मई 04, 2020

आनलाइन शिक्षा की चुनौतियां

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कोविड 19 या कोरोना के संकट के इंसानी जीवन के हर पक्ष को प्रभावित किया है। मानवी जीवन के कुछ हिस्से ज्यादा और कुछ कम प्रभावित हो सकते हैं लेकिन हर किसी पक्ष पर इसका कुछ न कुछ असर तो हो ही रहा है। शिक्षा जगत भी एक ऐसा क्षेत्र है जहां इसका व्यापक असर देखा जा सकता है। गौरतलब है कि 15 मार्च से ही देश के लगभग सभी स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों को बंद कर दिया गया और आदेश दिया गया कि आनलाइन शिक्षा के माध्यम से बाकी बचे कोर्स को पूरा कराया जाये। सरकार ने भी इस ओर ध्यान देते हुए पहले से मौजूद आनलाइन शिक्षा के प्लेटफार्मों जैसे स्वयं, ईपीजीपाठशाला, डिजिटल लाइब्रेरी आदि को उपयोग करने के लिए नोटिफिकेशन जारी कर दिए। आनलाइन शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए सरकार निरंतर विषय विशेषज्ञों और इससे प्रभावित लोगों के संपर्क में है। विश्वविद्यालयों, स्कूलों और कॉलेजों ने भी कोरोना से उत्पन्न समस्या को एक अवसर मानते हुए आनलाइन शिक्षा को अपना लिया। इस तरह लगभग आनलाइन शिक्षा के 40 दिन देश में पूरे हो चुके हैं। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि आनलाइन शिक्षा में क्या सबकुछ ठीक चल रहा है? या वो कौनकौन सी चुनौतियां हैं जिससे शिक्षक और विद्यार्थी दोनों प्रभावित हैं? क्या स्कूली शिक्षा से जुड़े करीब 25 करोड़ और उच्च शिक्षा से जुड़े करीब आठ करोड़ विद्यार्थी आनलाइन शिक्षा से जुड़ पा रहे हैं? हालांकि देश के शिक्षा जगत ने समस्या को अवसर में बदलने के लिए भरसक प्रयास किए हैं परंतु वो नाकाफी से नज़र आ रहे हैं।  भारत में आनलाइन शिक्षा के समाने बहुत सारी चुनौतियां मूंहबाये खड़ी हैं। यह लेख यह जानने की कोशिश भर है कि देश का शिक्षा जगत, आनलाइन शिक्षा की किन समस्याओं से दो चार हो रहा है-
पाठ्यक्रम की असमानता
पाठ्यक्रम की असमानता एक बहुत बड़ी चुनौती है, जो आनलाइन शिक्षा के समुचित क्रियान्वयन में आड़े आ रही है। देश में हर शैक्षणिक बोर्ड, कॉलेज, विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम अलग अलग हैं। जिसका अपना एक अलग अर्थशास्त्र है। ऐसे में आनलाइन मौजूद पाठन सामग्री की उपयोगिता स्वयमेव कम हो जाती है। हालांकि माडल पाठ्यक्रम के नाम पर देश में समान पाठ्यक्रम लागू करने के प्रयास होते रहे हैं। परंतु सारे प्रयास नकाफी रहे। मसलन एक विषय लेते हैं, पत्रकारिता एवं जनसंचार देश के किसी भी विश्वविद्यालय या कॉलेज में समान पाठ्यक्रम नहीं है। जबकि डिग्रियां समान ही दी जाती हैं। ऐसे में अगर कोई उत्तर भारतीय अध्यापक की उत्तर भारत के विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम के आधार पर कोई आनलाइन कोर्स तैयार भी कर ले, तो वह देश के दूसरे हिस्से के विद्यार्थियों के लिए नाकाफी ही रहेगा। अगर पाठ्यक्रम की असमानता को दूर कर लिए जाये तो देश के किसी भी कोने में कोई विषय सामग्री तैयार होगी, तब वह सामग्री समानता के साथ देश के सभी विद्यार्थियों के लिए लाभकारी होगी। इस समान विषय सामग्री का विभिन्न भाषाओं में अनुवाद आवश्यकता के अनुसार कराया जा सकता है।
इंटरनेट स्पीड और तकनीकी का अभाव
भारत में इंटरनेट की स्पीड एक बड़ी समस्या है। ब्रॉडबैंड स्पीड विश्लेषण करने वाली कंपनी ऊकला की एक रिपोर्ट के मुताबिक, सितंबर 2019 में भारत मोबाइल इंटरनेट स्पीड के मामले में 128वें स्थान पर रहा। भारत में डाउनलोड स्पीड 11.18 एमबीपीएस और अपलोड स्पीड 4.38 एमबीपीएस रही। ऐसे में वीडियो क्लासेज लेते समय इंटरनेट स्पीड का कम ज्यादा होना समस्या पैदा करता है। ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट स्पीड की हालत और बुरी है, बिजली चले जाने पर इंटरनेट या तो बद हो जाता है या फिर 2जी की स्पीड पर कुछ देख सुन नहीं सकते। इसके अलावा देश के बहुतायत विद्यार्थियों के पास आनलाइन पढ़ने और पढ़ाने के संसाधन ही उपलब्ध नहीं है। ऐसी स्थितियों में कैसे आनलाइन शिक्षा दी या ली जा सकती है। आजकल देश में वेबीनार की धूम है लेकिन इनमें प्रतिभागिता करने वाले गिनेचुने लोग ही हैं। शिक्षा जगत से जुड़े बहुतायत लोग इसका लाभ नहीं ले पा रहे। अगर देखा जाये तो केवल 30 से 40 फीसदी विद्यार्थी ही इसका लाभ ले पा रहे हैं।  भारत की अधिकांश मोबाइलकंपनियां दिन में 1 से 2 जीबी डाटा उपयोग के लिए दे रही हैं जोकि हर दिशा से देखने पर कम दिखाई देता है।
तकनीकी समझ
तकनीकी समझ, आनलाइन शिक्षा की एक बड़ी समसया है। अगर तकनीकी शिक्षा से जुड़े अध्यापकों और विद्यार्थियों को छोड़ दें तो बाकी लगभग सभी विषयों से जुड़े शिक्षकों और शिक्षार्थिंयों को तकनीकी समस्या का सामना करना पड़ता है। प्राइमरी और माध्यमिक स्तर पर ये समस्या बहुत बड़ी समस्या है। आजकल छोटेछोटे बच्चों से लेकर बड़ों तक को टेबलेट, लेपटॉप, डेसटॉप और स्मार्ट फोन के सहारे पढ़ाया जा रहा है। ऐसे में अगर तकनीकी सकी समझ किसी भी स्तर पर हावी होती है तो सिखने की क्षमता की सीधे प्रभावित करती है। सरकार शिक्षकों की तकनीकी समझ बढ़ाने के लिए लगी तो रहती है लेकिन जमीनी स्तर में अगर स्थितियों को देखें तो मामला उल्टा ही नजर आता है। दूसरी बात है ये कि शिक्षा क्षेत्र से जुड़े हुए कई लोग अभी भी तकनीकी को सीखने की इच्छा नहीं रखते। ऐसे में आनलाइन शिक्षा की उपयोगिता कम होती चली जाती है।  
आनलाइन शिक्षण का स्वरूप
देश में अभी पिछले 40 दिनों में आनलाइन शिक्षण का जो स्वरूप उभर कर समाने आया है उसमें अधिकांशत: सभी स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय जो आनलाइन शिक्षण चला रहे हैं, वह टाइम टेबल के उसी स्वरूप को अपना रहे हैं जो वह कक्षाओं में चला रहे थे। ऐसे में समस्या यह खड़ी होती है कि क्या विद्यार्थी और शिक्षक कुर्सी से चिपके हुए सुबह नौ बजे से शाम पांच बजे तक कक्षायें चला सकते हैं? इसके कई दुष्प्रभाव भी हैं। सामान्यत: यह संभव नहीं है। फिर भी शिक्षकों और विद्यार्थियों पर यह थोपा जाना एक बड़ी समस्या है। आनलाइन शिक्षण को सामान्यत: रेगुलर कक्षाओं की तरह नहीं चलाया जा सकता।
तकनीकी की लत और दुष्प्रभाव
अभी वर्तमान में आनलाइन कक्षायें सामान्यत: चार से पांच घंटें तक चलाई जा रही हैं। उसके बाद शिक्षार्थी को गृहकार्य के नाम पर एसाइनमेंट और प्रोजेक्ट दिए जा रहे हैं। जिसका औसत यदि देखा जाये तो एक विद्यार्थी और शिक्षक दोनों लगभग आठ से नौ घंटे आनलाइन व्यतीत कर रहे हैं। जोकि उनकी मानसिक और शारीरिक स्थिति के लिए घातक है। छोटे बच्चों के लिए और भी अधिक नुकसानदेह है। कई अभिभावकों ने फेसबुक पोस्ट के माध्यम से बताया कि उनके बच्चों की आंखों में समस्यायें पैदा रही है। इसके अलावा तकनीकी का बहुतायत उपयोग अवसाद, दुश्चिंता, अकेलापन आदि की समस्यायें भी पैदा करता है। इन समस्याओं से बचने के लिए प्रभावी चिंतन की आवश्यकता है, जिससे इनसे देश के भविष्य को बचाया जा सके।
बहरहाल सवाल अब भी वहीं खड़ा है कि क्या आनलाइन शिक्षा एक प्रभावी शिक्षा प्रणाली हो सकती है, जो गुरूशिष्य की आमने सामने पढ़ाई का विकल्प बने? अभी तक तो ऐसा नहीं दिखता। सरकार और शिक्षा जगत के लोग इसको बेहतर बनाने के लिए प्रयासरत हैं लेकिन भारत जैसे बड़े देश में आनलाइन शिक्षा में आने वाली बाधाओं से पार पाना अभी दूर की कौड़ी नज़र आ रहा है। परीक्षाओं और तकनीकी विषयों की प्रयोगात्मक परीक्षायें आदि को आनलाइन कराने का सवाल अभी भी जस का तस खड़ा है। हाल ही में जारी यूजीसी की गाइडलाइन ने भी पेनकॉपी वाले एग्जाम की ही वकालत की है। आनलाइन शिक्षा के बढ़ाव की भारत में प्रबल संभावनायें हैं, लेकिन चुनौतियां भी कम नहीं हैं। जब तक चुनौतियों का बेहतर आंकलन नहीं किया जायेगा तब तक अच्छे परिणाम प्राप्त नहीं किए जा सकते।

