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बहिरंग के दु:खों से थका—हारा युवा नरेन्द्र जब रामकृष्ण परमहंस के पास आता है तो वो वह अपने दु:खों के निवारण के लिए परमहंस से कहता है। मां तो आपकी सुनती है, उससे कहो कि मेरे दु:खों को दूर करे। ठाकुर कहते हैं तू खुद क्यो नहीं कहता मां से। मंगलवार का दिन था, ठाकुर के कहे अनुसार रात को मां के मंदिर में जाना था। उससे पूर्व ही मन भक्ति के भाव से सराबोर होने लगा। बहिरंग के साधक की अंतरंग यात्रा जब शुरू होती है तो शायद यही अनुभव होता होगा जो उस समय नरेन्द्र को हो रहे थे। जैसे ही नरेन्द्र मंदिर पहुंचे सब भूलकर बोले 'मां, मुझे भक्ति दो, विवेक दो, ज्ञान दो, वैराग्य दो। ऐसा कई बार हुआ। यहां से नरेन्द्र के विवेकानंद बनने की प्रक्रिया आरंभ होती है। एक युवा जिसे मुर्तियों और प्रतीकों की पूजा से घृणा थी उसका ईश्वर के मातृत्व के प्रति श्रद्धा भाव प्रगाढ़ हो गया। विवेकानंद के समझने के लिए भक्ति, विवेक, ज्ञान और वैराग्य की अवस्थाओं में उतरना होगा। जिसने ये सब पा लिया वही आत्मवत् सर्वभूतेषु का जयकार कर सकता है।
कोई भी 'नरेन्द्र' यूं
ही विवेकानंद नहीं बन जाता। उसके लिए भक्ति भाव से सराबोर होना होता है। ईश्वर के
प्रति विश्वास को सुदृढ़ करना होता है। श्रीमद् भगवत् गीता में भगवान कृष्ण कहते
हैं श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्। ज्ञान की प्राप्ति श्रद्धावान के लिए सरल है।
निश्चल भाव ईश्वर के प्रति समर्पण ही श्रद्धा है। युवा नरेन्द्र भी इसी भाव के साथ
मां काली के मंदिर में प्रवेश करता है और उसके विवेकानंद बनने की यात्रा आरंभ होती
है। इसीलिए भगवान
श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा
सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ अर्थात् सभी कर्मों को मुझ में लगा, मुझ में
में विश्वास कर। मेरी शरण में आ। मैं तुझे मुक्त कर दूंगा। नरेन्द्र से विवेकानंद
बनने का मूल मंत्र भी यही।