अप्रैल 30, 2012

सपा बनाम बसपा के फेर में यूपी की राजनीति


देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश, देश की सत्ता में अपनी हैसियत और भागीदारी के लिए एक अलग पहचान रखता है। देश के प्रधानमंत्री के बाद उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री की हैसियत सबसे अधिक दिखाई देती है। इसी हैसियत के कारण यह प्रदेश कई कद्दावर नेताओं की कर्मभूमि के साथ कई तरह के विवादों का केन्द्र बिंदू भी रहा। जिसमें से रामजन्म भूमि बनाम बाबरी मस्जिद विवाद के हम सब गवाह रहे हैं। वर्तमान में इस प्रदेश में एक नए तरह के विवाद को तूल दिया जा रहा है, वह है सपा बनाम बसपा विवाद। विगत वर्षों में यदि उत्तर प्रदेश की राजनीति का यदि सूक्ष्म विश्लेषण किया जाए तो हम पाएंगे कि यहां की राजनीति भावुकता की राजनीति हो गई है। इसलिए इस तरह के विवाद प्रदेश के लिए कितनी घातक सिद्ध हो सकते है वह यहां के एक लाख से अधिक गांवों में निवास करने वाली जनता इस मर्म को अच्छी तरह से समझती है।
2007-2012 तक प्रदेश में बसपा सरकार में की मुख्यमंत्री रहीं सुश्री मायावती ने सपा को नीचा दिखने तथा दलित महापुरूषों के नाम को ऊंचा दिखाने के लिए कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी और प्रदेश की जनता का अरबों रूपया पार्कों और स्मृति स्थलों के नाम पर लुटा दिया। इसके साथ ही बसपा सरकार ने लोहिया जैसे समाजवादी चिंतको नाम पर चलाई जा रही योजनाओं कुछ योजनाओं को भी किनारे कर दिया। 2012 में सपा को पुनः जनाधार मिला है, तो नई समाजवादी सरकार ने बसपा सरकार से द्वारा दलित महापुरूषों के नाम पर शुरू की गई सामाजिक क्षेत्र में बदलाव के अलावा स्मारकों और पार्कों में होने वाले खर्च में कटौती के साथ-साथ इनके मूलभूत ढांचें में परिवर्तन का मन बना लिया है। जिससे एक नए तरह के विवाद की आंधी प्रदेश में चल पड़ी है।
इसी कारण बाबा साहब आंबेडकर की इसी जंयती पर पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने लखनऊ में सामाजिक प्रेरणा स्थल पर चेतावनी दी कि अगर पार्कों और मूर्तियों से छेड़छाड़ की जाएगी तो कानून और व्यवस्था के समाने संकट खड़ा हो जाएगा और उसका खमियाजा पूरा प्रदेश भुगतेगा। प्रदेश को मौजूदा मुख्यमंत्री को यह बात हल्के में नहीं लेनी चाहिए क्योंकि इस परिप्रेक्ष्य में नब्बे के दशक में घटी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि को अपवित्र करने की घटना को देख सकते हैं। हालांकि प्रदेश में बसपा की राजनीति इस तरह की नहीं रही है, उसने सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय का नारा बुलंद किया, लेकिन बीते वर्षों में बसपा सरकार ने बाबा साहब, कांशीराम के साथ मायावती की मूर्तिंयां लगवाकर प्रदेश को एक प्रतीकवाद की राजनीति के चैराहे पर लाकर खड़ा कर दिया। हद तो तब हो गई जब इन स्मारकों और मूर्तिंयों को लगवाने के लिए संसाधन जुटाने के लिए लोकतांत्रिक मर्यादा और कानून को ताक पर रख दिया। इस सारे खेल में पैसा का गमन तो हुआ ही साथ ही एक नए तरह की राजनीति का जन्म हुआ जिसमें भावुकता ज्यादा और विकास की बात कम होती दिखाई दी। अब यदि इन पार्कों को कोई हस्तक्षेप करेगा तो बसपा सरकार के रहनुमाओं को दर्द तो होगा ही।
यह बात तो साफ है कि वर्तमान में न तो सपा के तेवर ठीक दिख रहे हैं और न ही बसपा के, लेकिन नए मुख्यमंत्री को इस तरह के विवाद का हल खोजना होगा। विवाद की राजनीति के तवे पर रोटी सेंकने वाले लोगों की दलीलों से दूर रहकर लोहियावादी दृष्टिकोण अपना होगा। अन्यथा प्रदेश फिर से मंदिर-मस्जिद विवाद की तरह, सपा बनाम बसपा के विवाद की आग में जल उठेगा।

अप्रैल 20, 2012

अपने उद्देश्यों से भटकता एपीआई


उच्च शिक्षा में सुधार और शोध की स्तरीयता के लिए बनाया गया एपीआई अपने उद्देश्यों से ही भटक गया है, जो इस मर्ज को बढ़ा ही रहा है।
माइक्रोसाफ्ट ऑफिस वर्ल्‍ड में कट-कॉपी-पेस्‍ट का विकल्प बनाने वाले ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि यह नुसखा शिक्षा के क्षेत्र में एक नई इबारत लिखेगा। न केवल शोधपत्रों में इसका बहुतायत से उपयोग होगा, बल्कि शिक्षा क्षेत्र के धुरंधर भी धड़ल्ले से इसका उपयोग करते दिखाई देंगे।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने विश्‍वविद्यालयों में प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और असिस्‍टेंट प्रोफेसरों की शैक्षणिक और व्‍यावहारिक समझ को परखने के लिए एक इंडेक्‍स का निर्माण किया है, जिसे एकेडमिक परफॉर्मेंस इंडेक्‍स (एपीआई) कहते हैं। इसमें प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और असिस्‍टेंट प्रोफेसरों द्वारा की जाने वाली विभिन्‍न गतिविधियों के लिए अंक निर्धारित हैं। इसके मुताबिक जिसे ज्‍यादा अंक मिलेगा, वह उतना बड़ा महारथी होगा। यूजीसी ने एपीआई का निर्माण इसलिए किया था, ताकि हमारे देश के विश्वविद्यालयों में शोध का स्‍तर सुधरे। प्रोफेसर कहलाने वाले अध्यापक खुद को विशेषज्ञ बनाएं और क्लास के स्तर पर ही नहीं, बाहरी स्तर पर भी खुद को दक्ष बनाएं।
पर वस्तुतः हो इसका उलटा रहा है। शैक्षणिक धुरंधरों के बीच नंबर बढ़ाने की एक होड़-सी लग गई है, हर कोई लेखक बन रहा है, हर कोई शोधकर्ता बन रहा है। रेफरीड, आईएसबीएन और आईएसएसएन नंबर वाले जर्नल्स की फौज कुकुरमुत्तों की तरह पनप रही है। इनमें शोधपत्र प्रकाशित करवाने के लिए बोली लगने लगी है, जो जितना ज्‍यादा पैसा देगा, उसका शोधपत्र छपेगा, चाहे वह निम्न स्‍तर का ही क्‍यों न हो।
विश्‍वविद्यालयों में एसोसिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर बनने का मानदंड भी एपीआई अंक हो गया। यहां तक कि तरक्‍की के लिए भी इसे ही आधार बनाया जाने लगा। यही वजह है कि हमारे देश में सामाजिक शोध की स्थिति आशाजनक प्रतीत नहीं होती। गुणवत्तापरक शोध के लिहाज से एपीआई जैसी प्रक्रिया महज एक दुर्भाग्‍य जैसी नजर आ रही है।
इसका एक और दुष्‍परिणाम यह हुआ कि देश में राष्‍ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों की बाढ़-सी आ गई। इसके चलते पिछले चार महीनों में चार राज्यों - दिल्‍ली, उत्तराखंड, मध्‍य प्रदेश, उत्तर प्रदेश में सामाजिक शोध से जुड़े पांच अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में मुझे भी भागीदारी का मौका मिला। इन संगोष्ठियों में एक हजार से अधिक शोधपत्र पढ़े गए। इनमें हिस्सा लेने वालों शोधकर्ताओं और शोध पत्रों की संख्‍या देखकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है। शोधकर्ताओं और शोधपत्रों की इतनी बड़ी संख्या के बारे में जिज्ञासा जताने पर एक साथी शोधकर्ता ने बताया कि यह एपीआई का जमाना है, जिसमें हर किसी को ज्‍यादा नंबर लाना है। हद तो तब हो गई, जब एक संगोष्‍ठी में एक प्रोफेसर साहब ने 11 शोध पत्रों में अपना नाम जोड़ दिया और वह खुद कई एकेडमिक सत्रों के अध्‍यक्ष भी रहे। इन संगोष्ठियों में पढ़े गए शोधपत्रों का स्‍तर देखने पर लगा कि हमारे देश में शोध अब तेजी से पतन की ओर अग्रसर है। संगोष्ठियां सर्टिफिकेट बांटने की दुकानों की तरह सजने लगी हैं। शोधकर्ता अब अध्ययन और अनुसंधान के सहारे नहीं, बल्कि कट-कॉपी-पेस्‍ट तकनीक का उपयोग कर खुद को प्रतिभाशाली दिखाने कोशिश करने लगे हैं। स्थिति यह है कि उच्‍च शिक्षा में सुधार की दृष्टि से बनाया गया एपीआई अपने मूल उद्देश्‍यों से भटक गई है। पहले से ही बदहाल उच्च शिक्षा और शोध की स्थिति सुधारने में एपीआई मर्ज की दवा बनने के बजाय इसे और भी गहरा रही है। ऐसे में जरूरी है कि यूजीसी इसका शीघ्र ही तोड़ खोजने की कोशिश करे, अन्यथा ज्यादातर भारतीय शोधकर्ता कट-कॉपी-पेस्‍ट का पुरोधा बन बैठेगा। फिर तो शैक्षणिक जगत में स्थिति और भी भयावह एवं अराजक बन जाएगी।
19 अप्रैल को अमर उजाला कांम्‍पेक्‍ट में छपे इस लेख को  आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं  http://compepaper.amarujala.com/pdf/2012/04/19/20120419a_012108.pdf