जनवरी 15, 2020

मां मुझे भक्ति दो, विवेक दो, ज्ञान दो, वैराग्य दो

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विवेकानंद का अर्थ है जिसने विवेक की जागृति कर उसके फलस्वरूप होने वाले आनंद की प्रत्यक्ष अनुभूति की हो। जिसने ज्ञानयोग की उस उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर लिया हो, जिसके बाद कुछ शेष नहीं रहता। भौतिक मार्ग को साधने के बाद ही अंतरंग की यात्रा संभव है। भौतिक जगत की साधना के लिए पतंजलि यम, नियम और आसन बताते हैं। विवेकानंद अगर कहते हैं कि आध्यात्मिक मार्ग से पहले जरूरत है फुटबॉल खेलने की इसका अर्थ है खिलाड़ी की तरह नियम और संयम का पाठ पढ़ो। शरीरिक दुर्बलता, मानसिक दुर्बलता को त्यागो। यह आध्यात्मिक यात्रा के लिए आवश्यक है। विवेकानंद क्यों ऐसा कह सकते हैं क्योंकि उन्होने खुद यह यात्रा तय की है।

बहिरंग के दु:खों से थका—हारा युवा नरेन्द्र जब रामकृष्ण परमहंस के पास आता है तो वो वह अपने दु:खों के निवारण के लिए परमहंस से कहता है। मां तो आपकी सुनती है, उससे कहो कि मेरे दु:खों को दूर करे। ठाकुर कहते हैं तू खुद क्यो नहीं कहता मां से। मंगलवार का दिन था, ठाकुर के कहे अनुसार रात को मां के मंदिर में जाना था। उससे पूर्व ही मन भक्ति के भाव से सराबोर होने लगा। बहिरंग के साधक की अंतरंग यात्रा जब शुरू होती है तो शायद यही अनुभव होता होगा जो उस समय नरेन्द्र को हो रहे थे। जैसे ही नरेन्द्र मंदिर पहुंचे सब भूलकर बोले 'मां, मुझे भक्ति दो, विवेक दो, ज्ञान दो, वैराग्य दो। ऐसा कई बार हुआ। यहां से नरेन्द्र के विवेकानंद बनने की प्रक्रिया आरंभ होती है। एक युवा जिसे मुर्तियों और प्रतीकों की पूजा से घृणा थी उसका ईश्वर के मातृत्व के प्रति श्रद्धा भाव प्रगाढ़ हो गया। विवेकानंद के समझने के लिए भक्ति, विवेक, ज्ञान और वैराग्य की अवस्थाओं में उतरना होगा। जिसने ये सब पा लिया वही आत्मवत् सर्वभूतेषु का जयकार कर सकता है।

