने लाकर, पूरे देश को बतायें कि ये लोग यहां पढ़ने
नहीं आते गुंडागर्दी करने आते हैं। लेकिन इसकी उम्मीद भी कम ही दिखती है, जेएनयू में
लगे नारों की जांच की फाइल दिल्ली की आप सरकार अब भी दबा के बैठी है जबकि कोर्ट कई
बार इस मामले में टिप्पणी कर चुका है। इस नउम्मीदी के दौर में हम केवल ये कर सकते हैं,
इसमें शामिल लोगों को जैसे हो सके बेनकाब करें। वैसे वो हो भी रहे हैं और होते भी रहेंगे।
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