मार्च 19, 2012

नई सरकार पर चुनौतियां पुरानी

16 मार्च 2012 को कांम्‍पेक्‍ट अमर उजाला में प्रकाशित आलेख। अखिलेश सरकार की चुनौतियों पर विमर्श का करता सामयिक आलेख।

फ़रवरी 15, 2012

जैसो बंधन प्रेम कौ, तैसो बंध न और


प्रेम का अर्थ है किसी अस्तित्व को इस कदर टूटकर चाहना कि उसके अस्तित्व में ही अपनी हर ख्वाहिश का रंग घुलता हुआ महसूस हो। यही प्रेम है जो रामकृष्ण ने मां शारदामणि से किया, यही वह प्रेम है जिसने राधा-कृष्ण को विवाह बंधन में न बंधने के बाद पूज्य बना दिया। प्रेम परमेश्वर का रूप है, एक समर्पण है, यहां आकर्षण का लेशमात्र भी नहीं। जीवन में प्रेम आते ही आत्मीयता, सहकारिता और सेवा की उमंगें खुद-ब-खुद हिलोंरे मारने लगती है। जैसे-जैसे प्रेम पवित्र होता है, वैसे-वैसे प्रेमी अपने प्रियतम (आराध्य) के हृदय में समाता चला जाता है, तभी तो मीरा, सूर, कबीर जैसे प्रेमियों का जन्म होता है। सच्ची श्रद्धा की परिणति है प्रेम और यह पवित्रता से पूर्ण होता है।
प्रेम की खुशबू से वातावरण महक रहा है। प्रकृति का कण-कण प्रेमासिक्त हो अपने देवता के चरणवंदन कर रहा है। इसी बीच वेलेंटाइन डेका आना मानो ऐसा लगता है कि यह सब सदियों से निर्धारित रहा होगा। लेकिन वेलेंटाइन डेका इतिहास तो ज्यादा पुराना नहीं है! हां परंतु इस दिन के साथ जुड़ा शब्द प्रेमसृष्टि की उत्‍पत्‍ति के साथ ही उत्पन्न हुआ और इसके खात्मे पर ही अलविदा होगा। यही वह शब्द है जिसके सहारे प्रेमी, परमात्मा को प्रकृति के कण-कण में महसूस करने लगता है। उसे कुछ भी पराया नहीं लगता, वह बन जाता है सम्पूर्ण विश्व का मित्र। सबका दुःख दर्द उसे अपना लगने लगता है।
परंतु बदलते वक्त ने जीने के मायने बदल दिए। ऐसे में सोच, संबंध और मूल्यों का बदलना तो जायज़ ही था। अब इस बदलते दौर में प्रेम भी कैसे अछूता रहता। बदल गया मन की वीणा का राग। कहानी, कविताओं, उपन्यासों और पुरानी फिल्मों में देखा गया प्रेम गुजरे जमाने की बात हो गया। प्रेम अब भावना नहीं रहा। वैश्वीकरण की संस्कृति ने प्रेमको हृदय से निकालकर चैाराहे पर ला पटका और प्रेम गमले में उगने वाले उस पौधे सा गया, जिसे गिफ्टस, डेटिंग, कामना और वासना के पानी से प्रतिपल सींचना पड़ता है। नहीं तो वह मुरझा जाएगा। खो गई प्रेम की गहराई और इसकी गरिमा। प्रेम की पवित्रता का लोप हो गया और यह बन गया सिर्फ एक वेलेंटाइन डेको सफल बनाने का जरिया। वर्तमान की तेज दौड़ने वाली जि़दगी में प्रेम की दुकानें सजने लगी। जहां प्रेमोपहारों के नाम पर लोगों को ठगा जाने लगा। धीरे-धीरे प्रेम मशीनी हो चला। जिन मानवीय संबंधों की दुहाई देते हम थकते से नहीं थे। उन एहसासों के स्तर पर हमने सोचना बंद कर दिया। प्रेम में सर्वस्व अर्पण करने की परंपरा विलुप्त होने लगी और प्रेम लड़ने लगा अपना अस्तित्व बचाने के लिए। प्रेम आकर्षण से आकर देह पर टिक गया है और सामने आया प्रेम का विकृत रूप। प्रेम फैशन बन गया। इसी कारण वेलेंटाइन डेके दिन हजारों ऐसी खबरें सुर्खियां बनती हैं जो हमें सोचने को मजबूर करती हैं कि हम किस दलदल में फंसते चले जा रहे। बाजारीकरण के युग में प्रेम भी बाजारू हो चला है। प्रेम के लिए ऐसा कहना शर्मनाक है लेकिन यर्थाथता यही है। एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग अपने प्रेमी को एक पत्र में लिखती हैं- अगर मुझे तुम प्यार करना चाहते हो तो सिर्फ प्यार करो, किसी और चीज के लिए नहीं। यह मत कहो कि...मैं उसकी मुस्कराहट को प्यार करता हूं...उसके रूप को...उसके बोलने के नर्म अंदाज को, क्योंकि ये विचार किसी खास दिन मेरे विचारों के साथ बड़ी खूबी से समन्वित हो उस दिन को खूबसूरत बना सकते हैं-लेकिन मेरी जान ये सब चीजें बदल भी सकती हैं और प्रेम को नष्ट भी कर सकती हैं या नहीं भी। ब्राउनिंग का यह कहना सर्वथा उचित है क्योंकि दैहिक प्रेम को कब तक जिया जा सकता है। ऐसा प्रेम देह की सुंदरता समाप्त होते ही समाप्त हो जाएगा। काश! ये बदले जमाने का प्रेम धरती पर उगने वाला वटवृक्ष बन, पाताल तक अपनी जडे़ं पहुंचा पाता और जन्म-जन्मांतरों तक अटल-निश्चल इस धरा की शोभा बढ़ता।
आज के इस भौतिकतावादी युग में संवेदना और विश्वास की परिपाटी का लोप हो रहा है और प्रेम का भरे बाजार वासना और कामना के हाथों चीरहरण हो रहा है, ऐसे में जरूरत है बदलाव की। जो प्रेम को बाजारी चमक-दमक में खोने से बचा ले। हम प्रेम में निहित संवेदना, गरिमा और इसकी आंतरिक गहराई को पहचानें। जिस दिन हम सब प्रेम का असली मर्म समझ लेंगे, उसी दिन से मनुष्य अपनी संकीर्णताओं से निकलकर बिना शर्त के प्रेम करेगा। तभी धरती भी प्रेम के रस में डूबकर नृत्य कर उठेगी और बंजर होती प्रेम की खेती हो हम बचा सकेंगे। ऐसे में सार्थक होंगी कविवृंद की ये पक्तियां-जैसो बंधन प्रेम कौ, तैसो बंध न और।
अमर उजाला काम्‍पेक्‍ट में 14 फरवरी को पृष्‍ठ 12 संपादकीय में प्रकाशित हुआ है। http://compepaper.amarujala.com/svww_index.php

फ़रवरी 12, 2012

राजनीति की ‘डर्टी पिक्चर’