कोई भी 'नरेन्द्र' यूं ही विवेकानंद नहीं बन जाता। उसके लिए भक्ति भाव से सराबोर होना होता है। ईश्वर के प्रति विश्वास को सुदृढ़ करना होता है। श्रीमद् भगवत् गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्। ज्ञान की प्राप्ति श्रद्धावान के लिए सरल है। निश्चल भाव ईश्वर के प्रति समर्पण ही श्रद्धा है। युवा नरेन्द्र भी इसी भाव के साथ मां काली के मंदिर में प्रवेश करता है और उसके विवेकानंद बनने की यात्रा आरंभ होती है। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन से कहते हैं सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥ अर्थात् सभी कर्मों को मुझ में लगा, मुझ में में विश्वास कर। मेरी शरण में आ। मैं तुझे मुक्त कर दूंगा। नरेन्द्र से विवेकानंद बनने का मूल मंत्र भी यही।

जनवरी 07, 2020

दिल्ली का दंगल, किसका होगा मंगल?

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सोमवार को चुनाव आयोग ने दिल्ली के दंगल का तिथियां निर्धारित कर दीं। 8 फरवरी को दिल्ली में 70 विधानसभा सीटों के लिए वोट डाले जायेंगे। 11 फरवरी को चुनाव परिणाम आना है, जोकि मंगलवार है। ऐसे में ये चुनावी दंगल किसका मंगल करेगा ये देखने वाली बात होगी। कुछ चैनलों के पोल ने आम आदमी पार्टी को पूर्ण बहुमत की सरकार दे दी है। ये आप के लिए राहत की बात है, वहीं बाकी पार्टियों के लिए एक माह बचे समय में ठीकठाक परिणाम देने का  बोझ। हालांकि 2019 के लोकसभा चुनावों और दिल्ली से सटे राज्य, हरियाणा के विधानसभा चुनावों की बात करें तो आम आदमी पार्टी की स्थिति ठीक नहीं रही है।
यह चुनाव कई मायनों में बड़ा होगा। आम आदमी पार्टी के लिए यह पांच साल किए गए कामों का परिणाम होगा वहीं बीजेपी के लिए नागरिकता संसोधन कानून में बदलाव के बाद के सबसे बड़ा लिटमस टेस्ट, क्योंकि इस बदलाव के बाद इसका विरोध दिल्ली में ही शुरू हुआ। जामिया के विद्यार्थिंयों के सहारे इसे विपक्षी पर्टिंयों ने इस विरोध को खूब भूनाने का प्रयास किया। यहीं से पूरे देश में विरोध की आग फैली जो अबतलक जारी है। आम आदमी पार्टी और कांग्रेंस के नेताओं पर दिल्ली में हिंसा भड़काने का आरोप भी इस दौरान लगा। दिल्ली के उप—मुख्यमंत्री और मौजूदा शिक्षामंत्री मनीष सिसोदिया सोशल मीडिया पर पुलिस पर आग लगाने के झूठे आरोप लगाते भी नज़र आये। चुनाव घोषणा से ठीक एक दिन पहले जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुआ लेफ्ट और राइट बवाल भी इस चुनाव में मुद्दा होने वाला है।
पिछली बार की तरह भ्रष्टाचार इस बार आम आदमी पार्टी के लिए मुद्दा नहीं दिखता। पार्टी विकास के नारे के साथ चुनाव मैदान में है। शिक्षा और स्वास्थ्य के दिशा में किए गए प्रयासों के सहारे मौजूदा मुख्यमंत्री केजरीवाल की पार्टी अक्रामकता का रूख त्याग करते हुए, अपनी छवि को ठीक करने का प्रयास कर रही है। उनके प्रवक्ता भी टीवी चैनलों में संतुलित नज़र आ रहे हैं। हालांकि सवाल कई हैं प्रवक्ताओं को जिनका जबाव देते नहीं बनता।
गृहमंत्री अमित शाह के हालिया बयान के बाद एक बार फिर माना जा रहा है कि बीजेपी का एक ही सहारा हैं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रवाद। ये बीजेपी के लिए कैसा साबित होगा ये तो चुनाव परिणाम की बतायेंगे। लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में बीजेपी की स्थिति ठीक नज़र नहीं आ रही। मुख्यमंत्री पद के लिए कोई भी चेहरा न दे पाने के कारण और सही समय पर निर्णायक स्थिति में न पहुंच पाने के कारण पिछले विधानसभी चुनावों में बीजेपी का हश्र क्या हुआ था यह लोग बाखूबी जानते हैं। इस बार भी परिस्थितियां पिछले चुनावों जैसी ही दिख रही है।

जनवरी 06, 2020

छात्रों के सहारे राजनीति तलाशती पर्टियां


जेएनयू में कल जो हुआ वह निंदनीय है। नकाबपोश गुन्डों ने एबीवीपी और वामपंथी विचारधारा के समर्थक विद्यार्थियों को पीट—पीटकर घायल कर दिया। उसके बाद शुरू हुयी पार्टियों की राजनीति और मीडिया का खेल। आजकल मीडिया खेल खेलने लगा है। दोनों ओर के मीडिया चैनलों एक दूसरे को विक्टिम की तरह पेश करना शुरू किया। लेकिन सबसे उम्दा मीडिया सोशल मीडिया ने उनका खेल बिगाड़ दिया जो मीडिया चैनल एबीवीपी और लेफ्ट के लिए बैटिंग कर रहे हैं अंत में उन्हें खबरों मं नकाबपोश लिखना पड़ा। ये नकाबपोश कौन थे अभी तक किसी को नहीं पता। दोनों ओर में व्हाटस ऐप में स्क्रीनशॉट वायरल हो चुके हैं। इनकी पड़ताल जारी है, और धीरे—धीरे एक और क्रांति का पटाक्षेप होता दिख रहा है। ऐसे में जो राजनीतिक पार्टिंयां छात्रों के सहारे जमीन तलाशने में लगी थीं वो एक बार ओर मुंह की खाती दिख रही हैं।
जेएनयू का आंदोलन फीस और हॉस्टल नियमों में बदलाव के खिलाफ पिछले तीन महीने से चल रहा है, पहले कक्षाएं नहीं चलने दी गईं। फिर परीक्षाओं का बहीष्कार किया और अब नामांकन प्रक्रिया को बाधित करने का दौर जारी था। फिर भी कई विद्यार्थियों ने नए सत्र के लिए नामांकन किया। तीन जनवरी को नामांकन प्रक्रिया को बाधित करने के लिए सर्वर रूम को बंद करने वाले छात्रों में भी नकाबपोश शामिल थे। इनका वीडियो भी सोशल मीडिया पर तैर रहा है। इसमें कौन लोग हैं, वो आसानी से पहचाने जा सकते हैं। इससे नाराज होकर आंदोलन कर रहे और नामांकन करने वाले छात्रों के बीच मारपीट हुई। इसी बीच घटना में नकाबपोशों के आगमन होता है और फिर शुरू होती है राजनीति।
इस जड़ तलाशने की कोशिश करते हैं। ये कोई नया नहीं है अभी हाल ही में नागरिकता संसोधन विधेयक के समय भी जामिया और एएमयू के छात्रों को मोहरे की तरह उपयोग किया गया। जाधवपुर की खबरों से भी आप लोग वाकिफ होंगे। वहां राज्यपाल तक को घुसने नहीं दिया जाता। पूरे देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्रों के बीच छुटपुट झडपें आम बात है। लेकिन जेएनयू है, दिल्ली में है, मीडिया पास है तो पक्ष क्या विपक्ष और विपक्ष क्या दोनों अपने अपने लोगों के साथ आसानी से खड़े हो जाते हैं और मीडिया को मुद्दा मिल जाता है, अपनी टीआरपी को रंगने का। असल में मेरी समझ यह कहती है कि अधिकतर विपक्षी पर्टियों की जमीन खिसक रही है। नागरिकता संसोधन विधेयक पर प्रारंभ में तो सहयोग मिला, वह भी अब ढलान की ओर है। ऐसे में राजनीति के सबसे आसान मोहरे, विद्यार्थियों को भड़काओ, उनके आंदोलनों में खुद की राजनीति घुसाओ और आग लगी रहने दो। जब तक दिल्ली चुनाव नहीं हो जाता।
ऐसे मौकों पर केन्द्र, राज्य सरकार और पुलिस की भूमिका अहम हो जाती है। तीनों को चाहिए की राजनीति छोड़कर इस घटना की निष्पक्ष जांच करायें और जो भी लोग इस विभत्सकृत्य में शामिल हैं, चाहें वो किसी गुट के हों, उन्हें मीडिया के सामने लाकर, पूरे देश को बतायें कि ये लोग यहां पढ़ने नहीं आते गुंडागर्दी करने आते हैं। लेकिन इसकी उम्मीद भी कम ही दिखती है, जेएनयू में लगे नारों की जांच की फाइल दिल्ली की आप सरकार अब भी दबा के बैठी है जबकि कोर्ट कई बार इस मामले में टिप्पणी कर चुका है। इस नउम्मीदी के दौर में हम केवल ये कर सकते हैं, इसमें शामिल लोगों को जैसे हो सके बेनकाब करें। वैसे वो हो भी रहे हैं और होते भी रहेंगे।