किसी देश की राजनीति ही उस देश का भविष्य तय करती है। जिसकी दिशा-धारा तय होती है, संसद, विधानसभा और विधान परिषदों में। इसीलिए इन्हें राजनीति का मंदिर माना जाता है। देश के कर्णधारों का भविष्य भी इन्हीं मंदिरों में तय होता है। लेकिन इन मंदिरों में यदि कोई गंदगी फैलाई जाने लगे तो इन मंदिरों का संरक्षण और इनमें पूजा करने वाली जनता की नाराजगी जायज है। हमारे देश के ये मंदिर पहले से ही नोट कांड, गाली-गलौज, मारपीट और सोने वाले नेताओं के नाम पर बदनाम थे, इसमें एक काला अध्याय और जुड़ा कर्नाटक विधान सभा में हुए मोबाइल पोर्न वीडियो कांड के बाद। लेकिन सत्ता कितनी बेहया हो चुकी है यह कांड तो मात्र इसकी बानगी भर है। इस कांड के बाद राजनीति का जो चेहरा जनता के सामने आया है वो सच में डराने वाला है।
कर्नाटक विधान सभा की कार्यवाही के दौरान वहां की वर्तमान सरकार के दो मंत्री मोबाइल फोन पर अश्लील फिल्म देखते पाए गए। उनकी इस हरकत को आज के सचेत मीडिया ने सार्वजनिक कर दिया। भारत के संसदीय इतिहास में यह पहली ऐसी घटना थी, जो खुद भी इतिहास का एक काला पन्ना बन गई। इनमें से एक थे सहकारिता मंत्री लक्ष्मण सावदी और महिला और बाल विकास मंत्री सीसी पाटिल। अब सोचने वाली बात यह है कि जिन मंत्री महोदय पर महिलाओं के विकास का जिम्मा है अगर वो राजनीति के मंदिर में बैठकर इस तरह की हरकत करें। तो वे महिलाओं और देश का भविष्य बच्चों का किस तरह का विकास करेंगे। बात जब जनता के समाने आ गई तो इन दोनों नेताओं ने इस्तीफा दे दिया। परंतु देश की अस्मिता पर ये राजनेता काला तिलक लगा गए। इससे एक दो-दिन पहले ही कर्नाटक में ही सरकारी रेव पार्टी में खुलेआम सेक्स की बात भी मीडिया की सुर्खियां रही थीं। इस पूरे कांड के बाद हम यही कह सकते हैं कि भारतीय राजनीति आत्महंता प्रवृत्ति की ओर बढ़ रही है। जनता पहले से ही भ्रष्टाचार, मंहगाई और सियासती दांवपेंच से परेशान थी, ऊपर नेताओं की हरकत ने राजनीति की मर्यादा को तार-तार कर दिया। भारत में कई ऐसे जननेता हैं जो दिन भर जनता के हितैषी होने की बात करते हैं और रात होते ही शराब और शबाब के नशे में डूब जाते हैं। हाल ही में हुए ‘भंवरी देवी कांड’ ने राजनीति के विभत्स चेहरे को जनता के सामने लाने का काम किया था। इससे पहले ‘मधुमिता कांड’, कश्मीर सेक्स स्कैंडल, तंदूर कांड कई ऐसे मामले जिनमें भारतीय राजनीति कीचड़ में सनी दिखाई देती है।
कर्नाटक के कंलक का रोना रोने से कुछ सधने वाला नहीं है। वर्तमान में देश का हर राज्य किसी न किसी रूप में इस अत्याचार का शिकार है। कभी हमने सोचा है कि ऐसा क्यों हो रहा है? शायद नहीं! इसका कारण भी हम सब ही हैं। हम बार-बार उन्हीं को चुनते हैं जो हमारे लिए और समाज के लिए खतरा हैं। उन्हीं की सरकार हमें सुहाती है जिनके शासन में अपराध, भ्रष्टाचार चरम पर रहा। इस पर हम यह बहाना कर सकते हैं कि हम करें भी तो क्या, विकल्प ही नहीं है हमारे पास। अब यह बहाना नहीं चलने वाला, जिस तरह हम सबने भ्रष्टाचार के खिलाफ एकजुटता का संदेश संपूर्ण विश्व को दिया, उसी तरह इस कलंकित राजनीति के खिलाफ भी लामबंद होना पड़ेगा। हमारा देश 65 फीसदी युवाओं का देश है। युवाओं को ही संभालनी होगी, राजनीति की बागडोर अपने हाथ में। यह हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहने का समय कदापि नहीं है। हमें जागना होगा और दूसरों को जगाने के लिए प्रयास करना होगा। भारतीय राजनीति का चारित्रिक पतन ही सभी समस्याओं का मूल है। हमें बचाना होगा अपने देश के चारत्रिक गौरव को जिसके बलबूते हम सोने की चिडि़या कहलाते थे। सर्वथा उपयुक्त समय है उठ खड़े हो जाएं, अपने मूल्यों की रक्षा के लिए, तभी हम सबका भाग्य उदय हो सकता है।
यह लेख दैनिक भास्‍कर, नोएडा के संपादकीय पृष्‍ठ पर 10 फरवरी को प्रकाशित हुआ है।

फ़रवरी 09, 2012

बढ़ते मतदाता, बदलाव का संकेत


उत्‍तर प्रदेश में चुनाव के पहले चरण के शानदार आगाज के साथ यह अटकलें और भी तेज हो गई हैं कि मुख्‍यमंत्री का सिंहासन किस पार्टी के हाथ लगेगा? बुधवार को कड़ी सुरक्षा के बीच हुए पहले चरण में 10 जिलों सीतापुर, बाराबंकी, फैजाबाद, अम्बेडकर नगर, बहराइच, श्रावस्ती, बलरामपुर, गोंडा, सिद्धार्थनगर और बस्ती की 55 सीटों के मतदान में लगभग 64 फीसदी मतदाताओं ने मताधिकार का प्रयोग किया। इसके साथ ही 862 उम्‍मीदवारों की किस्‍मत ईवीएम में बंद हो गई। 2007 के चुनाव में यहां यह संख्‍या 50 फीसदी से भी कम थी। इन्‍द्रदेव ने बारिश के माध्‍यम से मतदाताओं के हौसले को परखना चाहा लेकिन मतदाताओं ने सभी रिकार्ड ध्‍वस्‍त करने की ठानी थी। प्रदेश को अच्‍छी सरकार देने का सपना संजोये मतदाताओं ने सभी आजादी के बाद के रिकार्ड ध्‍वस्‍त करते हुए सर्वाधिक मतदान किया।  
यूपी को देश की जान है। यहां किसी पार्टी की कामयाबी का मतलब होता है, केंद्र सरकार की राजनीति में मजूबत दखलंदाजी। इसीलिए 2012 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश की चारों बड़ी पर्टियों भाजपा, बसपा, सपा और कांग्रेस यहां एड़ी से चोटी का जोर लगा रही हैं। उत्‍तर प्रदेश का चुनाव देश की राजनीति में अहम भूमिका निभाता है। यहां उठाती सियासी गर्म हवाओं की तपन दिल्‍ली तक महसूस की जाती है। उत्‍तर प्रदेश की राजनीति ने कई उतार चढ़ाव देखे हैं। आजादी की क्रांति के बाद भारत की विकल्‍प से मरहूम राजनीति में जनता का केवल एक ही सहारा था, काग्रेंस। इसके पश्‍चात हुई, हरित क्रांति ने क्षेत्रीय पर्टियों के लिए जमीन तैयार की और जनता के समक्ष विकल्‍पों की भरमार हो गई। इन्‍हीं विकल्‍पों में अपना सच्‍चा हितैषी तलाशते-तलाशते जनता ने अपना अस्तित्‍व ही खो सा दिया। चंद लोगों के जनाधार के सहारे सरकारें बनी और उन्‍होंने प्रदेश को जमकर लूटा। यहां हर पार्टी ने अपने पैर जमाने के लिए नए-नए पैंतरे अपनाए। किसी ने जातिवाद का सहारा लिया, किसी ने हिन्‍दुत्‍व का तो किसी ने सोशल इंजीनियरिंग, तो कोई समाजवाद और अल्‍पसंख्‍यक राजनीति  के सहारे सत्‍ता तक पहुंचने का रास्‍ता बनाने लगा। जो भी आया बस अपना पेट भरकर चला गया। जनता बेचारी, न तो इधर की रही, न उधर की।
भ्रष्‍टाचार, अनाचार और दुराचार की मार से आहत जनता के सामने कोई विकल्‍प ही नहीं था कि 2012 के चुनाव में किस पार्टी को सौंपी जाय उत्‍तर प्रदेश के भाग्‍य की चाबी। अन्‍ना आंदोलन ने जनता को जगाने का काम किया। नए-नए घोटालों के खुलासे ने पर्टियों का कच्‍चा चिठ्ठा जनता के समाने खोल दिया। नेताओं की तू-तू, मैं-मैं और खोखले चुनावी वादों की असलियत जनता पिछले कई दशकों से देख रही थी। इसलिए अब इन पर भरोसा करना भी लाजिमी न था। इस बार भी पर्टियां ने अपने वादों के हथकंडे अपनाए, किसी ने बिजली की बात की तो किसी ने लैपटॉप की। लेकिन जनता के मन में क्‍या है ये कोई नहीं जान पाया। मणिपुर, पंजाब और उत्‍तराखंड के मतदान में मतदाताओं ने इस बार अपने इरादों से परिचित करवा ही दिया था। इसके बाद उत्‍तर प्रदेश के पहले चरण  में भी मतदाताओं ने जोशोखरोश से मतदान किया मगर मतदाताओं का बढ़ा हुआ प्रतिशत कई सवाल छोड़ कर गया है। क्‍या यह बदलाव के संकेत हैं ? क्‍या जनता जागरूक हो चुकी है? किसको समझा है जनता ने अपना रहनुमा? कौन होगा प्रदेश का राजा? ऐसे कई सवाल जिसने पार्टियों और राजनीतिक चिंतकों को सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। अभी प्रदेश में सात चरणों का चुनाव होना बाकी है। अगर मतदाताओं का आंकड़ा ऐसा ही रहा तो यह निश्चित ही यह एक बड़े बदलाव का सूत्रधार होगा और उत्‍तर प्रदेश तथा देश की राजनीति के लिए शुभ संकेत छोड़कर जाएगा।

फ़रवरी 07, 2012

यूजीसी नेट में बदलाव शुभ या अशुभ

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) ने नेशनल एलिजिबिलिटी टेस्ट (नेट/जेआरएफ) को पूरी तरह से बहुविकल्पीय कर दिया है। यूजीसी ने इस बदलाव के पीछे तर्क दिया है कि उत्तर पुस्तिकाओं की जांच करने में समय और पैसा अधिक खर्च होता है। यह बदलाव कितना शुभ है या अशुभ यह सोचनीय विषय है।
राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा के माध्यम से देश भर के विश्वविद्यालय को योग्य शिक्षक देने का दायित्व यूजीसी के पास है। यूजीसी साल में दो बार दिसम्बर और जून में यह परीक्षा आयोजित करती है। इसमें सफल हुए अभ्यार्थियों को देश में विभिन्न विश्वविद्यालयों, डिग्री काॅलेजों में अपनी अध्यापन क्षमता दिखाने का मौका मिलता है। अभी तक इस परीक्षा को पास करने के लिए दो बहुविकल्पीय तथा एक पेपर की विवरणात्मक हुआ करता था। इस विवरणात्मक प्रश्न पत्र के माध्यम से अभ्यार्थियों के विषयगत ज्ञान और लेखन दक्षता को परखा जाता रहा है। परंतु इस परीक्षा के तीनों प्रश्न पत्र अब बहुविकल्पीय होंगे। इसमें प्रथम प्रश्न पत्र में 60 प्रश्न पूछे जाएंगे, जिसमें 50*2=100 अंक के प्रश्न अभ्यर्थी को करने होंगे, द्वितीय प्रश्न पत्र में 50*2=100 तथा तृतीय प्रश्न पत्र में 75*2=150 प्रश्न पूछे जाएंगे। इन दोनों प्रश्न पत्रों के सभी प्रश्न का उत्तर अभ्यर्थियों को देना होगा। किसी भी प्रश्न पत्र के लिए कोई नकारात्मक अंक प्रणाली नहीं रखी गई है। इसके साथ परीक्षा को पास करने के लिए भी न्यूनतम अंक निर्धारित कर दिए गए हैं। जिसके तहत सामान्य श्रेणी के अभ्यर्थियों को प्रथम तथा द्वितीय पेपर में 40-40 प्रतिशत तथा तृतीय प्रश्न पत्र में 50 प्रतिशत यानि 75 अंक लाने होंगे। इसी प्रकार ओबीसी के अभ्यथियों को प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय प्रश्न पत्र में क्रमशः 35-35, 45 प्रतिशत, अनुसूचित जाति/जनजाति/शरीरिक रूप से विकलांग/विजुअली हैंडीकेप अभ्यर्थियों को क्रमशः 35-35 तथा 40 प्रतिशत अंक लाने होंगे। इसके अलावा अभ्यर्थी अपने उत्तरों की कार्बन काॅपी अपने साथ ले जा सकेंगे।
इस बदलाव से जायज है कि नेट परीक्षा की तैयारी कर रहे अभ्यर्थियों में खुशी की लहर दौड़ गई होगी। साथ ही यूजीसी को भी कम समय और पैसा खर्च करना होगा। अब सवाल यह उठता है कि क्या इस प्रणाली के माध्यम से हम विश्वविद्यालयों को अच्छे अध्यापक प्रदान की पाएंगेघ् अभी तक तृतीय प्रश्न पत्र में यूजीसी अभ्यर्थियों की खूब माथापच्ची करवाती थी, जिससे उनकी सारी क्षमताओं का आंकलन होता रहा है। परंतु क्या अब वह उनकी क्षमताओं का आंकलन बहुविकल्पीय प्रश्न पत्रों के माध्यम से कर पाएंगेंघ् किसी अध्यापक के लिए सबसे ज्यादा आवश्यक होती है उसकी विषयगत दक्षता। दक्षता से अभिप्राय है उसकी लेखन, अध्ययन और अध्यापन क्षमता। इसमें लेखन सबसे अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है। यदि कोई अध्यापक अपने विषय पर लिख नहीं सकता तो इसका मतलब है वह अपने विषय को न तो ठीक से पढ़ा सकता है और ना ही निभा सकता है। अब जो बदलाव हुए हैं उसमें अभ्यर्थी की विषयगत दक्षता का परीक्षण किस तरह किया जाएगाघ्
यूजीसी ने जो बदलाव किए वे सहूलियतों के लिहाज से तो ठीक है चाहें वह अभ्यर्थियों की हों या यूजीसी की। इसके माध्यम से हम देश भर के विश्वविद्यालयों में खाली पड़े अध्यापकों के पदों को भर भी सकते हैं। लेकिन इन बदलावों के बाद नेट/जेआरएफ की परीक्षा पास करके आए अभ्यर्थियों के पास क्या इतना ज्ञान होगा कि वह छात्रों और अपने विषय से न्याय कर पाए। वैसे भी पहले से ही हमारी शिक्षा प्रणाली में कई तरह की कमियां है। जिनमें सुधार की पहले से ही आवश्यकता है। ऐसा न हो कि यह बदलाव भी भविष्य में कमी के रूप में समाने आए। इस पर पुर्नविचार की आवश्यकता है।
यह लेख दैनिक भास्‍कर 6 फरवरी को नोएडा-यूपी एडीशन के पृष्‍ठ संख्‍या 7 पर प्रकाशित हुआ है।

जनवरी 28, 2012

मन के उल्लास का वसंत

        प्रकृति का कण-कण खिलखिला उठा है। मानवी चेतना में ताजगी, पक्षियों की कलरव, पीली-पीली सरसों, पेड़ों का श्रृंगार बनकर उभरी नई कोपलों की मनमोहनी छवि उल्लासित कर रही है। आम के पेडों में उठती आम्र मंजरी की मनोहरी सुगंध और कोयल की कूहकूह मन को तरंगित कर रही है। हर और खुशियों का मौसम है। कड़कड़ाती ठंड भी लौटकर अपने घर जाने को तैयार बैठी है। भगवान सूर्य अपने दिव्य प्रकाश की गर्मी के माध्यम से ठंड में सिकुड़ चुके मानवीय मन को नई ऊर्जा से ओतप्रोत करने की तैयारी कर रहे हैं। प्रकृति सजोसमान जुटा रही है, वह हमें देना चाहती है, नई आशा की किरण, नए विश्वास का सूर्य, नई ऊर्जा से उमंगित मन। वह रंगना चाहती हमको केसरिया रंग में, जो प्रतीक है, बलिदान का, उमंग का, उछाह का, त्याग का। यह विजय का रंग है। जो प्रेरणा देता है कि निरंतरता के साथ हर पल जयगान करो। परिवर्तन को स्वीकारो और आगे बढ़ो, जब तक तुम्हें तुम्हारा लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।
    परिवर्तन प्रकृति का नियम है। पतझड़ और इसके बाद आने वाला वसंत इसी का प्रतीक है। वसंत संचार का नाम है। वसंत के माध्यम से कुछ नया करने का संदेश मिलता है। प्रकृति नए परिधान ओढ़ लेती है, नए पुष्पों से धरा सुशोभित होती है। ऐसा लगता है चारों तरफ से प्रकृति की सुंदरता हेमंत की ठिठुरन के बाद बाहर निकलकर आ गई है। भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं- वसंत ऋतुनाम कुसुमाकरः, ऋतुओं में मैं कुसुमाकर अर्थात् वसंत के रूप में हूं।
    इसके अलावा वसंत समर्पित है विद्या की देवी सरस्वती के नाम। इसलिए माघ शुक्ल पंचमी को हम वसंत पंचमी के रूप में मानते है। इस दिन हम ऋतुराज वसंत का स्वागत भी करते हैं। इसे ज्ञान पंचमी और श्री पंचमी आदि नामों से भी जाना जाता है। वसंत पंचमी का पर्व मां सरस्वती के प्रकाट्य उत्सव के रूप में सम्पूर्ण भारत वर्ष में मनाया जाता है। इसे विद्या की जयंती नाम से भी पुकारा जाता है।
प्राकटयेनसरस्वत्यावसंत पंचमी तिथौ। विद्या जयंती सा तेन लोके सर्वत्र कथ्यते।।
    सनातन धर्म की अपनी अलग विशेषताएं हैं, इसलिए यहां हर दिन त्यौहार के रूप में मनाया जाता है। शायद इसीलिए इसको संसार में उच्च स्थान प्राप्त है। इसी क्रम में आता है वसंत पंचमी का पर्व। माता सरस्वती विद्याल और बुद्धि की अधिष्ठात्री हैं। उनके हाथ की पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है। उनके कर कमलों की वीणा हमें संदेश देती है कि वसंत के आगमन के साथ ही हम अपने हृदय के तारों को झंकृत करें। माता सरस्वती का वाहन मयूर हमें सिखाता है कि हम मृदुभाषी बनें। अगर हम सरस्वती अर्थात् विद्या के वाहन बनाना चाहते हैं तो हमें अपने आचरण, अपने व्यवहार में मयूर जैसी सुंदरता लानी होगी। इस दिन उनकी पूर्ण मनोभाव से पूजा-अर्चना करनी चाहिए। हमें स्वयं और दूसरों के विकास की प्रेरणा लेनी चाहिए। इस दिन हमें अपने भविष्य की रणनीति माता सरस्वती के श्री चरणों में बैठकर निर्धारित कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त अपने दोष, दुर्गुणों का परित्याग कर अच्छे मार्ग का अनुगमन कर सकते हैं। जिस मार्ग पर चलकर हमें शांति और सुकून प्राप्त हो। मां सरस्वती हमें प्रेरणा देती हैं श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की। इस दिन हम पीले वस्त्र धारण करते हैं, पीले अन्न खाते हैं, हल्दी से पूजन करते हैं। पीला रंग प्रतीक है समृद्धि का। इस कारण वसंत पंचमी हम सबको समृद्धि के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है।
    वसंत पंचमी वास्तव में मानसिक उल्लास का और आंतरिक आह्लाद के भावों को व्यक्त करने वाला पर्व है। यह पर्व सौंदर्य विकास और मन की उमंगों में वृद्धि करने वाला माना जाता है। वसंत ऋतु में मनुष्य ही नहीं जड़ और चेतन प्रकृति भी श्रृंगार करने लगती है। प्रकृति का हर परिवर्तन मनुष्य के जीवन में परिवर्तन अवश्य लाता है। इन परिवर्तनों को यदि समझ लिया जाए तो जीवन का पथ सहज और सुगम हो जाता है। वसंत के मर्म को समझें, वसंत वास्तव में आंतरिक उल्लास का पर्व है। वसंत से सीख लें और मन की जकड़न को दूर करते हुए, सुखी जीवन का आरंभ आज और अभी से करें।

दैनिक भास्‍कर नोएडा, यूपी एडीशन में वसंत पर्व के दिन पृष्‍ठ 6 पर प्रकाशित हुआ है ।

जनवरी 19, 2012

यूपी का राजनीतिक संकट

भारत का हृदय क्षेत्र कहे जाने वाले राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा-2012 का बिगुल बज चुका है। सभी पर्टियां मतदाताओं को रिझाने के लिए तरह-तहर के हथकंडों का इस्तेमाल कर रही हैं, चाहें वह प्रदेश का चार हिस्सों में बंटने की घोषणा हो या अल्पसंख्यक आरक्षण की घोषण। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद देश को अब तक 8 प्रधानमंत्री देने वाला राज्य उत्तर प्रदेश गहरे राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा है। यहां की जनता के पास विकल्प ही नहीं है कि वह किसे जननेता बनाये।
          सभी राजनीतिक पर्टियां जानती हैं कि आने वाले समय में उत्तर प्रदेश भारत की राजनीति में अहम भूमिका अदा करेगा। इसलिए चाहें वह कोई भी पार्टी हो पूरी ताकत से इस चुनाव समर में जोर आजमाइश कर रही है। तृणमूल कांग्रेस की केंद्र में कांग्रेस से तकरार, बाबू सिंह कुशवाहा विवाद और राहुल गंाधी और मुख्यमंत्री मायावती की तू-तू, मैं-मैं इसी का नतीजा है। इसके इतर बिडंबना यह है कि इन पर्टियों की स्थिति एजेंडे को लेकर अभी तक साफ नहीं है। भाजपा जैसी पार्टी ने अभी तक अपने मुखिया को लेकर संस्पेंस बरकरार रखा है। शायद उसे डर है कि कहीं पार्टी के अंदर चल रही उठापटक उनकी लुटिया डुबो दे। बसपा की पिछले चुनाव में प्रयोग की गई सोशल इंजीनियरिंग फेल होती नज़र आ रही है। जहां सपा के मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के सहारे वोटरों को लुभा रहे हैं वहीं कांग्रेस राहुल को हाथियार बनाकर युवा वोटरों को रिझाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। अगर गौर करें तो पिछला विधानसभा चुनाव में बसपा शायद इसलिए सत्ता में आयी क्योंकि सपा सरकार की नीतियों से आजि़ज आ चुकी जनता के पास कोई विकल्प नहीं था। यह चुनाव मुख्यमंत्री मायावती बनाम मुलायम सिंह यादव था, इस बार ऐसा नहीं है। इस बार कई अन्य पार्टिया के प्रभाव में आ जाने के कारण सभी पर्टियों के समीकरण गड़बड हो गए हैं। इसमें सबसे ज्यादा भूमिका पीस पार्टी की नज़र आ रही। स्वच्छ राजनीति का एजेंडा साथ लेकर चल रही पीस पार्टी अगर मुस्लिम मतदाताओं को अपने पाले में कर लेती है तो सपा का स्थिति डंवाडोल हो सकती है। उधर कांग्रेस और बसपा अन्ना फैक्टर से भी डरे हुए हैं। यदि जातिगत समीकरणों की बात करें तो सवर्ण, पिछड़ा वर्ग और दलित मतदाता पेंडुलम की भांति इधर-उधर हिलते-डुलते दिखाई दे रहे हैं। यहां पर्टियों के समाने बिडंबना यह है यूपी जनता हर पार्टी के बारे में बाखूबी जानती है क्योंकि आजादी से लेकर आज तक हर बड़ी पार्टी ने यहां शासन किया है। इसके इतर पर्टियां जनता के रूझान को अब तक समझ नहीं पाई हैं। चुनाव आयोग भी सख्ती भी इस चुनाव में अहम भूमिका निभाएगी। जहां 24 घंटे टोल फ्री नबंर 1950 पार्टियों की किरकिरी करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा वहीं जनता को भी विभिन्न मुद्दों पर प्रतिक्रिया दर्ज कराने का मौका भी मिलेगा।
              इसके इतर उत्तर प्रदेश की राजनीति का एक सीन और भी है विधानसभा के समाने लगी प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत और उनके शिष्य चौधरी चरण सिंह की प्रतिमाएं प्रदेश की समृद्ध राजनीतिक संस्कृति और विरासत की यादों को ताजा करती हैं। जो जनता के लिए जीए और जनता के लिए हंसते-हंसते अलविदा कह गए। उत्तर प्रदेश की परंपरा ऐसी राजनीतिक हस्तियों को पैदा करने की रही है। लेकिन आज स्थिति इसके उलट है प्रदेश की सभी राजनीतिक पर्टियां चाहें वह सत्तासीन बसपा हो, भाजपा, सपा या कांग्रेस हो हर पार्टी अपराधियों की शरणगाह बनती जा रही है। बाबू सिंह कुशवाहा के बसपा से बाहर होने और भाजपा में शामिल हाने को इसी से जोड़कर देखा जा सकता है। हर पार्टी में भ्रष्टाचारियों का बोलबाला है। इसी का नतीजा है कि 2012 के विधानसभा चुनाव में कई नेता ऐसे हैं जो जेल में होते हुए भी राजनीतिक बिसात बिछा रहे हैं। इस मामले में यूपी का पूर्वांचल इलाका सबसे आगे है। अब मतदाताओं के समाने फिर एक चुनौती खड़ी हो रही है कि वह आखिर चुने किसे। अगर ‘नेशनल इलेक्शन वाॅच’ के आंकड़ों पर भरोसा करें तो प्रदेश की राजनीतिक पार्टियों ने अब तक 617 सीटों के लिए प्रत्याशियों की घोषणा की है, जिनमें कम से कम 77 उम्मीदवारों के खिलाफ, हत्या, हत्या के प्रयास, अपहरण, बलात्कार और डकैती जैसे संगीन आरोप हैं। देश की राजनीति में अहम भूमिका निभाने वाले उत्तर प्रदेश की अपराधी और भ्रष्टाचार की गुलामी जकड़ी है। इस प्रदेश का हाल यह है कि यदि यहां कोई पहली बार विधायक बनता है तो वह केवल अपनी और अपने करीबियों की जेबें भरता है और बैंक बैलेंस बढ़ता है।
सत्य यही है कि देश भर को जननेता देना वाला यूपी मूलरूप से आज खुद ही जननेता ने होने की समस्या से जूझ रहा। अब देखने वाली बात यह होगी कि दिग्गज राजनीतिक पर्टियां किस तरह यहां की जनता को लुभाती हैं और सत्ता की कुर्सी पर कब्जा जमाती हैं। वैसे दिनोंदिन जनता की जागरूकता का बढ़ता स्तर और चुनाव आयोग की सख्ती क्या गुल खिलाएगी यह तो आने वाले चुनावी नतीजे ही बताएंगें।
यह लेख दैनिक भास्‍कर नोएडा के पृष्‍ठ 6 पर 17 जनवरी को प्रकाशित हुआ है।

जनवरी 08, 2012

मूर्तियों की माया पर पर्दा


चुनाव आयोग ने यूपी के आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनजर प्रदेश में राज्य की मुख्यमंत्री मायावती और उनके चुनाव निशान हाथी की मुर्तियों पर पर्दा डालने की बात की है। मुख्य चुनाव आयुक्त का मानना है कि इन मुर्तियों के खुले रहने से राजनीतिक संदेश जाता है इसलिए इनको ढका जाना चाहिए। क्योंकि हाथी बीएसपी के प्रचार का तरीका है और मायावती इसकी सुप्रीमो। इस पर बसपा बुरी तरह आक्रोशित है। उनका कहना है कि चुनाव आयोग का यह निर्णय तर्कसंगत नहीं है। आयोग के इस निर्णय पर बसपा ने कई सवाल खड़े किए हैं। उनका कहना है देश में कई जगह हाथियों की मुर्तियां या तो दरवाजों पर लगी हैं या लोगों ने अपने घरों की शोभा बढ़ाने के लिए लगा रखीं है। यहां तक कि राष्ट्रपति भवन और संसद में भी हाथी लगे हैं। क्या उनको भी ढका जाएगा इसके अलावा बसपा ने यह भी कहा कि प्रदेश में साइकिल को चलने से बंद किया जाए, तलाबों में खिलाने वाले कमल के फूलों को ढका जाए। कांग्रेस पर निशाना सधाते हुए कहा कि देश की समस्त जनता को हाथ ढकने का आदेश दिया जाए। क्योंकि यह सब भी तो सपा, भाजपा और कांग्रेस के चुनाव निशाना हैं। इसके अलावा तर्क दिए गए कि चैराहों पर नेताओं की मुर्तियां है उनका क्या होगा? बसपा का मानना है कि यह कांग्रेस की चाल है और वह उनका हौसला कम करना चाहती है।
जिस मूर्तियों की माया को बसाने के लिए बसपा के दिग्गजों ने सारे नियमों को ढेंगा दिख दिया हो  यूपी की जनता का लगभग 700 करोड़ रूपया लगा दिया है और मौका आते ही उस पर पर्दा डलाने की बात की जाने लगे तो बसपा का यह आक्रोश लाजिमी है। पार्क और मूर्तियां बनाने का यह खेल जब से बसपा की सरकार आई तभी से चल रहा है। इन मूर्तियों को स्थापित करने के लिए पर्यावरण मंत्रालय की नोटिस की अवहेलना की जाती है और तर्क दिया जाता है कि राजधानी के पास एक सेंटर बनाया जा रहा है जो सामाजिक परिवर्तन लाने वालों के प्रति लोगों की आस्था का केंद्र बने। अब सवाल यह उठता है कि क्या केवल भारत में सामाजिक परिवर्तन लाने में कबीरदास, संत रविदास, संत घासीदास, बिरसा मुंडा, नारायण गुरू, महात्मा ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज, गौतम बुद्ध, बाबा साहब डा. भीमराव अम्बेडकर, कांशीराम और मुख्यमंत्री मायावती का ही योगदान रहा है? भारतीय राजनीति की यह बिडंबना है कि यहां मूर्तियों लगाकर, विश्‍वविद्यालयों और जिलों के नाम बदलकर अपनी राजनीतिक धरोहर को संजोने के प्रयास किए जाते हैं।

जनवरी 02, 2012

स्वागत नूतन वर्ष तुम्हारा

नूतन वर्ष के स्वर्णिम प्रभात तुम्हारा स्वागत। अभिनंदन। वंदन। हम सब बिछाए हैं पलकें तुम्हारे आगमन की प्रतीक्षा में। इस अति संुदर बेला में दिल से निकलने वाले विचारों की तरणी, अपनी कलकल ध्वनि के माध्यम से कुछ कहने की उत्सुकता लिए तुम्हारा इंतजार कर रही है। वह कह रही है कि आओ कुछ पल के लिए मेरे पास सुनो मेरे अंतस की वाणी को...।
हे नवल वर्ष तुम्हारे स्वागत को चारों ओर हर्ष है, उत्साह है, कहीं शोर है तो कहीं खुद में गुनगुनाता संगीत। वहीं किसी अंधियारे में किसानों की आत्महत्या के बाद उनके परिवारीजनों की चीखों का साम्राज्य। इसके साथ ही किसी अजन्मे मासूम की असमय मौत की खामोशी। यही चीखें और खामोशी तुमसे कुछ कहना चाहती है। इस संसार में लाखों दिल ऐसे हैं जिनकी धड़कनें असमय ही शांत हो जाती हैं। एक किसान कर्ज के बोझ और परिवारिक जिम्मेदारी की चक्की में पिसकर जिंदगी से हार जाता है। वह किसान जो हमें अन्न देता है, हमारे खाने के साजोसमान जुटाता है, जब मौत का आलिंगन करने को रस्सी के फंदे पर झूल रहा होता है, तब उसे बचने या उसकी सहयता करने वाला कोई नहीं होता। मौत से एकाकार हुए इन किसानों के बिलखते मां-बाप, उनकी पत्नियों और उनके बच्चों की चीत्कारें कहना चाहती हैं तुमसे, कि हे नूतन सविता देवता! किसानों को इतना सक्षम बना कि मौत भी इनकी अनुमति मांगकर ही इनको अपने साये समेटे।
वहीं मां की बेवशी और तथाकथित सामाजिक लोगों की निर्दयता के कारण एक फूल खिलाने से पहले ही कुचल दिया जाता है। वह चीखता है, चिल्लाता है पर उसकी चीखें सुनने वाला कोई नहीं होता। वह अजन्मा गर पैदा होता तो शायद अपने परिवार, समाज और राष्ट्र का कर्णधार होता। ऐसे न जाने कितने शिशु प्रतिवर्ष मौत की नींद सुला दिए जाते हैं। इसलिए हे देव! तुम ही दे सकते हो भविष्य की माताओं को वह सक्षमता जिसके सहारे वे अपनी संतान को इस गगन के नीचे आने की अनुमति दें और उस मासूम की मुस्कान से उनका आंचल ही नहीं सम्पूर्ण धरा ही सुंगध से भर जाए।
एक मासूम जब खिलखिलाता है तो वह परमसत्ता का सबसे प्यारा वरदान होता है। इन्हीं मुस्कारते मासूमों के नाम कर दिया हम सबने अपना एक दिन, क्योंकि इस दिन हम उन्हें जानने का एक अनर्थक प्रयास करते हैं। लेकिन बाल मजदूरी, बाल तस्करी और निठारी कांडों के बढ़ते आंकडें कुछ ओर ही कहानी कहते हैं। इस समय बेमानी हो जाते है शिक्षा के अधिकार के आंकड़ें, जो हमें कुछ न कुछ तो सोचने को मजबूर करते है लेकिन यह सोच भी शाम के बढ़ते अंधेरे के साथ समाप्त हो जाती है। अगले दिन हम फिर से व्यस्त हो जाते हैं अपने आप में। जबकि सत्यता यह है कि इन बाल मजदूरों का भी हक बनता है कि वह स्कूल जाएं, पढ़ें-लिखें और अपने सपनों के माध्यम से इस विश्व वसंुधरा के सृजन का कार्य करें। हे नूतन गान! तुम्हें ही गाना होगा कोई ऐसा गीत, जो इन मासूमों के सपनों को पूरा सके।
    हे नूतन सुबह की स्वर्णिम रश्मियों! इसके इतर एक ओर भी कहानी है। जिन युवाओं और किशोरों के कंधों पर हमारे परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व का भार है वह उलझ गया है। वह दिशाहीनता की उस खाईं की ओर बढ़ रहा है जिसमें गिरने के बाद वापस आना मुश्किल है। नशे, अपराध, व्यभिचार में लिप्त इन युवाओं को देखकर लगता है कि भौतिकता की आंधी ने इनके सारे संस्कारों और सदाचरण को भस्म कर दिया है। इंटरनेट, सोशल साइट्स का बढ़ता उपयोग इनके लिए घातक सिद्ध हो रहा है। ज्ञान के अथाह सागर में डुबकी लगाने वाले यह युवा आत्मज्ञान से दूर होते जा रह हैं। इनकी अपनी एक दुनिया है जहां ये खुद को राजा समझते हैं लेकिन ये वह राजा है जिनके पास अपना कुछ न है, इन आभासिक दुनिया के सिवा। प्रतिस्पर्धा के दौर में यह सब कुछ जल्द पा लेना चाहते हैं, इसके लिए इन्हें कोई भी राह क्यों न अख्तियार करनी पड़े। अपने लक्ष्य और पथ से भटकते ये युवा निरंतर काल के गाल मंे समाने की तैयारी कर रहे हैं। इसलिए तुमसे करवद्ध निवेदन इन भटकते युवाओं को सद्विचारों और वैचारिक शक्ति का आलोक प्रदान करो।
    हम अपनी जिम्मेदारियों को निभाते हुए सबकुछ दांव पर लगा बैठते हैं। परिवार, समाज और नौकरी के अंर्तद्वंदों के बीच फंसकर हमारी जिंदगी यूं ही गुजर जाती है। यही है आज के इस युग के मानव की कहानी। हम कभी अपने लिए समय नहीं दे पाते हैं लेकिन जब बुढ़ापा आता है तब विचार उठते हैं कि आखिर कुछ ऐसा क्यों नहीं किया जो हमें अंत समय में सुकून दे पाता। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है और हमारे बेटे-बहुओं हमें भार समझने लगते हैं और घर से निकल देते हैं। शहरों में कुकुरमुत्ते की तरह बढ़ रहे वृद्धाश्रम इसकी कहानी खुद व खुद बयान करते हैं। हमारे समाज का यह बहुत ही कड़वा सच है कि जो मां-बाप हमें  पाल-पोष कर इस काबिल बनाते हैं कि हम समाज में सिर उठा सकें। हम उन्हीं मां-बाप को अपने दस कमरों के घर में भी जगह नहीं दे पाते। हम बचपन में जिनसे प्यार की अपेक्षा तो रखते हैं लेकिन बुढ़ापे के समय उन्हें प्यार नहीं दे पाते। समाज में प्रतिष्ठिता पाने का अभिमान हमें अपनों से दूर ले जाता है। जो बच्चा बचपन में मां-बाप के कपड़े गीला करता था, वह अब उनकी आंखें गीली करते वक्त भी कुछ भी नहीं सोचता। इसलिए हे नवल लालिमा लिए भगवन्! आप ही इन कलिमा युक्त विचारों के अंधियारे को समाप्त कर सकते हो। आज के मानव को आपके दिव्य प्रकाश की महती आवश्यकता है। हे सविता तुम ऐसे प्रकाशित हो कि समाज में फैला ये अन्यायपूर्ण साम्राज्य का तमस जल्द से जल्द नष्ट हो और मां-बाप को बेचारगी की देहरी पर अकेला छोड़ने वाली संतानें उन्हें भी अपना प्यार देने को तत्पर हों।
    हे नवल विहान के सविता की स्वर्णिम रश्मियों! तुम बेटे-बहुओं-बेटियों को यह शिक्षा दो कि आपके आगमन के साथ वह अपने बूढे़ मां-बाप को कुछ देना सीख जाएं। जिससे उनका आशीर्वाद उन्हें मिले। युवाओं को सही राह दिखा दो। बच्चों को आकार देने के लिए साकार सामाज बना दो। बेवश की आग मे जलते लोगों को समर्थता प्रदान करो। बस आपसे यही विनती कि सम्पूर्ण विश्व वसुधा को ऐसा आशीर्वाद दो, जिससे हर प्राणी आपकी स्वर्णिम आभा से गौरवान्वित हा सके। इसलिए हे नवल सविता नववर्ष के हर क्षण को नया रूप देने के लिए हर आंगन में उतरती तुम्हारी लालिमा युक्त किरणों का हार्दिक स्वागत। अभिनंदन। वंदन।
यह लेख दैनिक भास्‍कर नोएडा में 1 जनवरी को विशेष पृष्‍ठों पर प्रकाशित हुआ है।

अक्टूबर 01, 2011

जिंदगी की सिसकती शाम

अपने जीवन का हर पल परिवार, बच्चों के लिए कुर्बान करने वाले हमारे वृद्धजन, आज कतरे भर खुशी के लिए तरसते, सिसकते दिखाई देते हैं। जो कभी अपने बच्चों की आंखों की रोशनी से अपने बुढ़ापा रोशन करने का ख्वाव देखते थे, आज उन्हीं आंखों से आंसुओं का समंदर बह रहा है। वे सबकी चिंता करते हैं, उनकी कोई चिंता नहीं करता। वे आज भी अपनों पर प्यार लुटाते हैं, लेकिन उनके अपने उनसे दूरी बनाने पर तुले हैं। प्यार और मोह का यह खेल सदियों से चला आ रहा है। इसलिए तो वह बच्चों को देखकर खुश होता है। अपनेपन की खुशी शायद ऐसी ही होती होगी। ढलती जिंदगी की ऐसी सिसकती शाम! नही यह उचित नहीं है।
भगवान बुद्ध कहते हैं ‘संसार दुःखमय है और दुःख का कारण है ‘तृष्णा’, पर उम्र के साथ तृष्णाएं कम होने लगती तो दुःख कम हो जाता है।’ लेकिन हो इसका उल्टा रहा है बुजुर्ग जितने दुःखी और पीड़ित हैं उतना शायद ही वे कभी अपनी जिंदगी में रहे होंगे। तनाव के कारण परिवार टूट रहे हैं, आधुनिकता की अंधी दौड़ जारी है, पश्चिमी देशों का अंधानुकरण तेजी से हो रहा, दुनिया मंहगी होती जा रही है। ऐसे में एक छोटे वर्ग को छोड़कर शहरों और महानगरों में अपने बुजुर्गों को पास रखने के लिए अधिकांश घरों में एक अलग कमरा तक नहीं है। गांवों के हालात ऐसे हैं कि स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव के कारण बुढ़ापा नरक बन जाता है। इसलिए जिंदगी की यह शाम जिसे शांति से बीतना चाहिए था रोते-सिसकते बीतती है। आज के इस वातावरण में बुजुर्गों की उपेक्षा को ज्वलंत प्रश्न मानकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व भर के लोगों ने 1989 में विशेष चर्चा की। इसके बाद जिनेवा की बैठक में संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने प्रस्ताव 45/106 के द्वारा 1 अक्टूबर 1991 को सबसे पहले विश्व स्तर का ‘वृद्ध दिवस’ मनाया। इस पहल को हम 20वीं सदी की एक उपलब्धि मान सकते हैं।
समृद्ध साहित्यकार शिवपूजन सहाय कहते हैं कि अमीरी की कब्र पर गरीबी की पनपी हुई घास बहुत जहरीली होती है। यद्यपि यह बात अमीरी तथा गरीबी को लेकर कही गई है लेकिन यह जवानी और बुढ़ापे पर चरितार्थ होती है। जवानी के दिनों में शान-शौकत और सीना तानकर रहने वाला व्यक्ति बुढ़ापा आते ही झुक जाता है। उसका शरीर अशक्त हो जाता है। उसे कुछ भी नहीं सूझता। इस स्थिति में कोई भी परिवर्तन उसे नागवार गुजरता है। अनेक बीमारियां हावी होने लगती हैं। कम सुनाई देना, अंधापन, मौत का भय, कभी-कभी जीवन साथी से बिछुड़ जाने का गम, विकलांगता, नई पीढ़ी से सामंजस्य न बिठा पाना आदि-आदि अनेक समस्याएं बुढ़ापे में सताने लगती हैं। महंगाई की मार से त्रस्त अधिकतर शहरी परिवार भी अपने बच्चों का भरण पोषण तक कठिनाई से कर पाते हैं। इस कारण उनके पास बुढ़ापे के लिए शायद ही कोई बचत रह पाती है। जिन बच्चों पर वे खर्च करते हैं उनसे उन्हें उम्मीद होती है कि आने वाले भविष्य में वे उनका सहारा बनेंगे। लेकिन वही बच्चे उन्हें छोड़ते जा रहे हैं। इसी कारण गरीबों के लिए बुढ़ापा और भी दुखदायी हो जाता है। अगर समाजशास्त्रियों की माने तो बुजुर्गों को अकेले नहीं रहना चाहिए, क्योंकि अकेलेपन के कारण अवसाद तथा कई अन्य मनोवैज्ञानिक रोग उनको घेर लेते हैं।
एल्विन टॉफ्लर लिखते हैं कि ज्ञान की तेजी से बढ़ती दर के कारण बुजुर्ग लोग तारीख से बाहर हो जाते हैं। इसलिए पश्चिमी देशों में वृद्धों का सम्मान कम है। यहां के लोग उन्हें आउट डेटेड मानकर घर से बाहर कर देते हैं। इसलिए यहां वृद्धाश्रमों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। जहां न तो उन्हें अपनों का प्यार मिल पाता है और न ही जिंदगी का सुख। यूएसए के 98 प्रतिशत वृद्धाश्रमों में वृद्धों के साथ अमानवीय व्यवहार होता है। ब्रिटिश समाचार पत्र गार्जियन के सम्पादक की मानें तो पश्चिमी देशों में वृद्धभेद, रंगभेद की तरह फैला है। हम सब इसी को प्रगतिशीलता का नाम देते हैं। हम भी पश्चिमी देशों का अंधानुकरण कर रहे हैं। आधुनिकता के नाम पर परिवार टूट कर न्यूक्लियर हो रहे हैं। भारत में जिन वृद्धों की सेवा से पुण्य प्रताप मिलने की बात कही जाती थी उन्हें अनुपयोगी माना जाने लगा है। पढ़े लिखे नितांत स्वार्थी होकर असुरत्व का आलिंगन कर रहे हैं। हम इतने स्वकेंद्रित हो गए हैं कि अपने मां-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी को अपने घर में देखना फूटी आंख नहीं सुहाता। आधुनिक बेटे-बहू वृद्धों को घर से निकाल रहे हैं। जिस कारण वे सड़कों-फूटपाथों और वृद्धाश्रमों में जिंदगी गुजारने को मजबूर हैं। पश्चिमी देशों का यह अंधानुकरण हमें और हमारे देश को रोटी कमाना तो सिखा रहा है परंतु किसी का सहारा बनना नहीं।
मनु स्मृति में लिखा है कि ‘‘अभिवादन शीलस्य नित्यम् वद्धोपसेविन:। चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विधा यशोबलम्।। अर्थात् जो लोग वृद्धों की सेवा करते हैं उनकी आयु, विद्या, यश और बल चार चीजों में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। जीरियेट्रिशन विलियम थामस लिखते हैं कि एक अध्ययन में यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के अंनुसंधान कर्ताओं ने पाया है कि जिन बच्चों को नाना-नानी और दादा-दादी यानि बुजुर्गों का प्यार मिलता है उनमें जीवित रहने की क्षमता बाकी बच्चों की तुलना में अधिक होती है। बुजुर्गों का साथ हमारे बच्चों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। उनके आशीर्वाद से जन्म जन्मातरों के पाप नष्ट हो जाते हैं। बुजुर्गों को चलती फिरती डिक्शनरी कहा जाता है। लेकिन फिर भी न जाने क्यों हम भोगवादी होकर अपने बुजुर्गोंं को भुलाते जा रहे हैं। हमारी संस्कृति हमें ‘त्याग के साथ भोग करने’ का पाठ पढ़ाती है। वे बुजुर्ग जिन्होंने जीवन भर हमें प्यार दिया यदि एक पल के प्यार के तरसें तो इसे क्या कहें-स्वर्ग या नरक। ऐसा भी कहा गया है जिस घर में वृद्ध नहीं होते उस घर में देवताओं की कृपा नहीं होती। बिना वृद्ध के कोई सभा नहीं हो सकती। इतना सब होते हुए भी वृद्धों के प्रति असम्मान क्यों ? वृद्धों के प्रति हमें अपनी इस नीति को बदलाना होगा।
हमने जिस संस्कृति में जन्म लिया है वह हमें यह नहीं सिखाती कि जिन्होंने अपनी जिंदगी की खुशियां हमें बनाने के लिए कुर्बान कर दीं, जो सपने संजोते रहे कि हमारा बेटा या बेटी बड़े होकर हमारे बुढ़ापे को नई सुबह देंगे, उनके साथ हम गैरों जैसा व्यवहार करें। ऐसे में आवश्यक है कि सरकार, समाज और परिवार सभी मिलकर एक ऐसा अभियान चलाएं कि जिससे बुजुर्ग होने की पीड़ा कम हो सके। क्यों न कुछ ऐसा किया जाए जो सामाजिक क्रांति बने और बुजुर्ग होने का अभिशाप, वरदान साबित हो और जिंदगी की यह शाम गमगीन होने के बजाय खुशनुमा हो जाए।
नोट : यह लेख दैनिक भास्‍कर नोएडा के 2 अक्‍टूबर के अंक में पेज 5 पर प्रकाशि‍त हुआ है। ढलती जिंदगी और एकाकी सिसकती शाम नामक शीर्षक से

सितंबर 08, 2011

कब सबक लेंगे देश चलाने वाले





जो घर से निकले थे कुछ अरमान लिए,
वो वापस न लौटें तो कैसा लगे,
ये तो उस मां से पूछो जो
अपने दिल के टुकड़े की याद में
हर पल जगे।
7 सितंबर को दिल्‍ली हाईकोर्ट में हुए बम धमाकों में 11 लोगों की जान चली यह आंकड़ा बढ़ भी सकता है। इस आतंकी तबाही में 76 लोग घायल हुए जबकि 15 लोगों की हालात गंभीर बनी हुई है। बुधवार को हाईकोर्ट के गेट नम्‍बर 5 के पास सुबह 10 बजकर 14 मिनट पर हुए इस शक्तिशाली विस्‍फोट ने पूरे देश को एक बार फिर सचेत कर दिया कि वह सुरक्षित नहीं है। इससे पहले 25 मई को भी यहां धमाका हुआ था।
       बुधवार को हुए विस्‍फोट की आवाज 1.5 किमी तक सुनाई दी। इसकी तीव्रता 100 किमी प्रति घंटा थी। इस विस्‍फोट में 40 मीटर के दायरे में मौजूद लोग हताहत हुए। बताया जाता है कि दिल्‍ली हाईकोर्ट में हर रोज लगभग 5000 लोग आते हैं। इन सबको उम्‍मीद होती है शाम तक घर लौटेंगे। अपने मां-बाप के पास, अपनी पत्‍नी–बच्‍चों के पास अपने परिवार के पास। लेकिन बुधवार को 10 बजे जो भी हाईकोर्ट के गेट नम्‍बर 5 पर गया वह इस हादसे का शिकार हो गया। सरकार की ओर से मृतकों के करीबियों को 4-4 लाख, स्‍थाई तौर पर विकलांग हुए लोगों के लिए दो-दो लाख, गंभीर रुप से घायल लोगों को एक-एक लाख रुपए के मुआवजे की घोषणा की। इसके अलावा धमाके की चपेट में आए नाबालिगों को डेढ़-डेढ़ लाख रुपए के मुआवजे की घोषणा की जो लोग मामूली तौर पर घायल हुए उन्‍हें दस-दस हजार रुपए दिए जाने की घोषणा की गई।
धमाके कहां-कहां
25 मई 2011, कोई हताहत नहीं
19 सितंबर 2010 जामा मस्जिद कोइ्र हताहत नहीं
13 सितंबर 2008 करोल बाग, ग्रेटर कैलाश और कनॉट प्‍लेस 26 लोगों की मौत, 123 घायल
27 सितंबर 2008 महरैली 3 की मौत, 30 घायल
29 अक्‍टूबर 2005 सरोजनी नगर, गोविंदपुरी, पहाड़गंज 67 लोगों की मौत, 218 घायल
13 दिसंबर 2011 संसद भवन, 11 लोगों की मौत, 30 घायल
       
 हर बार धमाके होते हैं। मुआवजे की घोषणाएं होती हैं और फिर होता है एक धमाका। सब कुछ मिटा देने के लिए। क्‍या हम यूं हर बार, वार सहते रहेंगे। चुप बैठे र‍हेंगे। सरकार क्‍यूं नहीं जागती। जांच होती, विपक्ष राजनीतिक पैंतरे बाजी करता है। इसके बाद भी नतीजा क्‍या जीरो।
अब प्रश्‍न यह उठता है कि हमारे सुरक्षा खेमे में कहां कमी है, जिससे प्रवेश पाकर आतंकी आते हैं और हमें अपना निशाना बनाते हैं। सुरक्षा पर जो अरबों रुपया बहाया जाता है उसका उपयोग क्‍या केवल माननीयों की सुरक्षा में होता है। कहीं न कहीं तो कोई कमी। जरुर ही कहीं सांप आस्‍तीन में ही छुपे हैं। उन्‍हें खोज कर मार देना बेहतर है या हर बार हादसे सहना। देश को चलाने वालों से मेरी गुजारिश कि सिर्फ मुआवजे की घोषणा करने से किसी की जान की कीमत अदा नहीं की जा सकती। समाधान की राह खोजो अगर यूं ही जानें जाती रहीं तो………..
हर बार हम ही शिकार होते हैं,
हम पर ही छुप-छुपकर वार होते हैं।
आपको क्‍या आप तो बुलेट प्रूफ में रहते हैं,
और महलों में सोते हैं।